कुछ साल पहले कृतिपय बांधों को निरस्त कर देने की मध्यप्रदेश सरकार की घोषणा ने नर्मदा घाटी के रहवासियों को राहत दी थी, लेकिन अब दी गई प्रशासनिक स्वीकृति ने उन्हें फिर चिंता में डाल दिया है। बड़े बांधों को बनाने की सरकारी जिद सत्तर के दशक से घाटी में हाहाकार मचा रही है, जबकि उनसे गिनाए गए लाभ आज तक कारगर नहीं हो सके हैं।
ज्यादा नहीं, कुल आठ साल पहले जिन सात बड़े बांधों को तत्कालीन मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने ठेठ राज्य की विधानसभा में खारिज कर दिया था, उन्हें अब प्रशासकीय स्वीकृति मिल गई है। गौरतलब है कि नर्मदा घाटी के मध्यप्रदेश के हिस्से में 29 बड़े बांध प्रस्तावित हैं जिनमें से 10 का निर्माण हो चुका है और 6 का निर्माण कार्य प्रगति पर है। शेष 13 में से 10 बडे बांधों को हाल में प्रशासकीय स्वीकृति मिली है। वर्ष 2016 में मुख्यमंत्री ने विधानसभा में घोषणा की थी कि परियोजनाओं की बढ़ी कीमत, विशाल डूब क्षेत्र और वनाच्छादित क्षेत्र के नुकसान के चलते बड़े बांधों की सात परियोजनाओं को रद्द किया जा रहा है।
इनमें से एक बसनिया बांध में 2443 हैक्टेयर काश्तकारों की निजी भूमि,2107 हैक्टेयर वनभूमि और 1793 हैक्टेयर शासकीय भूमि, अर्थात कुल 6343 हैक्टेयर जमीन डूब में आएगी। इससे 42 गांवों की 8780 हैक्टेयर जमीन में सिंचाई और 100 मेगावाट जल-विद्युत उत्पादन का लक्ष्य रखा गया है। इसको बनाने की अनुमानित लागत 2884.88 करोङ रूपये होगी। इस बांध से डिंडोरी के 13 और मंडला जिले के 18 गांव, अर्थात कुल 31 गांवों के 2735 आदिवासी परिवार विस्थापित होंगे।
‘पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय’ द्वारा गठित ‘नदी घाटी विशेषज्ञ मूल्यांकन समिति’ ने पिछले वर्ष प्रस्तावित ‘बसनिया बहुउद्देशीय परियोजना’ के लिए ‘पर्यावरणीय प्रभाव आंकलन रिपोर्ट’ तैयार करने हेतु ‘संदर्भ बिन्दु’ (टीओआर, टर्म्स ऑफ रिफरेंसेस)तय करने का निर्णय लिया था। उक्त निर्णय के बाद ‘पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय’ ने ‘नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण’ को विस्तृत दिशा निर्देश जारी किए हैं जिसमें उल्लेख किया गया है कि ‘पर्यावरणीय प्रभाव आकलन – 2006’ के प्रावधानों और संशोधनों के साथ अतिरिक्त ‘विशिष्ट संदर्भ बिन्दुओं’ का अध्ययन किया जाए।
इनमें परियोजना निर्माण के कारण नर्मदा नदी के जलग्रहण क्षेत्र में उसकी वहन क्षमता और निरंतरता के कुल प्रभाव का अध्ययन, वनभूमि परिवर्तन से पारिस्थितिकी तंत्र पर पङने वाले असर के लाभ-हानि का विश्लेषण, ‘पर्यावरण प्रभाव निर्धारण रिपोर्ट’ तैयार करने के लिए बेस लाइन डाटा को ‘टीओआर’ के मानक अनुसार संकलित करना शामिल है। साथ ही मिट्टी की विशेषताओं का अध्ययन कर जलाशय और जंगल के आसपास के कम-से-कम 10 गांवों के अलग-अलग स्थानों का डाटा संकलित करना होगा।
‘विशिष्ट संदर्भ बिन्दुओं’ में तीनों ऋतुओं में परियोजना क्षेत्र की 10 जगहों के भूजल स्तर का नाप करना, परियोजना के कारण जलीय और स्थलीय पारिस्थितिकी तंत्र पर पङने वाले असर का अध्ययन करना, विद्युत उत्पादन के लिए इस्तेमाल होने वाले पानी के कारण जलीय पारिस्थितिकी तंत्र एवं उत्पादन की मात्रा पर प्रभाव और उसके अनुसार पर्यावरणीय प्रबंधन कार्य योजना तैयार करना, डूब और बांध के निचले क्षेत्र में रेत खनन स्थल को चिन्हित करना, निर्माण में लगने वाली सामग्री का स्रोत और उसकी परियोजना स्थल से दूरी के साथ उसके परिवहन की विस्तृत योजना तैयार करना शामिल है।
परियोजना की 10 किलोमीटर की परिधि में वाटर शेड की संभावनाओं का अध्ययन करना इसी का हिस्सा हैं। वनस्पति एवं जीवजंतु का विस्तृत अध्ययन, सबंधित क्षेत्र में पाये जाने वाले स्थानीय पौधों और जानवरों की प्रजाति की जानकारी, वन्यजीव संरक्षण की विस्तृत रिपोर्ट तैयार करना, डूब में आने वाली वनस्पति एवं जीवजंतु और पेङों की संख्या, घनत्व एवं उसकी नामावली के साथ विस्तृत रिपोर्ट तैयार करना, परियोजना के कारण पक्षियों पर पङने वाले प्रभाव और पानी के स्रोत पर पङने वाले प्रभाव का अध्ययन करना ‘विशिष्ट संदर्भ बिन्दुओं’ में शामिल हैं।
इस लंबी-चौडी ‘पर्यावरणीय प्रभाव आंकलन रिपोर्ट’ के बावजूद क्या बडे बांधों से होने वाले पर्यावरणीय विनाश पर कोई अंकुश लगाया जा सकेगा? नर्मदा घाटी में पहले बने इंदिरा सागर, सरदार सरोवर, ओंकारेश्वर और बरगी बांध में लगभग 60 हजार हेक्टेयर वनभूमि और जंगल डूब चुका है। कई वर्षो से नर्मदा बेसिन में जंगलों की अंधाधुंध कटाई हुई है। ‘वन स्थिति रिपोर्ट – 1991’ के मुताबिक मध्यप्रदेश की नर्मदा घाटी के जिलों में वन आवरण कुल 52283 वर्ग किलोमीटर था, जबकि 2019 की ‘वन स्थिति रिपोर्ट’ के अनुसार 48188 वर्ग किलोमीटर रह गया है। इसका मतलब है कि बीते 28 सालों में 4095 वर्ग किलोमीटर अर्थात 4 लाख 9 हजार 500 हेक्टेयर वन आवरण कम हुआ है। वन विनाश के इस कारनामे का क्या असर हुआ?
‘जल संसाधन मंत्रालय’ की ‘वाटर ईयर बुक 2014-15’ के मुताबिक नर्मदा घाटी में 1901-1950 के दौरान औसत वार्षिक वर्षा की तुलना 2006 – 2010 के बीच करने पर पता चलता है कि नर्मदा के उद्गम वाले जिले अनूपपुर में औसत वार्षिक वर्षा 1397 मिलीमीटर से घटकर 916 मिलीमीटर रह गई है। उसी के पडौसी अपर नर्मदा के मंडला जिले में भी औसत वार्षिक वर्षा 1557 मिलीमीटर से घटकर 1253 मिलीमीटर रह गई है। बेसिन के अधिकांश जिलों की यही स्थिति है। जाहिर है, वर्षा की इस गंभीर कमी में जंगलों की बर्बादी का खासा हाथ है। नर्मदा की कुल 41 सहायक नदियां हैं जो सतपुडा, विन्ध्य और मेकल पर्वतों से बूंद-बूंद पानी लाकर नर्मदा को सदानीरा बनाती हैं, लेकिन इनमें से कई नदियां सूखने की कगार पर हैं। ‘केंद्रीय जल आयोग’ द्वारा गरूडेश्वर स्टेशन से जुटाए गए वार्षिक जल आंकङे के अनुसार 2004-05 और 2014-15 की तुलना में नर्मदा के प्रवाह में 37 प्रतिशत कमी आई है। 1975 की गणना के अनुसार नर्मदा में पानी की उपलब्धता 28 ‘मिलियन एकङ फीट’ (एमएएफ) थी। ‘नर्मदा नियंत्रण प्राधिकरण’ ने 1980 – 81 से प्रतिवर्ष नर्मदा कछार में उपलब्ध जल की मात्रा को रिकार्ड किया है। इस आंकङे से पता चलता है कि वर्ष 2010 -2011 में नर्मदा कछार में 22.11 ‘एमएएफ’ जल उपलब्ध था। अप्रेल 2018 की एक रिपोर्ट के अनुसार 2017 में नर्मदा नदी की जल उपलब्धता मात्र 14.66 ‘एमएएफ’ थी। ऐसी परिस्थितियों में खारिज किए गए बांधों को फिर से मंजूरी देना कहां की समझदारी होगी? (सप्रेस)
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