मशहूर वैज्ञानिक, सामाजिक कार्यकर्ता और ग़ज़लगो गौहर रज़ा
‘कोरोना के बाद का भारत’ श्रृंखला के अंतर्गत 4 जुलाई को तर्कवादी समाज का निर्माण विषय पर वर्कर्स यूनिटी के फेसबुक लाइव पर बोलते हुए मशहूर वैज्ञानिक, सामाजिक कार्यकर्ता और ग़ज़लगो गौहर रज़ा ने अपनी बातें कहीं। उन्होंने कहा “तर्कशील समाज बनाने की सोच स्वतंत्रता संग्राम के समय तेजी से शुरु होती है। उस समय का एक राजनेता तमाम जद्दोजहद और स्वतंत्रता संग्राम की राजनीतिक रणनीतियों को तैयार करने के साथ जेल में बैठे-बैठे आज़ाद मुल्क के समाज को तर्कशील, साइंटिफिक टेंपर, वैज्ञानिक दृष्टिकोण संपन्न बनाने की सोच रहा था। ये सिद्धांत किसी साइंटिस्ट से नहीं आया जबकि उस समय वैज्ञानिकों की एक पूरी गैलेक्सी थी हमारे देश में।”
तर्कशीलता और वैज्ञानिक दृष्टिकोण क्या है
गौहर रज़ा कहते हैं जेल में लिखे अपनी किताब ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’में कुल 10 पेजों में जवाहर लाल नेहरु तर्कशीलता, वैज्ञानिक दृष्टिकोण और सैइंटिफिक टेंपर के बारे में लिखते हैं।
ये तर्कशीलता क्या है। जिसको हम साइंटिफिक टेंपर कहते हैं और जो हमारे संविधान का हिस्सा है वो क्या है? और वैज्ञानिक दृष्टिकोण क्या?
नेहरू कहते हैं साइंस एक तहकीकात है, बहादुर मगर आलोचनात्मक। ये तलाश है सच और नए ज्ञान की। ये रवैया है ऐसा जिसमें किसी चीज को तब तक न माना जाए जब तक उसे परख न लिया जाए। ये नए सबूत की रौशनी में पुरानी मान्यताओं को बदलने की हिम्मत है। ये पुरानी थियरीज के बजाय परखे हुए सच पर भरोसा करना। और ये अपने सोच को अनुशासित करने की सलाहियत है। ये सलाहियत नेहरू का कहना है उस वखत जिसको बहुत सारे वैज्ञानिकों ने बाद में मान लिया। ये आधार होगी हमारे आगे आने वाले वक्तों में समाज की।
तर्कशीलता और वैज्ञानिक दृष्टिकोण हमारे संविधान का हिस्सा है
गौहर रज़ा जोर देकर कहते हैं –“तर्कशीलता और वैज्ञानिक दृष्टिकोण हमारे संविधान का आधार है। संविधान को बनाने वाले चाहते थे कि इस आजाद मुल्क़ के आजाद मनुष्य का दृष्टिकोण है वैज्ञानिक दृष्टि और साइंटिफिक टेंपर सें संपन्न हो। एक ऐसे का समाज जो जख़्मी था, जो असंगठित था, जो लूटे निचोड़े जाने के बाद गरीब था। अंग्रेज जब हमारे देश में आए तो दुनिया की जीडीपी में भारत का योगदान एक चौथाई (25%) था। और जब अंग्रेज जा रहे थे तब हमारे मुल्क का योगदान दुनिया की जीडीपी में एक प्रतिशत से भी कम था।”
इसी देश में एक महान वैज्ञानिक था जिसने सबसे पहले कहा था कि पृथ्वी घूमती है। उसके इस कथन का मजाक उड़ाया गया, उसकी किताबें जला दी गई क्योंकि उसका कथन उनकी दुकानदारी पर चोट करता था।
संविधान जव संविधान सभा में पास हुआ तो उस पर सभी सासंदों ने हस्ताक्षर किया। उन लोगों ने भी जिनके घरों में औरत-मर्द की बराबरी नहीं थी। जिनके घरों में इंसान और इंसान के बीच फर्क़ किया जाता था। जो जाति पाति औऱ ऊंच नीच के आधार पर समाज और मनुष्य को देखते थे। जो नहीं चाहते थे कि गरीब, किसान, मजदूर और दूसरे वर्गों के बच्चों का तालीम मिले। जो नहीं चाहते थे कि सबको संपत्ति का हक़ मिले। जो नहीं चाहते थे कि सबके पास रोज़गार हो। जब आप पिछले 70 सालों का इतिहास पलटेंगे तो सोचेंगे कि फिर उन्होंने संविधान पर हस्ताक्षर क्यों किया।
दरअसल, इनको यकीन था कि संविधान की किताब दुनिया की सबसे अच्छी बनती हो बने पर समाज में वहीं पुराना परनाला ही बहेगा। कुछ बदलेगा नहीं। समाज वैसे ही चलेगा इसीलिए उन्होंने साइन किया। क्योंकि उनको यकीन था कि किताब भले ही अच्छी बन जाए पर वो एक किनारे में पड़ी रहेगी बाकी जो चलता आया हो वो चलता रहेगा।
लेकिन ऐसा हुआ नहीं। मजदूर, किसान, आदिवासी, दलित, स्त्री इस संविधान की बुनियाद पर ही उठ खड़े हुए और अपना हक़ माँगने लगे। समाज के अंदर जब तक तर्क वितर्क नहीं होगा वो आगे नहीं बढ़ेगा।जो लोग विज्ञान के खिलाफ थे, जो लोग समाज में बराबरी, सबको रोजगार, सबको शिक्षा, सबको संपत्ति के किलाफ़ थे वो छटपाटाने लगे और फिर धीरे धीरे अपना वर्चस्व स्थापित करना शुरु कर दिया।
अस्सी के दशक में बाबा आए और अंधविश्वास लाए
संविधान का आधार तर्कशीलता और वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाला होने के बावजूद समाज में अंधकार और अवैज्ञानिकता कैसे फैली इस पर बात करते हुए गौहर रज़ा के 80 के दशक को एक विभाजन रेखा बनाते हुए कहते हैं- “अस्सी के दशक में बहुत से बाबा आए। लगा जैसे बाबा की खेती करी हो। ये बाबा आए और अंधविश्वासों के सहारे समाज को पीछे खींचने लगे। इन बाबाओं ने लोगो को बेवकूफ बनाकर उनसे पैसे बनाए। और अपनी अंधविश्वास की फैक्ट्री लगाई, चैनल बनाए, मठ बनाए और सत्ता अपनी स्थापित की। अस्सी के दशक के नेता इन बाबाओं के शरण में गए। बाबा राजनेता और पूंजिपतियों ने मिलकर गठबंधन तैयार किया। ”
आजादी के समय के नेता यानि गाँधी-नेहरू-पटेल-अम्बेडकर बेहतरीन दिमागों की परवरिश के बीच से रहकर आए थे इसलिए वो समाज को आगे ले जाने के लिए तर्कशील, वैज्ञानिक दृष्टकोण और साइंटिफिक टेंपर वाला बनाना चाहते थे। पर 80 के दशक और उसके बाद के नेता बाबाओं के बीच में परवरिश पाए इसलिए वो समाज को पीछे ले जाना चाहते हैं। वो मजदूरों किसानों गरीबों को अंधविश्वास और रुढ़ियों में जकड़ना चाहते हैं ताकि वो सवाल न पूछ सके अपना हक़ न माँग सके।
प्राइवेट मीडिया अंधविश्वास का वाहक बना
मीडिया और अंधविश्वास के संबंध पर बोलते हुए गौहर रज़ा कहते हैं- “आज़ाद प्राइवेट मीडिया आया तो हमने सोचा कि मीडिया जनता तक विज्ञान और तकनीकि को पहुँचाएगा। लेकिन हम गलत साबित हुए। साइंस और टेक्नोलॉजी के बजाय मीडिया बाबाओं के प्रोडक्ट को ही लोगो तक पहुँचाने लगा। और इस तरह मीडिया के स्तर पर भी समाज को पीछे ढकेलने की कोशिश की गई। पर ऐसा हुआ नहीं।
मजदूरों किसानों ने अंधविश्वास को नकार दिया
मजदूरों और किसानों ने अंधविश्वास को नकार दिया। पीपल्स साइंस मूवमेंट का भी असर हुआ है। पिछले ही दिनों हमने देखा जब सूर्य ग्रहण की घटना हुई थी। लोग अंधविश्वास को नकारते हुए घरों से बाहर निकले और लोगो ने सूर्य ग्रहण को देखा भी। ये हमारा समाज है जो तर्क वितर्क और विज्ञान को स्वीकार कर रहा है। पर ये टीवी पर नहीं दिखेगा। टीवी पर दिखेगा मिथकों में साइंस को जबर्दस्ती थोपने की चेष्टा। प्रधानमंत्री कहता है गणेश की प्लास्टिक सर्जरी हुई थी। वो नाले गी गैस से चाय बना देते हैं, वो तक्षशिला को बिहार में स्थापित कर देते हैं, वो बादलों के पीछे से जाकर हमला कर आते हैं। उन्हें राडार टेक्नोलॉजी के बारे में कुछ नहीं पता है। कनाडा में जाकर ए वर्ग प्लस बी वर्ग का सूत्र गलत बताते हैं। ये उनकी नहीं हमारे देश की इज़्ज़त पर हमला है।”
जब प्रधानमंत्री तर्कशील होते हैं तो अनुसंधान संस्थान बनाते हैं जैसे नेहरु ने बनाए। और जब प्रधानमंत्री अंधविश्वासी होता है तो वो नाले पर गैस बनाता है। अनुसंधान संस्थाओं को तोड़ता है उनका फंड खत्म कर देता है। और सरस्वती की खोज और संजीवनी खोज के प्रोजेक्ट में पैसे फूँकता है।
देश का एमपी कहता है हमें डार्विनवाद में विश्वास नहीं है इसलिए इसे कोर्स से हटा दो। वो टीवी पर बकवास कर करके हमारे बच्चों को अंधविश्वास में झोंकते हैं और उनके बच्चे ऑक्सफोर्ड, कैंब्रिज में पढ़ने के लिए भेजते हैं।
पाकिस्तान में वैज्ञानिक दृष्टिकोण के पनपने ही नहीं दिया गया। साइंटिफिक टेंपर को कभी मजबूत होने का अवसर ही नहीं दिया गया। समाज के साइंटिफिक टेंपर पर हमला हुआ तो वहां के लोकतंत्र पर हमला हुआ। यही कारण है कि पाकिस्तान हमेशा अंधविश्वास ख़ून खराबे और पिछड़ेपन में फँसा रहा।
कोरोना काल में 90-95 प्रतिशत जनता ने विज्ञान का पक्ष लिया
गौहर रज़ा कहते हैं मजदूरों किसानों गरीबों पर हमला करने के लिए पहले उनके साइंटिफिक टेंपर और वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर हमला किया जाता है। क्योंकि वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर हमला किए बिना मजूदरों और किसानों पर हमला किया ही नहीं जा सकता।
लेकिन कोरोना काल में आप देखेंगे कि इस देश के किसानों और मजदूरों ने अंधविश्वास को नकार दिया है। मुल्लाओं ने कहा कि कुरान की आयतें पढ़िए कोरोना नहीं होगा। लेकिन लोगों ने उनकी नहीं सुनी और मस्जिदों में ताला लगा दिया। गौमूत्र पीने की अपील की गई पर बताइए कितने प्रतिशत लोगो ने गौमूत्र पिया या गोबर का लेप किया। कोरोना देवी की पूजा हर जगह नहीं हुई। कोरोना के समय में 90-95 प्रतिशत जनता ने विज्ञान का पक्ष लिया। बहुत छोटा हिस्सा सिर्फ़ 7 प्रतिशत लोगो ने अंधविश्वास और नींबू मिर्च का सहारा लिया। गोकोरोना से निपटने के लिए गौमूत्र पर महज 2% लोगो ने, हवन में 5 %, ताली-थाली में 2% लोगो ने यकीन किया।
कोरोना काल के बाद प्रबुद्ध जनों का दायित्व
कोरोना काल के बाद आगे आने वाले समाज में जनता को तर्क वितर्क विज्ञान अपनाने पर जोर देना होगा। पर ये अपने आप नहीं होगा इसके लिए हमें प्रयास करना होगा। सवाल पूछना होगा। हमें बताना होगा कि मजदूर अपने गांव से निकलकर शहर आए। शहरों में उन्होंने फैक्ट्रियाँ बनाई। फैंक्ट्रियों ने पूँजिपतियों के लिए पैसे बनाए। लेकिन जब शहरों में कोरोना का कहर आया तो केवल 4 घंटे में पूंजीपतियों ने कह दिया कि अब तुम्हारा हमसे कोई लेना देना नहीं है। अब तक तुमने हमारे लिए दौलत पैदा की है लेकिन अब कोरोना की वजह से दौलत पैदा होना बंद हो गई है अब तुम्हारा काम नहीं हैं। तुम वापिस उसी जगह उसी भूख में लौट जाओ जहां से तुम निकलकर आए हो। वापिस अपने उसी गाँव चले जाओं जहाँ भूख का राज है और जहां पिछड़ापन छाया रहा है। अब हमें तुम्हारी ज़रूरत नही है।
और इस सरकार ने भी हमारे साथ वही किया जो इनके आकाओं ने बताया था। अपने रहमों करम पर छोड़कर सरकार भी पूँजीपतियों के साथ हो ली और गरीब जनता को छोड़ दिया भूख से मरने के लिए। जबकि एक तर्कशील सवाल पूछेगा सरकार से कार्पोरेट से कि आपदा के समय तुमने उस पूँजी को क्यों नहीं ले ली जो मजदूरों ने फैक्ट्री में बनाए थे। अपने खून और पसीने से। किसानों के ख़ूनन और पसीने से। वो देश की संपत्ति है। फिर उसे इस आपदा के समय में पूरी तरह से पूँजीपतियों से क्यों नहीं ले ली गई। तर्कशील समाज सवाल पूछेगा कि आपदा में सबसे ज़्यादा भागीदारी किसान मजदूर की ही क्यों होगी, कार्पोरेट की क्यों नहीं होगी? तर्कशील समाज सवाल पूछेगा कि वो पूँजी कार्पोरेट से क्यों नहीं ली गई जबकि वो देश की संपत्ति है।
लेकिन ये अपने आप नहीं होगा। इसके लिए हमें मेहनत करना होगा। कोरोना के बाद हमें ये मेहनत, संघर्ष बढ़ाना होगा। यही मौका है। ये मौका खो देते हैं तो फिर ये समाज एक यूटर्न भी ले सकता है। दूसरे देशों में ऐसा हुआ है। आपको और हमें ये फैसला करना होगा कि हम एक तर्कशील समाज के निर्माण के लिए कोरोना के बाद के वक़्त में क्या कुछ करेंगे।