डेढ़-दो सौ साल पहले से कहा जाने लगा है कि नेपाल से उतरने वाली नदियां बिहार में कहर ढाती हैं (हालांकि 1870 के पहले बिहार में बाढ़ को कोई नहीं जानता था) और उनसे निपटने के लिए बड़े बांध, बैराज या तटबंध अपरिहार्य हैं, तो भी क्या इन्हें ठीक-ठाक बनाया जाना जरूरी नहीं है? बाढ़ से निपटने के नाम पर क्या हो रहा है, बिहार में?
गंगा मुक्ति आंदोलन’ के प्रमुख अनिल प्रकाश ने बिहार की नदियों पर बैराजों के निर्माण पर आपत्ति जताते हुए कहा था कि ‘बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को नदियों पर बैराज बनाने की हड़बडी से पहले गंगा पर बने फरक्का-बैराज से उपजी विनाशकारी बाढ़, कटाव, जल-जमाव, भूमि के ऊसर होने, मछलियों के अकाल आदि भीषण स्थितियों का वैज्ञानिक आंकलन अवश्य करा लेना चाहिए।’ बैराज एक प्रकार का लो-हैड, डायवर्सन बांध है जिसमें कई बड़े गेट होते हैं जिन्हें पानी की मात्रा और दिशा को नियंत्रित करने के लिए खोला या बंद किया जा सकता है।
सन् 1975 में बनकर तैयार हुए फरक्का-बैराज का मकसद था कि इसके जरिए 40 हजार क्यूसेक पानी का रुख बदला जाये, ताकि कोलकोता बंदरगाह बाढ़ से बच सके, लेकिन ये मंसूबे बांधते समय नदी में आने वाली तलछट का अनुमान नहीं लगाया गया। परिणामस्वरूप, जरूरत के मुताबिक पानी का रुख नहीं बदला जा सका। आज बैराज का जलाशय तलछट से ऊपर तक भरा है। पीछे से आने वाली विशाल जलराशि पलटकर साल में कई-कई बार विनाश लाती है। ऊंची भूमि भी डूब का शिकार होने को विवश है। हजारों वर्ग किलोमीटर की फसलें इससे नष्ट हो जाती हैं। फरक्का-बैराज बनने के बाद धारा के विपरीत ऊपर की ओर आने वाली ढाई हजार रुपये प्रति किलो मूल्य वाली कीमती ‘हिल्सा मछली’ की बङी मात्रा हम हर साल खो रहे हैं।
ऐसे में बिहार को बैराज की क्या जरूरत है? बिहार के ‘जल संसाधन विभाग’ के मंत्री विजय चौधरी के अनुसार नेपाल में बांध बनाने का प्रस्ताव कई सालों से है, लेकिन फिलहाल इसकी उम्मीद नहीं दिख रही। नतीजे में बिहार सरकार को नेपाल से आने वाली चार नदियों पर चार बैराज बनाने का फैसला लेना पडा। ये बैराज कोसी नदी पर डगमारा में, गंडक नदी पर अरेराज में, महानंदा नदी पर मसान में और बागमती नदी पर डिंग में बनाए जाएंगे। इनकी ‘डिटेल प्रोजेक्ट रिपोर्ट’ (डीपीआर) तैयार की जा रहा है। केंद्र सरकार ने हाल ही में, प्रत्येक वर्ष आने वाली बाढ़ से संबंधित आपदाओं से निपटने के लिए बिहार को 11,500 करोड़ रुपये की वित्तीय सहायता दी है। इस राशि से नेपाल से आने वाली बाढ़ के नुकसान को रोकने के लिए बैराज बनाए जाएंगे। इसके लिए विश्वबैंक से 4400 करोड़ रुपये की सहायता भी ली जा रही है।
दूसरी तरफ, बैराज बनाने के बिहार सरकार के इस फैसले के खिलाफ व्यापक आंदोलन की तैयारी आरंभ हो गयी है। आंदोलन के प्रथम चरण में बिहार, बंगाल और उत्तरप्रदेश में हस्ताक्षर अभियान चलाया जाएगा। इसके उपरांत साथी संगठनों की बैठक कर आंदोलन की अगली रणनीति तय की जाएगी। इसके पहले नेपाल सरकार से भारत सरकार की ऊंचा बांध बनाने को लेकर बातचीत हुई थी। वर्ष 2004 में विराटनगर में संयुक्त कार्यालय भी खोले गए थे, लेकिन जहां भी सर्वे करने जाते, लोग बांध के विरोध में हंगामा करने लगते। यही कारण है कि नेपाल में बांध बनाना मुश्किल हो गया।
जानकार मानते हैं कि बिहार में बाढ़ को नियंत्रित करने वाली तटबंध आधारित नीति ने बाढ़ के संकट को बढ़ाने का काम किया है। उत्तर बिहार की नदियों के जानकार दिनेश कुमार मिश्र के अनुसार आजादी के वक्त जब राज्य में तटबंधों की कुल लंबाई 160 किलोमीटर थी तब राज्य का सिर्फ 25 लाख हेक्टेयर क्षेत्र बाढ़ पीड़ित था। अब, जब तटबंधों की लंबाई 3760 किलोमीटर हो गयी है तो राज्य की लगभग तीन चौथाई जमीन, यानी 72.95 लाख हेक्टेयर भूमि बाढ़ प्रभावित है। यानी जैसे-जैसे तटबंध बढ़े बिहार में बाढ़ प्रभावित क्षेत्रफल भी बढ़ता चला गया।
सरकार का भी रवैया विचित्र है। एक ओर तो बिहार की बाढ़ के लिए फरक्का-बैराज को जिम्मेदार ठहराते हैं, तो दूसरी तरफ नए की वकालत भी करते हैं। अनिल प्रकाश के अनुसार फरक्का-बैराज के अनुभवों से ही समझ लेना चाहिए था कि नदियों को रोककर बाढ़ का मुकाबला नहीं किया जा सकता। ‘वैसे तो नदियों पर बांध मुख्यतः बिजली बनाने के लिए बनाये जाते हैं, बाढ़ रोकने के लिए नहीं। इसके बावजूद बांध बनाना एक पुराना तरीका साबित हो रहा है। आजकल कई वजहों से दुनिया भर में बांधों को तोड़ा जा रहा है। अमेरिका की मिसिसिपी नदी पर बने बांधों को वहां की सरकार ही तोड़ रही है। चीन में ह्वांगहो नदी पर बने तटबंध को बम से उड़ा दिया गया।’
वर्ष 1870-75 से पहले बिहार में बाढ़ का जिक्र नहीं मिलता। जबसे यहां रेलवे की शुरुआत हुई और नदियों के स्वतंत्र बहाव में बाधा उत्पन्न होने लगी, बाढ़ की समस्या सामने आने लगी। इसके बावजूद उत्तर बिहार में नदियों का अपना बेहतरीन तंत्र विकसित था। बड़ी नदियां, छोटी नदियों और ‘चौरों’ से जुड़ी थीं और पूरे इलाके में ‘पोखरों’ का जाल बिछा था। बारिश के दिनों में बड़ी नदियों में जब अधिक पानी होता था तो वे अपना अतिरिक्त पानी छोटी नदियों, ‘चौरों’ और तालाबों में बांट देती थीं। इससे बाढ़ की समस्या नहीं होती थी। फिर जब गर्मियों में बड़ी नदियों में पानी घटने लगता, तो छोटी नदियां और ‘चौरे’ इन्हें अपना पानी वापस कर देतीं। इससे ये नदियां सदानीरा बनी रहती थीं।
बिहार की 76% आबादी और राज्य के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 73% हिस्सा बाढ़ से प्रभावित है। वहीं आंकड़े यह भी बताते हैं कि देश के कुल बाढ़ पीड़ित क्षेत्र का 16.5% बिहार में पड़ता है और कुल बाढ़ पीड़ित आबादी का 22.1% इसी राज्य के लोग हैं। ‘एएन सिन्हा इंस्टीच्यूट’ के विशेषज्ञ डॉ. विद्यार्थी का कहना है कि बिहार में तटबंधों का निर्माण पिछले 50 सालों में लगातार बढ़ता जा रहा है और बाढ़ का इलाका भी उसी तरह से बढ़ता जा रहा है। पहले 25 लाख हेक्टेयर बाढ़ प्रभावित इलाका था, लेकिन आज 70 लाख हेक्टेयर से अधिक इलाका बाढ़ प्रभावित है।
साठ और 70 के दशक में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सबसे अधिक बांधों का निर्माण हुआ, लेकिन हाल के वर्षों में बांधों के निर्माण की वैश्विक स्तर पर आलोचना हो रही है। बांधों से होने वाले फायदों के लिए भारी पर्यावरणीय कीमत चुकानी पड़ रही है। एक रिपोर्ट के अनुसार यूरोप में नदियों की अविरल धारा के लिए मुहीम चल रही है। साल 2016 से ही बांध तोड़े जा रहे हैं। अकेले 2022 में यूरोपीय नदियों पर बने 325 बांध तोड़ दिए गए, जो 2021 से 36% ज्यादा थे। खास बात यह है कि जिन नदियों पर बांध तोड़े गए वहां का जलीय जीवन बदलने लगा। मछलियों का लौटना इस बात की निशानी है कि नदी का इकोसिस्टम खुद को ठीक कर रहा है। वहीं दूसरी ओर, भारत में बड़े बांधों, बैराजों द्वारा उपजाऊ धरती, जंगल सहित जैव-विविधता से भरी प्रकृति और नदी से जुड़ी संस्कृति स्वाहा कर विकास का यज्ञ चलाया जा रहा है। (सप्रेस)
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