24 अप्रैल । हिंदी के प्रख्यात जनवादी कथाकार रमेश उपाध्याय हमारे बीच नहीं रहे। वे पिछले कई दिनों से कोविड से संक्रमित थे और एक अस्पताल में उनका इलाज चल रहा था। सारी कोशिशों के बावजूद दिनांक 24 अप्रैल को प्रात:काल उनका देहावसान हो गया। छह दशकों से हिंदी साहित्य को अपने लेखन से समृद्ध करने वाले और अभी भी लेखन में सक्रिय रहने वाले रमेश जी का इस तरह हमारे बीच से चले जाना हम सभी के लिए एक बहुत बड़ा आघात है।
सन् 1960 के बाद की अथवा ‘सातवें दशक की हिंदी कहानी’ के प्रमुख कहानीकार के रूप में उभरे रमेश उपाध्याय ‘समांतर कहानी’ तथा ‘जनवादी कहानी’ नामक आंदालनों के सूत्रधार तथा प्रमुख कहानीकार थे। जनवादी लेखक संघ के संस्थापक सदस्य होने के साथ-साथ वे उसकी केंद्रीय कार्यकारिणी तथा राष्ट्रीय सचिव मंडल के सदस्य भी रहे।
रमेश उपाध्याय की पहली कहानी 1962 में प्रकाशित हुई थी और पहला कहानी संग्रह ‘जमी हुई झील’ 1969 में। तब से वे लगातार कहानी, उपन्यास, नाटक, नुक्कड़ नाटक, आलोचना आदि विधाओं में लेखन करते रहे। कई महत्त्वपूर्ण पुस्तकों के अनुवाद भी उन्होंने किये। अपनी पीढ़ी के वे काफी चर्चित और प्रतिष्ठित लेखक थे और हर पीढ़ी के लेखकों से उनका आत्मीय संवाद रहा। वे उन कुछ वरिष्ठ लेखकों में से थे जिन्होंने जनवादी लेखक संघ की स्थापना में सक्रिय हिस्सा लिया था।
रमेश उपाध्याय लघु पत्रिका आंदोलन से भी गहरे रूप में जुड़े थे। स्वयं उनके द्वारा प्रकाशित और संपादित त्रैमासिक पत्रिका ‘कथन’ कई दशकों तक हिंदी की प्रतिष्ठित पत्रिका के रूप में लोकप्रिय रही है। अब इस पत्रिका का संपादन उनकी छोटी बेटी संज्ञा उपाध्याय कर रही हैं। रमेश जी ने ‘आज के सवाल’ नामक पुस्तक शृंखला का संपादन भी किया है। उनकी बड़ी बेटी प्रज्ञा भी हिदी की जानी-पहचानी युवा कथाकार हैं और बेटा अंकित चित्रकार हैं। कुछ साल पहले ही उनकी पत्नी सुधा उपाध्याय की आत्मकथा भी प्रकाशित हुई थी, जो काफी चर्चित रही। सुधा जी स्वयं अभी कोविड से ग्रस्त हैं और उनका इलाज चल रहा है।
साहित्य-रचना, साहित्यिक आंदोलन और लेखक-संगठन के साथ-साथ उन्होंने अंग्रेजी, गुजराती और पंजाबी से महत्त्वपूर्ण कृतियों के अनुवाद भी किये हैं। ‘युग-परिबोध’ और ‘कथन’ नामक श्रेष्ठ साहित्यिक पत्रिकाओं के साथ-साथ उन्होंने ‘आज के सवाल’ नामक पुस्तक शृंखला की 35 पुस्तकों का तथा ‘हिंदी विश्वज्ञान संहिता’ नामक विश्वकोश के प्रथम खंड का संपादन भी किया।
साहित्य में ‘भूमंडलीय यथार्थवाद’ की नयी अवधारणा को अस्तित्व में लाने एवं विकसित करने का श्रेय भी उन्हें है। अनेक सम्मानों तथा पुरस्कारों से नवाजे गये रमेश उपाध्याय एक दशक तक पत्रकार रहने के बाद तीन दशकों तक दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के एसोसिएट प्रोफेसर थे। 2004 में सेवानिवृत्त होकर पूर्णतः स्वतंत्र लेखन कर रहे थे।
1 मार्च 1942 को उत्तर प्रदेश में जन्मे रमेश जी का आरंभिक जीवन काफी संघर्षों के बीच बीता था। प्रिंटिंग प्रेस में कंपोजिटर से लेकर पत्रकारिता करने तक उन्होंने जीवनयापन के लिए कई तरह के काम किये। इसी दौरान उन्होंने एम.ए.पीएच.डी.तक की पढ़ाई पूरी की और दिल्ली विश्वविद्यालय के कॉलेज ऑफ वोकेशनल स्टडीज में प्राध्यापक नियुक्त हुए जहाँ आगे तीन दशकों तक उन्होंने अध्यापन कार्य किया।
साहित्यिक सरोकारों के साथ साथ समाजशास्त्र व अर्थशास्त्र के भी वे गहरे अध्येता था। जीवन और संसार के प्रति बड़ा नजरिया था।
रमेश उपाध्याय के अब तक पंद्रह से अधिक कहानी संग्रह, पांच उपन्यास, तीन नाटक, कई नुक्कड़ नाटक, आलोचना की कई पुस्तकें और अंग्रेजी और गुजराती से कई पुस्तकों के अनुवाद भी प्रकाशित हुए हैं। अपने रचनात्मक लेखन के अलावा उन्होंने साहित्य के सैद्धांतिक पक्ष पर भी काफी लिखा है। पिछले तीन दशकों में यथार्थवाद का जो नया रूप साहित्य लेखन में व्यक्त हुआ, उसे उन्होंने भूमंडलीय यथार्थवाद नाम दिया था और इस अवधारणा के विभिन्न पक्षों की विस्तृत व्याख्या भी प्रस्तुत की थी। लेखन के लिए उन्हें केंद्रीय हिंदी संस्थान द्वारा गणेश शंकर विद्यार्थी सम्मान, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान और हिंदी अकादमी, दिल्ली द्वारा भी पुरस्कृत और सम्मानित किया गया था।