विनोबा भावे की 125वीं जयंती पर विनोबा विचार प्रवाह की अंतर्राष्ट्रीय संगीति
भारत को एक करने का श्रेय यहां के संतों को है। उन्होंने पूरे देश में घूमकर सद्विचारों में इसे बांध दिया है। भारत में अखंड आध्यात्मिक विचार संपदा है। यही हमारे जीवन का पाथेय है। वैदिक ऋषियों से लेकर आज तक शब्दों की अखंड परंपरा चली आ रही है। आचार्य विनोबा भावे ने जीवन के सभी क्षेत्रों में समन्वय करने का अद्भुत पराक्रम किया है। वे इस देश के समन्वयाचार्य हैं।
उक्त विचार ब्रह्मविद्या मंदिर, पवनार (वर्धा) की साधिका सुश्री ज्योत्सना बहन ने आचार्य विनोबा भावे की 125वीं जयंती पर विनोबा विचार प्रवाह द्वारा फेसबुक माध्यम पर आयोजित अंतर्राष्ट्रीय संगीति में व्यक्त किए।
सुश्री ज्योत्सना बहन ने अपने उद्बोधन में कहा कि हमने कभी भी विश्व से कम चिंतन नहीं किया। संत ज्ञानेश्वर महाराज विश्व को घर ही मानते हैं। विनोबा जी की दृष्टि में समाज को आगे ले जाने में संत, वैज्ञानिक और साहित्यकार की महत्वपूर्ण भूमिका है। हमारे यहां के लोग शासकों के नाम याद नहीं करते बल्कि संतों को जानते हैं। उन्होंने कहा कि आत्मज्ञान और विज्ञान में समन्वय करने का दायित्व साहित्यकारों है। विनोबा जी ने तेरह साल पदयात्रा करके हरेक प्रांत के संत साहित्य का गहराई से अध्ययन किया और उसे आमजनता के लिए सर्वसुलभ बनाया। धार्मिक भेदों के निरसन के लिए विनोबा जी ने सभी धर्मग्रंथों का अध्ययन कर उसका सार प्रस्तुत किया है। यह उनकी दुनिया को अनुपम देन है।
सुश्री ज्योत्सना बहन ने कहा कि शब्दातीत अनुभव को शब्दों में बांधने का काम साहित्य करता है। वास्तव में विनोबा जी शब्दब्रह्म के साधक थे। उन्होंने अपने चिंतन से समाज को आध्यात्मिक प्रेरणा प्रदान की। अध्यात्म में नाम स्मरण की महिमा बहुत है। आकाश से भी व्यापक नाम है। नाम स्मरण से वाणी को सत्य पालन करने में सहायता मिलती है। इसे प्राप्त करने के लिए आध्यात्मिक पुरुषों की संगति करना जरूरी है। विनोबा के जीवन को गढ़ने का काम महात्मा गांधी ने किया। विनोबा की दृष्टि में गांधीजी भारतीय और पाश्चात्य संस्कृतियों के संगम हैं।
व्याख्यान के द्वितीय वक्ता गुजरात विद्यापीठ के पूर्व कुलसचिव डॉ. राजेंद्र खिमाणी ने विद्यापीठ और ग्रामशिल्पी में विद्यार्थियों के साथ किए जाने वाले प्रयोगों की जानकारी प्रदान की। उन्होंने बताया कि विद्यापीठ में विद्यार्थियों को डिग्री के साथ सादगी से जीवन जीना सिखाया जाता है। विद्यापीठ में अवकाश हो जाने पर विद्यार्थियों को कैम्पस में रहने की सुविधा दी जाती है। उन विद्यार्थियों को परिसर बनाने की जिम्मेदारी दी जाती है। विद्यापीठ की ओर से उन्हें कुछ मानदेय दिया जाता है, जिससे वे अपनी पढ़ाई का खर्चा निकाल सकें। इसे विद्यापीठ ने स्वाभिमान के साथ शिक्षा नाम दिया है। श्री खिमाणी ने बताया कि विद्यापीठ प्रतिवर्ष पांच दिन की पदयात्रा आयोजित करता है। विद्यार्थी गांव में जाकर अनपढ़ ग्रामीणों से जीवन के अनुभव सीख कर आते हैं। ऐसा ही एक प्रयोग पश्चाताप से शिक्षण भी है। किसी विद्यार्थी में कोई दोष होने पर उसे दूसरे कैम्पस में रखते हैं। वहां विद्यार्थी की पसंद का काम उसे दिया जाता है। काम के बदले में उसे कुछ राशि प्रदान की जाती है, जिससे वह अपनी पढ़ाई का खर्च निकाल सके। अच्छी तरह कार्य संपादित करने पर उसके पढ़ाई के वर्ष कम कर देते हैं। श्री खिमाणी जी ने गांधी-विनोबा के विचारों पर आधारित अनेक प्रयोगों की जानकारी दी। संगीति के प्रारंभ में ब्रह्मविद्या मंदिर की सुश्री ललिताबहन ने भजन प्रस्तुत किया। संगीति का संचालन श्री संजय राय ने किया। आभार श्री रमेश भैया ने माना। (प्रस्तुति : डॉ.पुष्पेन्द्र दुबे) (सप्रेस)