विश्व आदिवासी दिवस के मौके पर विशेष रिपोर्ट
गढ़चिरौली । ठीक दो वर्ष पूर्व, अगस्त 2018 में, ‘भारत में जनजातीय स्वास्थ्य – खाई कैसे मिटायें? : भविष्य के लिये मार्गदर्शन’ नामक रिपोर्ट आधिकारिक तौर पर भारत सरकार को प्रस्तुत की गयी। यह एक मील का पत्थर साबित होने वाली अपनी तरह की पहली रिपोर्ट थी। यह रिपोर्ट पद्मश्री डॉ. अभय बंग –विख्यात आरोग्य विशेषज्ञ तथा महाराष्ट्र के गढ़चिरौली में सर्च नामक एक स्वयंसेवी संगठन के संस्थापक-संचालक – की अध्यक्षता में 12 सार्वजनिक स्वास्थ्य के विशेषज्ञों की ‘द एक्स्पर्ट कमेंटी ऑन ट्राइबल हेल्थ‘ के पांच साल के परिश्रम का परिणाम था। समिति का गठन स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय और आदिवासी मामलों के मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा संयुक्त रूप से किया गया था। इसका उद्देश्य आदिवासी स्वास्थ्य की स्थिति की समीक्षा करने और भविष्य के रोडमैप की सिफारिश करना था।
9 अगस्त 2018 को नई दिल्ली के निर्माण भवन में एक आधिकारिक समारोह में, तत्कालीन स्वास्थ्य मंत्री श्री जे. पी. नड्डा, जनजातीय मामलों के मंत्री श्री ओराम, एवं दोनों मंत्रालयों और आईसीएमआर के अन्य प्रतिनिधियों, की उपस्थिती में यह रिपोर्ट प्रस्तुत की गई। रिपोर्ट का स्वागत करते हुए श्री नड्डा ने इसकी सिफारिशों के आधार पर कार्रवाई का वादा किया। इसी तरह, नीति अयोग ने भी रिपोर्ट के आधार पर कार्रवाई करने की सिफारिश की थी। दो साल हो गए और वास्तव में कुछ भी नहीं हुआ है। ग्यारह करोड़ आदिवासी लोगों के स्वास्थ्य सुधार का कार्य अब तक प्रलंबित है।
इन दो वर्षों में, लगभग 15 लाख आदिवासियों की विभिन्न कारणों से मृत्यु होने का अंदाज हैं। रिपोर्ट के अनुसार, इन कारणों में मलेरिया, कुपोषण, नवजात निमोनिया और डायरिया, नवजात रुग्णता, तपेदिक, सर्पदंश, शराब, आत्महत्या और तेजी से बढ़ रहे गैर-संक्रामक रोग शामिल हैं। । इन मौतों में से अधिकांश तो अक्सर दर्ज ही नहीं की जाती, और इसलिए इनकी गिनती भी नहीं होती।
रिपोर्ट के मुताबिक भारत के 11 करोड़ अनुसूचित जनजातियों की स्वास्थ्य की स्थिति सबसे खराब है। 2011 में, लगभग 146,000 आदिवासी बच्चों की मृत्यु हुई। आदिवासी क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवा बेहद कमजोर है- सेवा के ढांचे औरआदिवासियों के जीवन शैली (अक्सर जंगलों और पहाड़ियों) में एक बेमेंल है। यह उनकी सांस्कृतिक या सामाजिक संरचनाओं और विशिष्ट स्वास्थ्य आवश्यकताओ के अनुरूप नहीं है।
आदिवासी क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवा व्यवस्था के बुनियादी ढाँचे की स्थिति और स्वास्थ्यकर्मियों की उपलब्धता में कमी एक गंभीर विषय हैं: 30-80% डॉक्टर के पद खाली हैं। जहाँ डॉक्टर मौजूद हैं, अनुपस्थिति आम और मनोबल कम है। समिति का निष्कर्ष है कि आदिवासी इलाको में स्वास्थ्य सेवा प्रणाली ‘यह एक कम निवेश, कम गुणवत्ता, कम उत्पादन और कम परिणाम वाली प्रणाली है।”
आदिवासी स्वास्थ्य पर रिकॉर्ड और डेटा का रखाव भी बेहद चिंताजनक है। भारत के आदिवासी जनसंख्या में शिशु मृत्यु दर और आयु-संभाव्यता (life-expectancy) जैसे मुलभूत सुचकांको की गणना नहीं की जाती। यही नहीं तो इन आंकड़ों को जानने के लिए केंद्र या राज्य सरकारों में कोई गंभीरता भी दिखाई नहीं देती। आदिवासी स्वास्थ्य को पूर्ण उदासीनता द्वारा निष्प्रभ कर दिया जाता है। गणना नहीं रखना, इसके बारे में कुछ प्रकाशित नहीं होना, मूल्यांकन नहीं किया जाना। आखिर इसमें सुधार कैसे होगा?
विशेषज्ञ समिति कुछ दीर्घकालिक संरचनात्मक उपाय और विशेष समस्याओं (जैसे मलेरिया या बाल मृत्यु) के लिए समाधान बताती है। इसके अलावा एक विशिष्ट राशि यानी रु 2500 प्रति आदिवासी व्यक्ति प्रति वर्ष अथवा सालाना लगभग रु 27500 करोड़ केंद्र और राज्यों द्वारा संयुक्त रूप से आदिवासी स्वास्थ्य पर खर्च किए जाने की सिफारिश भी यह समिति करती है ।
कुछ अन्य सिफारिशें निम्न प्रकार की हैं:
- खाई को पाटने और 2027 तक आदिवासियों के स्वास्थ्य को राज्य के औसत स्तर पर लाने के लक्ष्य के साथ एक आदिवासी स्वास्थ्य कार्ययोजना की शुरुआत।
- केंद्र और राज्य के कुल स्वास्थ्य बजट का 8.6% आदिवासीयों के स्वास्थ्य सेवा पर खर्च किया जाना चाहिए।
- सुचारू निर्णय-प्रक्रिया और संचालन के लिए राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर एक आदिवासी स्वास्थ्य परिषद, आदिवासी स्वास्थ्य निदेशालय और आदिवासी स्वास्थ्य अनुसंधान कक्ष की स्थापना की जानी चाहिए।
- आदिवासी ग्रामसभा, आदिवासी युवा, आशा, आदिवासी स्वास्थ्य और कल्याण केंद्रों, मोबाइल आउटरीच क्लिनिक और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों को मजबूत करते हुए प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा वितरण प्रणाली को आदिवासी समुदायों की ओर उन्मुख करें।
- आदिवासीयों को सर्वोत्तम संभव सेवा प्रदान करने के लिए पारंपरिक आदिवासी चिकित्सा, आधुनिक चिकित्सा और सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणालियों के एकीकरण की सुविधा।
- आदिवासी स्वास्थ्य के विभिन्न पहलुओं पर ज्ञान और विस्तृत डेटा उत्पन्न करना। इनमें शामिल है- जनजाति विशिष्ट सर्वेक्षण, आदिवासी स्वास्थ्य डेटा का संग्रह, राष्ट्रीय सर्वेक्षणों जैसे कि एनएफएचएस और सैंपल रजिस्ट्रेशन प्रणाली द्वारा जनजाति-विशिष्ट आंकड़ों और अनुमानों का समावेश, महामारी विज्ञान रिसर्च, मातृ एवं शिशु मृत्यु लेखा परीक्षण, आदिवासी स्वास्थ्य सूचकांक, इत्यादि। क्या भारत सरकार और राज्य सरकार ग्यारह करोड़ आदिवासियों के स्वास्थ्य के लिये सक्रिय बनेंगे?