रु.20,000 करोड़ का यह निवेश सार्वजनिक स्वास्थ्य में किया जाए

सप्रेस ब्‍यूरो

20 मई 2020।  केंद्र सरकार द्वारा हाल ही में नागरिक और पर्यावरण पक्षीय कानूनों में किये गए बदलावों और राष्ट्रहित को नुकसान पहुंचाने वाली विशाल परियोजनाओं को दिए जा रहे बढ़ावे पर जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय ने गहरी चिंता प्रकट की है।

विश्व की सबसे खतरनाक महामारी के समय में, एक मज़बूत सार्वजानिक स्वास्थ्य प्रणाली में निवेश करने के बजाए, कई विवादास्पद परियोजनाओं को मंजूरी देने के लिए ‘लॉकडाउन’ के इस समय का गलत इस्तेमाल किया जा रहा है। गौरतलब है कि लगभग 191 विशाल खनन, मूलभूत संरचना और औद्योगिक परियोजनाओं को पर्यावरणीय, वन एवं वन्यजीव मंजूरी देने की प्रक्रिया चल रही है, जिसके अंतर्गत ‘एक्सपर्ट अप्प्रैसल कमिटी’ (ई.ए.सी.) ‘विडियो बैठकों’ के माध्यम से कुछ ही समय के विमर्श में इन परियोजनाओं को मंजूरी दे देती है।

जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय ने मांग की है कि पर्यावरण एवं वन मंत्रालय सेंट्रल विस्टा परियोजना को दी गयी संदिग्ध मंजूरी को शीघ्र वापस ले जाए। केंद्र सरकार को इस परियोजना को हमेशा के लिए त्याग कर देना चाहिए और रु. 20,000 करोड़ की विशाल राशि को सार्वजनिक स्वास्थ्य मूलभूत संरचनाओं के निर्माण के लिए स्वास्थ्य मंत्रालय को सौंप देना चाहिए।

जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय की राष्‍ट्रीय समन्‍वयक मेधा पाटकर, अरुंधति धुरु, सुनीति एस.आर., ऋचा सिंह, डॉ. संदीप पांडे, सुनीलम् आदि जनसंगठनों के प्रतिनिधियों ने जारी प्रेस नेाट में कहा है कि बहुप्रचारित ‘सेंट्रल विस्टा परियोजना’  ऐसी ही एक गैर-कल्पित परियोजना है जिसे पर्यावरणवादियों, इतिहासकारों और नागरिकों के विरोध के बावजूद, हाल में मंजूरी दी गई है। ई.ए.सी. की 22 अप्रैल को दी गयी सिफारिशों के आधार पर, पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने नई संसद के निर्माण, जो कि रु. 20,000 करोड़ की महत्वाकांक्षी सेंट्रल विस्टा परियोजना का ही हिस्सा है, के लिए सशर्त पर्यावरण मंजूरी दी थी। ई.ए.सी. को जमा की गई 1300 आपत्तियों पर उचित तरीके से विचार तक नहीं किया गया, और यह उच्चतम स्तरों पर पर्यावरणीय निर्णय प्रणाली की दुखद स्थिति को दर्शाता है!

उल्‍लेखनीय है कि सेंट्रल विस्टा परियोजना के तहत 3 कि.मी. लम्बे राजपथ के पुनर्निर्माण की परिकल्पना की गई है, जिसमें केन्द्रीय सचिवालय के साउथ और नार्थ ब्लॉक और भारत का संसद भवन शामिल हैं। इस पुनर्निर्माण के अंतर्गत, नार्थ और साउथ ब्लॉक को संग्रहालयों में तब्दील करने और महत्वपूर्ण कार्यालयों, जैसे कि कृषि भवन, निर्माण भवन, विज्ञान भवन आदि को ध्वस्त करने की योजना है। प्रस्ताव है कि जुलाई 2022 तक एक नयी 900 सीटों की संसद बिल्डिंग और मार्च 2024 तक केन्द्रीय सचिवालय का निर्माण पूरा किया जाए।

जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय से जुडे प्रतिनिधियों ने कहा कि यह आश्चर्य की बात नहीं होगी कि इस पैसे की बर्बादी को भी सन् 2024 के चुनावों में देशभक्ति के पैगाम के रूप में पेश किया जाएगा। गुजरात की कंपनी एच.सी.पी. डिज़ाइन, प्लानिंग एंड मैनेजमेंट प्राइवेट लिमिटेड को इस परियोजना का टेंडर दिया गया है। वास्तव में, हाल में प्रधानमंत्री और केन्द्रीय आवास एवं शहरी मामलों के मंत्री को, लगभग 60 सेवानिवृत्त नौकरशाहों द्वारा लिखा गया पत्र में इन लोगों ने सलाहकार आर्कीटेक्ट के चुनाव पर गंभीर चिंता व्यक्त की है और कहा है, “रिकॉर्ड समय के अन्दर जल्दबाज़ी में तैयार किया गया अनुचित टेंडर पास करके, त्रुटिपूर्ण प्रक्रिया द्वारा वास्तुकार कंपनी का चुनाव किया गया है “।

इस परियोजना के खिलाफ़ दिल्ली उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायलय में कई कानूनी मामले दर्ज हैं जिनमें दावा किया गया है कि यह परियोजना भूमि उपयोग में गैर-कानूनी बदलाव करेगी और यह दिल्ली मास्टर प्लान-2021, जिसमें ‘राष्ट्रीय राजधानी में सरकारी कार्यालयों के विकेंद्रीकरण’ की योजना है, का उल्लंघन करती है। इसकी कानूनी वैधता पर भी प्रश्न उठाया गया है कि जब दिल्ली विकास प्राधिकरण ने पहले ही 19 दिसंबर 2019 को जारी नोटिस के माध्यम से इस परियोजना पर आपत्तियां आमंत्रित की थीं और उसे सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी जा चुकी थी, तो फिर 20 मार्च, 2020 को दिल्ली विकास प्राधिकरण ने नया नोटिस कैसे जारी कर दिया, और यह ‘न्याय की प्रक्रिया में दखलंदाज़ी’ करने के समान है। यह दावा किया गया है कि यदि इस परियोजना को लागू किया जाता है, तो लुट्येन्स दिल्ली का हरित क्षेत्र मौजूदा 86 प्रतिशत से गिरकर 9 प्रतिशत रह जाएगा और सेंट्रल विस्टा के कुल 105 एकड़ में से कम-से-कम 90 एकड़ सार्वजानिक, अर्ध-सार्वजानिक ज़िला पार्कों और खेल के मैदानों के अंतर्गत श्रेणीबद्ध है।

सेंट्रल विस्टा परियोजना यूनेस्को उद्घोषणा, 2003 जो कि ‘सांस्कृतिक धरोहर के जानबूझकर विनाश’ करने से संबंधित है और जिस पर भारत ने भी हस्ताक्षर किये हैं, के प्रावधानों का भी उल्लंघन करती है। वास्तव में, ये आम जानकारी में नहीं है कि जनवरी 2014 में यू.पी.ए. सरकार द्वारा यूनेस्को को “दिल्ली के शाही राजधानी क्षेत्रों” को विश्व विरासत स्थल का दर्जा दिए जाने के लिए दिए गए प्रस्ताव को मोदी सरकार ने वापस ले लिया था, और इसके पीछे कोई कारण भी नहीं दिया गया था।

ई.ए.सी. और एम.ओ.ई.एफ. द्वारा इस प्रकार की विशालकाय परियोजनाओं पर जल्दबाज़ी में निर्णय लेने का पुराना इतिहास रहा है। इस प्रकार की विशाल मूलभूत संरचना निर्माण की परियोजनाएं पर्यावरण का विशाल स्तर पर विनाश करती हैं, लेकिन पर्यावरण-कानूनी सुरक्षा प्रणालियाँ और प्राधिकरण देश के कानून का बचाव करने में विफल रहे हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हाल की सुनवाई में, सर्वोच्च न्यायालय ने भी इस मामले को “इतना ज़रूरी” नहीं समझा कि इस पर लॉकडाउन के अंतर्गत सुनवाई की इजाज़त देता, जबकि इसके खिलाफ गंभीर आपत्तियां दर्ज की गयी हैं और यह तय है कि यह परियोजना संभावित और अपरिवर्तनीय रूप से इस क्षेत्र के पूरे परिदृश्य को बदल कर रख देगी।

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