पिछले दिनों मध्यप्रदेश में नर्मदा की मुख्य धारा पर बनने वाली ’श्रीमहेश्वर जल-विद्युत परियोजना’ से किया गया राज्य सरकार का विक्रय-समझौता रद्द कर दिया गया है। वजह वे ही बताई जा रही हैं जिन्हें दो-ढाई दशक से डूब-क्षेत्र के लोग अपने ‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ की मार्फत तरह-तरह से बार-बार कह रहे थे। यानि एक तो महेश्वर परियोजना की बिजली बेतरह मंहगी होगी और दूसरे, परियोजना तानने और निर्माताओं के हित साधने की जिद में राज्य का खजाना निरर्थक खाली होगा। जाहिर है, हमारी कथित लोकतांत्रिक सरकारें ‘लोक’ की अनसुनी करके ही राज-काज चलाती हैं। ऐसा करते हुए वे बांधों की समीक्षा की खुद की अनूठी पहल तक को ठेंगे पर मारने से नहीं चूकतीं।
हाल ही में मध्यप्रदेश सरकार द्वारा ‘महेश्वर जल-विद्युत परियोजना’ का विद्युत-क्रय समझौता रद्द कर दिया गया है। देश के इतिहास में शायद ऐसा पहली बार ऐसा हुआ है कि समझौता होने के 26 साल बाद उसको रद्द किया गया हो। क्या है, इस अजब परियोजना की गजब कहानी? बात नब्बे के दशक की है, जब अधोसंरचना में विकास के लिए निजी पूंजी को लाना आवश्यक माना जाने लगा था। इसी संदर्भ में नर्मदा पर प्रस्तावित 30 बडे बांधों में से एक, मध्यप्रदेश के खरगोन जिले में बिजली के लिए ‘महेश्वर जल-विद्युत परियोजना’ की नींव रखी गई। यह देश की पहली ऐसी परियोजना थी जिसे 1994 में निजीकरण के तहत कपड़ा बनाने वाली ‘एस. कुमार्स’ कंपनी को दिया गया था। विडंबना यह थी कि ‘ओनली विमल’ बनाने वाली इस कपड़ा कंपनी को बिजली बनाने की परियोजना का जिम्मा दे दिया गया।
बिजली परियोजनाओं के निजीकरण के पीछे दो तर्क दिए गए। पहला, चूँकि सरकार के पास पैसा नहीं है, इसलिये निजी परियोजनाकर्ता अपना पैसा लाएगा और दूसरा, खुले बाजार की प्रतिस्पर्धा के कारण बिजली सस्ती होगी। ‘महेश्वर परियोजना’ की कहानी इन तर्कों के खोखलेपन को बेनकाब करते हुए साबित करती है कि निजीकरण का मुख्य उद्देश्य मात्र सार्वजनिक पैसे की बर्बादी और लूट था।
‘एस. कुमार्स’ समूह के साथ हुए ‘विद्युत खरीदी के समझौते’ में बिजली का दाम परियोजना की अंतिम कीमत के आधार पर तय करने और उसे खरीदने की राज्य सरकार की बाध्यता की शर्तें तय की गईं। इसमें बेहूदी और राज्य के खजाने के लिए नुकसानदायक शर्त यह थी कि बिजली बने-या-न-बने, बिके-या-न-बिके, राज्य सरकार, परियोजनाकर्ता को 35 वर्षों तक एक बडी राशि सालाना देती रहेगी। साफ है, परियोजनाकर्ता को पहले ही मुनाफा सुनिश्चित कर दिया गया था और नतीजे में निजीकरण की खुले बाजार की प्रतिस्पर्धा वाली बात खोखली साबित हो गई थी। परियोजना में अधिकांश पैसा ‘मध्यप्रदेश औद्योगिक विकास निगम,’ ‘भारतीय स्टेट बैंक,’ ‘देना बैंक,’ ‘जीवन बीमा निगम,’ ‘पॉवर फाइनेंस कारपोरेशन,’ ‘भारतीय औद्योगिक विकास निगम,’ ‘हुडको’ जैसे सार्वजनिक बैंकों और वित्तीय संस्थाओं का यानि आम जनता का ही लगा। इस प्रकार निजीकरण के पीछे का यह तर्क भी कि निजी परियोजनाकर्ता अपना पैसा लाएगा, खोखला सिद्ध हुआ।
निजीकरण करते ही परियोजना की कीमत 465 करोड़ रुपए से बढ़कर 1569 करोड़ रुपए हो गयी और उसके बाद लगातार बढ़ते-बढ़ते अब 6000 करोड़ तक पहुँच गयी। बिजली की कीमत परियोजना की अंतिम कीमत से तय होने वाली थी, इसलिये जैसे-जैसे कीमत बढ़ी वैसे-वैसे इससे बनने वाली बिजली की कीमत भी बढ़ती गयी। जाहिर है, इसका उद्देश्य परियोजना के निर्माण के दौरान जनता के पैसे से तमाम घोटाले करते हुए पैसा कमाए जाने भर का था।
महेश्वर परियोजना से खरगोन जिले के 61 गांव प्रभावित हो रहे थे और करीब 10,000 परिवार उजड़ने वाले थे। इन सभी परिवारों ने 1997 से ‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ (नबआं) के तहत संघर्ष शुरु किया था। विस्थापितों ने तर्कों व तथ्यों के आधार पर दो बड़ी बातें सरकार के सामने रखी थीं। पहली, इस परियोजना से बहुत कम बिजली पैदा होगी और दूसरी, यह बिजली बहुत महंगी होगी। इसके अलावा बिजली न खरीद पाने की स्थिति में भी, अरबों रुपया निजी परियोजनाकर्ता को देना होता। जाहिर है, यह मध्यप्रदेश की जनता का पैसा होता जिसकी फिजूलखर्ची राज्य की अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचाती। सन 1998 में करीब 25,000 विस्थापितों ने महेश्वर परियोजना के बांध-स्थल पर कब्जा कर, परियोजना को रोकने और उस पर पुनर्विचार करने की मांग की थी। इस मुद्दे को लेकर ‘नबआं’ के कुछ कार्यकर्ताओं के अनशन के दबाव में 30 जनवरी 1998 को राज्य सरकार ने महेश्वर बांध का काम बंद कर इसके पुनर्विचार की घोषणा कर दी। नतीजे में पूर्व मुख्य-सचिव शरदचंद बेहार की अध्यक्षता में एक “टास्क फोर्स” बनाई गई जिसने देश के अनेक विशेषज्ञों, अधिकारियों, बांध-प्रभावितों आदि के साथ मिलकर आठ महीने लंबी प्रक्रिया के बाद निष्कर्ष निकाला कि परियोजना के लाभ और विस्थापितों के पुनर्वास की संभावना सिद्ध किये बिना बांध का काम आगे नहीं बढ़ाया जा सकता। देश में बांधों की समीक्षा के लिए गठित अपनी तरह की इस पहली ‘‘टास्क फोर्स’’ की अनुशंसाओं से तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह असहमत थे और उन्होंने रिपोर्ट को खारिज करते हुए महेश्वर बांध का काम आगे बढाने का आदेश दे दिया।
परियोजना शुरु होते ही घोटाले भी शुरु हो गए। सन् 1998 में मध्यप्रदेश सरकार के ‘औद्योगिक विकास निगम’ ने परियोजनकर्ता को करोड़ों रूपयों का अल्पावधि ऋण दे दिया। परियोजनाकर्ता ने इसे वापस नहीं किया, नतीजे में निगम ने परियोजनकर्ता को ‘विलफुल डिफॉल्टर’ यानि जानबूझकर कर्जा नहीं चुकाने वाला घोषित कर दिया। दूसरी तरफ, पैसा वसूलना तो दूर, डिफाल्टर होते हुए भी निगम ने परियोजनाकर्ता को 45 करोड़ रु और दे दिये। इस पर भारत के ‘नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक’ (सीएजी) ने सन् 2000 की अपनी रिपोर्ट में यह कहते हुए आपत्ति उठाई कि यह पैसा नियमों का उल्लंघन करते हुए दिया गया है। इसी समय महेश्वर परियोजना में पैसा लगाने वाले ‘भारतीय औद्योगिक विकास निगम’ ने अपनी रिपोर्ट में चौंकाने वाला खुलासा किया कि परियोजना के लिए दिए गए सार्वजनिक पैसे में से 106 करोड़ रुपए परियोजनाकर्ता ने अपनी अन्य कंपनियों में लगा दिए हैं।
सन् 2001 के अंत में जब विस्थापितों के संघर्ष ने बहुत दबाव डाला तो ‘मध्यप्रदेश औद्योगिक विकास निगम’ ने डिफॉल्ट के आधार पर महेश्वर बांध की संपत्तियों को कुर्क कर लिया। सन् 2003 में एक अन्य सार्वजनिक वित्तीय संस्था ‘पावर फाइनेंस कॉरपोरेशन’ के बोर्ड ने यह निर्णय लिया कि जब तक परियोजनाकर्ता अपनी पूरी पूंजी नहीं लाएगा, तब तक उसे कोई पैसा नहीं दिया जाएगा। मजे की बात यह है कि बोर्ड के इस निर्णय के तत्काल बाद परियोजनाकर्ता को बिना पूँजी लाये, ‘पावर फाइनेंस कॉरपोरेशन’ ने ही 100 करोड़ रूपए दे दिए, जिस पर ‘सीएजी’ ने 2003 की अपनी रिपोर्ट में उसे लताड़ते हुए कहा कि यह पैसा बिल्कुल गलत दिया गया है।
इधर मध्यप्रदेश में सत्ता परिवर्तन हुआ, उमा भारती मुख्यमंत्री बनीं और उनके मुख्यमंत्री बनते ही सन 2004 में बांध की संपत्ति की कुर्की हटा ली गयी, ‘औद्योगिक विकास निगम’ के बकाया पैसे में से परियोजनाकर्ता को 25 करोड़ रुपए की छूट दे दी गई और उससे कहा गया कि 90 दिन के अंदर वह अपनी पूंजी लेकर आए। परियोजनाकर्ता तब भी अपनी पूंजी नहीं लाया। एक बार फिर सन 2005 की ‘सीएजी’ की रिपोर्ट ने मध्यप्रदेश सरकार को लताड़ लगाई कि यह 25 करोड़ रु की छूट देना सरासर गलत निर्णय है।
अगले साल फिर मुख्यमंत्री बदले और बाबूलाल गौर ने पद संभाला। उनके मुख्यमंत्री बनने के साथ ही सितंबर 2005 में एक नया समझौता किया गया, जिसमें सरकार ने परियोजनाकर्ता द्वारा इकट्ठे किए जाने वाले 400 करोड़ रुपये की ‘एस्क्रो-गारंटी’ दे दी। यानि यदि परियोजनाकर्ता यह रकम नहीं भरेगा तो राज्य सरकार इसे भरेगी। इस समझौते में ही परियोजनाकर्ता से ‘औद्योगिक विकास निगम’ ने बकाया 55 करोड़ रुपए के ‘बाद की तारीख के’ (पोस्ट-डेटेड) चेक ले लिए, लेकिन परियोजनाकर्ता ने गारंटी लेने के तत्काल बाद उस बैंक खाते को ही बंद कर दिया। परिणामतः अगले चार साल तक सारे चेक ‘बाउंस’ होते गए और ‘औद्योगिक विकास निगम’ को एक पैसा नहीं मिला। दूसरी ओर, परियोजनाकर्ता ने जिनसे 400 करोड रुपया लिया था, उसे वापस नहीं किया। नतीजे में ‘एस्क्रो-गारंटी’ की शर्त के चलते राज्य सरकार को 102 करोड़ रु भरने पड़े।
उधर, विस्थापित लगातार यह बात उठाते रहे कि इस परियोजना से बहुत कम बिजली बनेगी जो बहुत महंगी होगी और हजारों प्रभावितों का पुनर्वास होना अब भी बकाया है। इस संघर्ष में उनको लाठी-चार्ज, गिरफ़्तारी, जेल आदि भुगतना पड़ा। जब आन्दोलनकारियों ने परियोजनाकर्ता के वित्तीय घोटाले सामने रखे, तो उनकी आवाज बंद करने के लिये अनेक फौजदारी प्रकरण लगाए गए, हालांकि अंत में जीत आंदोलनकारियों की ही हुई।
विस्थापितों द्वारा ‘केन्द्रीय पर्यावरण मंत्रालय’ के सामने अनशन किया गया और तत्कालीन पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने अप्रैल 2010 में यह कहते हुए कि मंत्रालय द्वारा महेश्वर परियोजना को दी गयी मंजूरी की शर्तों का उल्लंघन हुआ है और पुनर्वास का काम बहुत कम हुआ है, बांध के काम पर रोक लगा दी। बांध के काम पर रोक हटाने के लिये मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने 12 फरवरी 2011 को इस मुद्दे पर अनशन कर प्रधानमंत्री के ऊपर दबाव बनाया और अंत में 5 मई 2011 को जयराम रमेश ने बांध के शेष बचे हुए निर्माण की अनुमति इस शर्त के साथ दी कि जब तक पुनर्वास पूरा नहीं होता, बांध में पानी नहीं भरा जाएगा। जयराम रमेश के हटने के बाद सन 2012 में पुनर्वास न होने के बावजूद पर्यावरण मंत्रालय ने महेश्वर बांध में 154 मीटर तक पानी भरने की अनुमति दे दी। इसके खिलाफ विस्थापितों ने ‘नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल’ का रुख किया और जब यह स्पष्ट हो गया कि 85% पुनर्वास बाकी है तो अक्टूबर 2015 में उसने आदेश दे दिया कि जब तक सम्पूर्ण पुनर्वास नहीं हो जाता, बांध में पानी नहीं भरा जा सकता।
उधर, दिनों-दिन परियोजना की कीमत बढ़ती जा रही थी। सन् 2011 में ऊर्जा मंत्रालय की एक बैठक में परियोजना से बनने वाली बिजली की तत्कालीन कीमत लगभग 10 रुपए प्रति यूनिट आंकी गई। इसी बीच एक बार फिर सन 2014 में ‘सीएजी’ ने फिर परियोजना पर गंभीर प्रश्न खड़े करते हुए मध्यप्रदेश सरकार से पूछा कि परियोजना का समझौता रद्द क्यों नहीं किया जा रहा?
स्पष्ट हो गया कि मध्यप्रदेश को इस परियोजना से एक यूनिट बिजली तो नहीं मिली, ऊपर से ‘एस्क्रो-गारंटी’ के चलते रूपये देने पड़े हैं और यदि यही चलता रहा तो 300 करोड़ रुपए और देने पड़ सकते हैं। विस्थापितों का पुनर्वास बाकी था और इसके साथ अन्य कार्यों को निपटाने में करीब 2500 करोड़ रुपए की और जरूरत थी। विस्थापितों का पुनर्वास किये बिना बांध में पानी भरना कानूनी रूप से असम्भव था। परियोजना से बनने वाली बिजली की कीमत अब 18 रुपए प्रति यूनिट से ऊपर हो गई थी। अंतत: मजबूर होकर मध्यप्रदेश सरकार को परियोजना के ‘विद्युत क्रय समझौते’ को रद्द करना पड़ा। पिछले 18 अप्रैल के आदेश में समझौते को रद्द करने के लिये वही तर्क दिए गए जो विस्थापितों ने 23 साल पहले, 1997 में दिए थे।
महेश्वर परियोजना यदि बनती तो इसकी महंगी बिजली खरीदना तो दूर, समझौते के अनुसार परियोजनाकर्ता को 1200 करोड़ रुपए प्रति वर्ष की दर से 35 साल तक देना पडते। यानि जनता का 42,000 करोड़ रुपया निजी परियोजनाकर्ता को सेंत-मेंत में दिया जाता। आज विस्थापितों के लम्बे संघर्ष के कारण आम जनता के पैसे की इस लूट को रोका जा सका है। (सप्रेस)
v आलोक अग्रवाल ‘नर्मदा बचाओ आन्दोलन’ के सक्रिय कार्यकर्ता हैं।