पिछले तीन दशकों की बरसात में शायद ही कोई साल रहा हो जब ‘सरदार सरोवर’ प्रभावितों ने अपने जीने-मरने के कानूनी हकों के लिए संघर्ष न किया हो। पिछले साल आंदोलन की मुखिया मेधा पाटकर के आमरण अनशन के बाद कुछ आस बंधी थी, लेकिन इस साल वे फिर जहां-के-तहां और मैदान में हैं। क्या हैं, उनकी समस्याएं और उनके हल में खड़ी रुकावटें?
सुप्रीमकोर्ट द्वारा ‘सरदार सरोवर बाँध’ के गेट बंद करने की मंजूरी दिए तीन साल और प्रभावित गाँवों को बिना पुनर्वास डुबो देने को पूरा एक साल गुजर जाने के बाद भी नर्मदा घाटी के आदिवासी, किसान, केवट-कहार, कुम्हार, पशुपालक, भूमिहीन-मजदूरों का संघर्ष खत्म नहीं हुआ है। देखने वालों को लग सकता है कि यदि सुप्रीमकोर्ट ने प्रभावितों की सुनवाई के बाद आदेश दे दिया है तो फिर अब वे क्यों प्रदर्शन कर रहे हैं? आठ फरवरी 2017 को भारत के मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली तीन जजों की खण्डपीठ ने परियोजना प्रभावितों की याचिका पर बाँध के गेट बंद कर जलाशय भरने का आदेश जरूर दिया था, लेकिन उसके साथ शर्त थी कि डूब से पहले सबका पुनर्वास कर दिया जाएगा। सरकार ने बाँध के गेट बंद कर गाँव-खेत-खलिहान सब डुबो दिए, लेकिन प्रभावितों का पुनर्वास नहीं किया। प्रभावितों के प्रदर्शन का आज यही कारण है।
सुप्रीमकोर्ट का यह आदेश असाधारण था जिसमें संविधान के ‘अनुच्छेद-142’ के तहत प्राप्त शक्तियों का प्रयोग करते हुए उसने दो पक्षों ̶ बांध-प्रभावित और सरकार ̶ के बीच समझौता करवाया था। एक पक्ष ने इसका सम्मान करते हुए अपना सब कुछ डूबने दिया, लेकिन दूसरे पक्ष यानी सरकार ने देश की सबसे बड़ी अदालत को दिया अपना वचन पूरा नहीं किया। इसके बावजूद वचनभंग करने वालों को कोई डर या मलाल नहीं है। सुप्रीमकोर्ट में मध्यप्रदेश सरकार द्वारा प्रस्तुत बकाया पुनर्वास के आँकड़े अस्थाई और अपूर्ण थे, इसलिए आदेश में शेष सभी प्रभावितों के पुनर्वास का जिक्र किया गया था, लेकिन शेष प्रभावितों की पात्रता निर्धारण की तो बात ही छोड़िए, जितने परिवार न्यायालय के समक्ष पात्र घोषित कर दिए गए थे, उन सबका पुनर्वास भी नहीं किया गया है।
यह मामला प्रभावितों के पुनर्वास के प्रति सरकार की अनिच्छा का बेशर्म उदाहरण है। ‘सरदार सरोवर’ के गेट बंद होने का अर्थ यह नहीं है कि पुनर्वास 2017 के बाद शुरु हुआ। परियोजना के लिए मध्यप्रदेश में भू-अर्जन की प्रक्रिया 1991 से प्रारंभ हो चुकी थी जो अगले एक दशक से अधिक समय तक चली। प्रभावितों के पुनर्वास की स्पष्ट पुनर्वास नीति इससे भी पहले 1989 से तैयार थी। सरकार चाहती तो संपत्ति अधिग्रहण के साथ ही प्रभावितों का पुनर्वास प्रारंभ कर सकती थी, लेकिन सच्चाई है कि सरकार पुनर्वास करना ही नहीं चाहती थी।
पुनर्वास नीति में एक चौथाई से अधिक जमीन खोने वाले किसान परिवारों को न्यूनतम पांच एकड़ जमीन देने का प्रावधान है, लेकिन इस श्रेणी के पांच हजार प्रभावित किसान परिवारों में से सरकार ने एक भी प्रभावित को जमीन नहीं दी। इस संख्या में महिला खातेदार शामिल नहीं हैं। कानून और पुनर्वास नीति में महिला-पुरुष का कोई भेद नहीं है, लेकिन सरकार महिला खातेदारों को पुनर्वास का लाभ देने से इंकार कर कर रही है। इनमें से 53 परिवारों को भी तब जमीन दी गई जब सुप्रीमकोर्ट ने उनकी याचिकाओं पर अलग से आदेश जारी किया। इनमें से भी 22 किसानों को अब तक जमीन का कब्जा नहीं मिला है। विडंबना यह है कि इसी अवधि में उद्योगों को हजारों हेक्टर जमीन आवंटित कर दी गई।
पुनर्वास से बचने के लिए सरकार ने अत्यधिक अमानवीय रणनीति अपनाई। अलिराजपुर जिले के 33 आदिवासी गाँवों के लिए कोई पुनर्वास स्थल ही नहीं बनाया, ताकि उन्हें गुजरात जाने के लिए बाध्य किया जा सके। जमीन माँगने पर प्रभावितों से ‘शिकायत निवारण प्राधिकरण’ (जीआरए) से आदेश लाने को कहा जाता और यदि वहां भी पात्रता सिद्ध हो जाती तो सरकार आदेश का पालन करने से ही इंकार कर देती।
सुप्रीमकोर्ट और हाईकोर्टों का उपयोग प्रभावितों को राहत देने के लिए होना चाहिए, लेकिन इन संस्थानों का उपयोग प्रभावितों को उनके अधिकारों से वंचित करने के लिए किया गया। ढाई हजार से अधिक महिला खातेदार हैं जिन्हें पुनर्वास नीति के तहत जमीन की पात्रता है, लेकिन प्रदेश सरकार उन्हें यह लाभ देने से इंकार कर रही है। इन खातेदारों को उनके अधिकार से वंचित करने के लिए विधानसभा चुनाव के ऐन पहले, 2018 में सरकार ने सुप्रीमकोर्ट में एक पुनर्विचार याचिका दायर कर दी, ताकि उन्हें अधिकारों से वंचित रखा जा सके। फरवरी 2017 के पहले अक्टूबर 2000 और मार्च 2005 में सुप्रीमकोर्ट अपने विस्तृत आदेश में पुनर्वास नीति पर विचार कर चुका था। सरकार को इस पर और स्पष्टीकरण की जरुरत थी तो वर्ष 2000 के आदेश के तुरंत बाद ही यह पुनर्विचार याचिका दायर की जा सकती थी।
‘सरदार सरोवर’ प्रभावितों की पुनर्वास नीति में 18 वर्ष से अधिक आयु के पुत्र या पुत्री को पृथक परिवार मानते हुए पूरे लाभ प्रदान करने का प्रावधान है, लेकिन 2012 से इस श्रेणी के प्रभावितों को लाभ देने से यह कहते हुए रोक लगा दी थी कि किसी अन्य परियोजना के मामले में सुप्रीमकोर्ट ने ऐसा आदेश दिया था। इस मामले पर सुप्रीमकोर्ट के स्पष्टीकरण से पांच साल बाद लाभ देना शुरु किया गया। इसके अलावा दर्जनों ऐसे अनपढ़ आदिवासियों और किसानों की पुनर्वास पात्रता के खिलाफ हाईकोर्ट में अपील दायर कर दी गई है जो अपना पक्ष तहसीलदार के समक्ष रखने में भी सक्षम नहीं हैं। कुछ प्रभावित ‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ के सहयोग से हाईकोर्ट में जीत गए तो सरकार उनके खिलाफ सुप्रीमकोर्ट चली गई। सरकार जितना पैसा एक प्रभावित के खिलाफ हाईकोर्ट, सुप्रीमकोर्ट में कानूनी लडाई पर खर्च करती है, उससे दर्जनों प्रभावितों का पुनर्वास आसानी से हो सकता है।
पुनर्वास करने के बजाय सरकार ने अपने सारे संसाधन प्रभावितों की संख्या कम करने की कलाबाजी में लगाए, ताकि सुप्रीमकोर्ट के समक्ष दिखाया जा सके कि पुनर्वास का ज्यादातर काम किया जा चुका है। इसके तहत पहले बिना किसी सर्वेक्षण के बैकवाटर स्तर कम करके 16,000 परिवारों को डूब से बाहर कर दिया, जिनमें से कई गाँव बिना बैकवाटर के ही पिछले साल डूब गए थे। इसके अलावा मध्यप्रदेश सरकार ने एक जून 2018 को एक सर्कुलर जारी कर ‘जीआरए’ को उन प्रभावितों की शिकायतें खारिज करने का आदेश दिया जो प्रभावित घोषित नहीं हैं। जबकि सुप्रीमकोर्ट ने अपने अक्टूबर 2000 के आदेश से इस संस्था का गठन ही उन प्रभावितों को न्याय दिलाने के लिए किया था जिन्हें सरकार ने अपात्र घोषित कर दिया था। आश्चर्यजनक रुप से इस अर्द्ध-न्यायिक संस्था ने, अफसरशाही की तरह, सरकारी आदेश का सम्मान करते हुए 7,000 प्रभावितों के प्रकरण बिना सुनवाई के ही खारिज कर दिए। सरकार ये सारी कलाबाजियाँ उस समय कर रही थी जब वह 2004 से लगातार सबके पुनर्वास का दावा करते हुए पुनर्वास का “ज़ीरो बेलेंस” दिखा रही थी।
प्रभावितों को उनके अधिकारों से वंचित करना किसी खास दल की सरकार का एकाधिकार नहीं रहा है। पिछले 18 वर्षों के ‘भाजपा’ के शासन के बाद 15 महीने के लिए आई कांग्रेस की सरकार का भी पुनर्वास के बारे में रवैया ठीक वैसा ही रहा है। कांग्रेस की सरकार सिर्फ इस मायने में थोड़ी अलग रही कि उसने प्रभावितों से संवाद किया। पिछले साल जब डूब आई तो पुनर्वास की सच्चाई सामने आई। जिन बस्तियों को डूब से बाहर बताया गया था, उनमें से कई डूब गईं। डूब में शामिल गाँवों में भी हजारों परिवारों को लाभ मिलने बाकी थे। ऐसे में प्रभावितों के पुनर्वास को लेकर जब आंदोलन की नेत्री मेधा पाटकर और कुछ प्रभावितों ने छोटा बड़दा (बड़वानी) में अनशन किया तब जाकर सरकार ने पुनर्वास का आश्वासन दिया तथा पूर्व मुख्य सचिव शरदचंद्र बेहार की अध्यक्षता में एक समिति भी बना दी, लेकिन प्रभावितों के पुनर्वास का कोई गंभीर प्रयास नहीं किया गया। पूरा क्षेत्र डुबो दिए जाने के बावजूद कुछेक प्रभावितों को 5 लाख 80 हजार के पैकेज के अलावा पुनर्वास का कोई काम नहीं किया गया।
छोटा बड़दा अनशन के बाद उन परिवारों के पंचनामे बनाए गए थे जिनका डूब के समय पुनर्वास बाकी था। ऐसे पंचनामों से पता चला कि करीब 9 हजार परिवारों को घर बनाने का 5 लाख 80 हजार का अनुदान तथा 4,200 परिवारों को भूखण्ड आवंटन बाकी था। 2500 महिला खातेदारों के अलावा 254 प्रभावितों को 60 लाख के पैकेज का भुगतान शेष था। भूखण्ड अथवा घर बनाने का अनुदान नहीं मिलने के कारण जिनके पास डूब के बाहर घर नहीं थे उन्हें अस्थाई टीनशेडों में रुकवाया गया था। इन टीनशेडों में रुकवाए गए पूरे 5,000 परिवार अभी भी टीनशेड में ही हैं। इसके अलावा 10 गाँवों के जिन 684 परिवारों को टीनशेड भी नहीं मिल पाए थे वे भी अभी जहाँ-के-तहाँ यानी डूब क्षेत्र में ही रह रहे हैं।
पिछले कुछ दिनों से सुप्रीमकोर्ट बनाम प्रशांत भूषण प्रकरण सुर्खियों में है। इस मामले में न्यायालय की अवमानना के दोषी ठहराए गए प्रशांत भूषण का कहना है कि देश की जनता को न्याय देने के लिए सुप्रीमकेार्ट का मजबूत होना जरुरी है। क्या सुप्रीमकोर्ट मजबूत से अपने आदेशों का पालन सुनिश्चित करवा सकेगा। यदि ऐसा नहीं हो पाया, तो निश्चित ही इससे देशवासियों के मन में सुप्रीमकोर्ट की साख प्रभावित होगी। (सप्रेस)
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