‘‘जल स्वराज्य विशेषांक’’ पुस्तक का विमोचन
26 जुलाई । दिल्ली विश्वविद्यालय के सामाजिक-राजनीतिक विभाग में लोकमान्य तिलक के जन्मदिवस के अवसर पर जल स्वराज्य पर्व कार्यक्रम में ‘‘जल स्वराज्य विशेषांक’’ पुस्तक का विमोचन किया गया। इस मौके पर मेगसेसे अवार्ड से सम्मानित, सुखाड़ – बाढ़ विश्व जन आयोग के अध्यक्ष जलपुरुष राजेन्द्र सिंह, अखिलेश, डॉ. आशुतोष तिवारी, रमेश शर्मा, अवंतिका, संजय सिंह, नीरज कुमार और दिल्ली यूनिवर्सिटी के अनेक शिक्षक और विद्यार्थी मौजूद थे। विमोचन करते हुए राजेंद्र सिंह ने कहा कि जल स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है, प्रकृति और हम इसे लेकर रहेंगे।
उन्होंने कहा कि महात्मा गांधी ने हमें स्वराज्य दिला दिया, देश के लोगों ने खड़े होकर स्वराज्य प्राप्त कर लिया। लेकिन अभी प्रकृति, नदी और जल को स्वराज्य नहीं मिला। स्वराज्य प्रकृति के प्राकृतिक स्वरूप से ही बना है। स्वराज्य का उदय, सूरज के स्वराट् से होता है। यह अपने आप सब कुछ करते हुए नियमित चलता है। स्वराज कर्तव्य पालन से आरंभ होता है। जब कोई कर्तव्य को ठीक से पूरा कर लेता है, तो अधिकार उसका सुनिश्चित हो जाता है।
जीवन को बनाने वाले जल को भी स्वराज्य आवश्यक
उन्होंने कहा कि हमें उम्मीद थी कि हमारा स्वराज्य हमारी प्रकृति के स्वराज्य को सहज रूप से दे देगा, लेकिन जिस तरह का विकास का क्रम चला, उस क्रम ने प्रकृति का दर्शन, प्रकृति का प्रेम, सम्मान और प्रकृति के प्रति मानवीय आस्था, पर्यावरण की रक्षा-सुरक्षा भाव हमसे अलग होते और बिखरते चले गए। उसका परिणाम है कि ना तो पानी को स्वराज है, ना धरती को और ना नदी को स्वराज्य है।
डॉ. राजेंद्र सिहं ने कहा कि हमारे जीवन को बनाने वाले जल को भी स्वराज्य चाहिए। आज के दिन को हम जल स्वराज्य का दिन शुरू करते हैं। 1985 में जब हमारे गोपालपुरा गांव में अपनी जमीन पर ही पेड़ लगाने के लिए ऊपर ₹5955 की पेनल्टी हुई थी। तब मैंने कहा था कि मैंने तो पेड़ लगाये हैं और पेड़ लगाना मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है। जहां मुझे पेड़ लगाने की जरूरत लगेगी मैं जरूर वहां पेड़ लगाऊंगा।
उन्होंने कहा कि रमेश शर्मा, जो गीत सुनाते है कि नदिया धीरे बहो; उसका मतलब है कि ये प्रकृति की अपनी आजादी नदी धीरे बहे, हवा धीरे वहे, वो जीवन धीरे बहे। लेकिन वो अपनी आजादी से स्वराज्य में बहता हो, वह ही जीवन का स्वराज्य होता है।
अपने स्वराज्य से किया लोगों ने जल के संरक्षण का काम
‘रामधारी सिंह दिनकर स्मृति न्यास’ के अध्यक्ष नीरज कुमार ने जल स्वराज्य विशेषांक के विषय में बोलते हुए कहा कि मैं चंबल में मथारा, नाहरपुरा, भूडखेडा, कोरीपुरा आदि गांवों को देखकर आया हूँ, जहां लोगों ने जल के रक्षण-संरक्षण का काम अपने स्वराज्य से किया और पानीदार बन गए। यहां के लोग अब चोरी-डकैती छोड़कर खेती, पशुपालन करके आनंद ही आनंद में रहते है। यह तभी संभव हुआ जब उन्हें जल स्वराज्य का अहसास हुआ। अब पूरी दुनिया के लोग यह पानी का काम देखने के लिए आ रहे हैं, जो लोग सरकार की तरफ देखते रहे, वे बेपानी हैं।
रमेश शर्मा ने कहा कि यमुना का जो रौद्र रूप लोगों ने देखा है, वह यमुना का स्वरूप था। यमुना उस स्थान पर बही, जिस स्थान पर पहले बहती थी। बहुत सालों के बाद यह देखकर खुशी है कि यमुना उस स्थान पर है, जहाँ होनी चाहिए। यदि शुद्ध सदानीरा होकर , यमुना आज जिस जगह बह रही है, वहीं बहती रहेगी तो देश समाज, आत्मा, अध्यात्म और प्रकृति का बहुत फायदा होगा। स्वस्थ्य समाज और जीव -जगत का निर्माण तभी होगा, जब हमारी नदियाँ अविरल बहेगी।
‘‘सुखाड़ – बाढ़ विश्व जन आयोग’’ के महामंत्री डॉ. आशुतोष तिवारी ने वैज्ञानिक ढंग से समझाते हुए कहा कि वैज्ञानिक मानते हैं कि सृष्टि के सारे जीव और वृक्ष संपदा सब पानी से हैं। हमने नदियों के स्वराज्य को छीन लिया और उनके अधिकारों को अपना अधिकार मान बैठे हैं। आज हम इतने अंधे हो गए हैं कि हमें प्रकृति नहीं दिख रही। कार्यक्रम के अंत में तय हुआ कि 15 अगस्त तक जल स्वराज्य की टोलियों को बनाकर लोगों को जागरूक किया जायेगा।
इसके पूर्व डॉ. राजेंद्र सिंह ने दिल्ली में ही ‘वूमेन प्रेस क्लब’ में यमुना की बाढ़ पर पत्रकारों के साथ संवाद करते हुए कहा कि हमारे आज के विकास ने बरसाती नालों को मैला ढोने वाला नाला बना दिया है। पुराने जमाने में नाले का मतलब होता था, जिसमें बरसात का साफ-सुथरा पानी प्रवाहित होता हो। हम खुद नालों में स्नान करके, आनंद लेते थे। अब तो उनके पास खड़ा होना भी मुश्किल है।
नदियों पर तीन बड़े संकट – अतिक्रमण, प्रदूषण और शोषण
नदियों और नालों पर तीन बड़े संकट हैं -अतिक्रमण, प्रदूषण और शोषण। इस संकटों से अभी दिल्ली बहुत प्रभावित है। दिल्ली की बाढ़ कोई प्राकृतिक बाढ़ नही है, फिर भी दिल्ली डूब गई। यमुना का पानी सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच गया था। इस बाढ़ से बचने के लिए हथनी कुंड के पानी को हरियाणा, उत्तर प्रदेश की कैनालो को खोल देते तो इतनी तबाही न होती। यह बाढ़ का पानी पूरे हरियाणा को पोषित करते हुए यमुना में मिल सकता था। यह पानी कम बारिश वाले इलाकों के लिए उपयोगी बन सकता था। बाढ़ के पानी से कोटला लेक, नजफगढ़ लेक आदि में भूजल भरण किया जा सकता था। बाढ़ से विस्थापित – प्रभावित लोगों को बहुत मुश्किलों का सामना करना पड़ा। सरकार के सिंचाई विभागो को आगे कर्तव्यपूर्ण तरीके से काम करना होगा।
यदि दिल्ली को बाढ़ से बचना है, तो यमुना की ज़मीन को यमुना के लिए ही छोड़ देना चाहिए। यमुना के रेड जोन, ब्लू जोन और ग्रीन जोन में किसी भी तरह का कोई अतिक्रमण नहीं होना चाहिए। यदि अतिक्रमण होता है तो आगे का प्रलय इससे भी भयंकर होगा। इसलिए आगे के प्रलय से बचने के लिए यमुना की ज़मीन पर किसी भी तरह के क़ब्ज़े नहीं होने चाहिए। यमुना की खादर की ज़मीन पर जो क़ब्ज़े हुए हैं, उन्हें हटाना चाहिए। क़ब्ज़ों को हटाकर, यमुना को अविरल प्रवाह देना होगा।