इतिहास में दशक की एक महत्वपूर्ण घटना की तरह दर्ज हरसूद का ‘संकल्प मेला’ समाप्त हो गया और उसी के साथ नए हरसूद या छनेरा में तब्दील हो गया वह हरसूद जो अपनी जीवन्तता, संघर्ष और आपसी भाई-चारे के लिए जाना-पहचाना जाता था। अंत में रह गया वह मासूम बच्चा जिसने डूब क्षेत्र का दौरा करने आईं लेखिका अरुन्धती राय के यह पूछने पर कि तुम जंगल के फूल क्यों इकट्ठा कर रहे हो, जबकि यहां दूर-दूर तक कोई देवी-देवता नहीं हैं, कहा था कि फूल कितने खूबसूरत हैं ! उम्मीद है कि अपने समय और समाज को डुबोने वालों को भी इस बच्चे जैसी समझ आ सके !!
कई लोगों को यह थोडा विचित्र लग सकता है कि करीब 15 हजार की आबादी का मामूली, अनजान, उनींदा-सा एक कस्बा अपने से लगभग सात गुने, एक लाख से ज्यादा लोगों को ढाई-तीन दिन अपने साथ रहने, खाने-पीने और प्रदर्शन करने में शामिल कर सकता है। कस्बे की आबादी और जरूरत-भर संसाधन इतने कम थे कि जमावडे के लिए मामूली आटा-दाल, साग-भाजी तक के लिए भी करीब साठ किलोमीटर दूर, खंडवा शहर तक जाना-आना पडता था। कार्यक्रम में आने वाले मेहमानों के लिए कस्बेभर के अधिकांश घर खोल दिए गए थे, लेकिन आमंत्रित इतने अधिक थे कि उनके ठहराने के लिए कृषि उपज मंडी, हर दर्जे के स्कूल और तरह-तरह के सरकारी भवनों का उपयोग किया गया था। पीने और निस्तार के पानी के लिए हरसूद के नागरिकों के कुओं, नलकूपों के अलावा सरकारी नलकूप, जरूरत की जगहों पर लगाने के लिए रखी गई झक नई टंकियां तक उपयोग में लाई गई थीं। आबादी से रेलवे-स्टेशन दूर था इसलिए सभी रिक्शोंं-तांगेवालों ने अपनी सेवाएं मुफ्त कर दी थीं। कार्यक्रम के दो दिन पहले पता चला कि कुछ गफलत के चलते बम्बई से आने वाला चंदा नहीं पहुंच सका है और पैसा बिलकुल नहीं है। ऐसे में इसी कस्बे ने आनन-फानन तीन-चार घंटे की मेहनत से 65-70 हजार रुपए इकट्ठा किए थे। इसके अलावा लघु व्यापारी संघ ने खाने के दस हजार मुफ्त-कूपन देने का वायदा किया था। कार्यक्रम के पहले लगभग रोज निकाली जाने वाली रैलियों, मशाल-जुलूसों के भागीदारों के लिए घरों के सामने पानी से भरा घडा और कहीं-कहीं चाय का इंतजाम किया जाता था।
आज के समय में अजूबा लगने वाली ये बातें खंडवा जिले के जीते-जागते, भरे-पूरे और 2004 में ‘इंदिरा सागर परियोजना’ की राक्षसी डूब में समा चुके सात सौ साल पुराने कस्बे हरसूद में इकतीस साल पहले हुईं थीं। मौका था, 28 सितम्बर 1989 को पर्यावरण-प्रदूषण, खासकर बडे बांधों के विरोध में हुए ‘संकल्प मेले’ के विशाल जमावडे का। दुनियाभर में अस्सी के दशक की दस में से एक बडी घटना माने जाने वाले इस मेले की कहानी 1985-86 की उन चार में से एक राष्ट्रीय बैठक से शुरु हुई थी जो हरसूद में ही बडे बांधों की डूब और लाभ-हानि पर विस्तार से विचार करने की खातिर आयोजित की गई थी। इस श्रंखला की बाकी बैठकें बडवानी के पडौसी कस्बे अंजड, कुक्षी के पास नर्मदा किनारे के कोटेश्वर और इलाके के महानगर इंदौर में हुई थीं। उन दिनों काशीनाथ त्रिवेदी की अगुआई में कुछ वरिष्ठ गांधीवादियों ने निमाड-मालवा में बडे बांधों के खिलाफ अलख जगाई थी और उनके आग्रह पर इन चार बैठकों का आयोजन किया गया था। तब तक अंतरराज्यीय ‘सरदार सरोवर परियोजना’ के विरोध में आज का ‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ जमीन पकडने लगा था और वहां भी ऐसे किसी विशाल जमावडे की जरूरत महसूस होने लगी थी। नतीजे में तय हुआ था कि समूची नर्मदा घाटी में खडे किए जाने वाले 30 बडे बांधों के प्रभावितों, देशभर में पर्यावरण और वैकल्पिक राजनीति के मुद्दों पर काम करने वाले संगठनों और सरोकार रखने वाले साहित्यकारों, लेखकों, पत्रकारों, नाटककारों, फिल्म-कलाकारों, राजनेताओं और नागरिकों को एक जगह इकट्ठा करके पर्यावरण, खासकर बडे बांधों पर बातचीत की जाए।
नर्मदा घाटी के सरकारी विकास के मंसूबों में सबसे बडे ‘इंदिरा सागर’ बांध को लेकर हरसूद में पहले ही सुगबुगाहट शुरु हो चुकी थी। लोग बांध की आशंका से इतने डर गए थे कि घरों की आम-फहम टूट-फूट भी नहीं सुधरवाते थे। बेंकों ने यहां भी कर्ज देने में आनाकानी शुरु कर दी थी। इसी समय होशंगाबाद जिले में स्कूली शिक्षा के काम में लगी संस्था ‘किशोर भारती’ ने इतिहासकार और पुरातत्वविद् रमेश बिल्लौरे से आग्रह किया था कि वे नर्मदा पर बनने वाले बांधों, खासकर ‘इंदिरा सागर’ पर शोध करें। नतीजे में बिल्लौरे के साथ पत्रकार क्लॉड अल्वारिस ने मिलकर 1988 में नर्मदा बांधों पर पहली किताब ‘डेमिंग दि नर्मदा : इंडियाज ग्रेटेस्ट प्लॉन्ड इनवायरनमेंटल डिजास्टर’ लिखी थी जिसे मलेशिया स्थित मीडिया समूह ‘थर्ड वर्ल्ड नेटवर्क’ ने प्रकाशित किया था। रमेश बिल्लौरे कोई शोधार्थी, लेखक भर नहीं थे, उन्हें लगता था कि सीधे मैदान में जाकर बांध का विरोध किया जाना चाहिए। उस समय, यानि 1986-87 तक हरसूद और आसपास के लक्ष्मीनारायण खण्डेेलवाल, गयाप्रसाद दीवान, शब्बीरभाई पटैल, कमल बाबा, दगडूलाल सांड जैसे भिन्न-भिन्न कामकाजों में लगे लोगों ने ‘नर्मदा सागर संघर्ष समिति’ का गठन कर लिया था और खण्डेलवालजी के घर में दफ्तर खोलकर रमेश बिल्लौरे, सतीनाथ षड्ंगी, नीति आनंद जैसे कई कार्यकर्ताओं ने विस्थापितों और डूब प्रभावितों से सम्पर्क करना शुरु कर दिया था।
पहले से तैयार इस पृष्ठभूमि में ‘संकल्प मेले’ के लिए लामबंदी शुरु की गई। देशभर को जोडने वाले इटारसी जंक्शन की गोठी-धर्मशाला में हुई तैयारी बैठक के बाद हरसूद कार्यक्रम का स्वरूप उभरने लगा। उन दिनों ‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ के समर्थकों का गढ माना जाने वाला होशंगाबाद हरसूद के लिए भी कमर कसकर तैयार हो गया। वहां के न सिर्फ ढेरों कार्यकर्ता दो-ढाई महीने पहले से हरसूद में डेरा डालकर बैठ गए, बल्कि चंदा, अनाज, नुक्कड-नाटक, गीत-संगीत और दूसरी तरह की सहायताएंं भी वहां से मिलने लगीं। तैयारी की इस प्रक्रिया में इंदौर, भोपाल तथा महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, गुजरात, बिहार, पश्चिम बंगाल जैसे दूर-दराज के राज्यों के लोग भी महीनों पहले से शामिल हुए। आखिरकार ‘संकल्प मेले’ का दिन भी आ ही गया, लेकिन इसके भी पहले कुछ बेहद अहम बातें हो रही थीं। एक तो, देश के प्रसिद्ध कलाकार विष्णु चिंचालकर ‘गुरुजी’ की देख-रेख में हरसूद के एन बीच में एक ‘संकल्प स्तंभ’ का निर्माण किया जा रहा था। इस ‘संकल्प स्तंभ’ की नींव में देशभर से आने वाले लोगों ने एकजुटता के प्रतीक स्वरूप अपने-अपने इलाकों से लाई मुट्ठीभर मिट्टी डाली थी। जमावडे में बीबीसी, ‘टाइम मैगजीन,’ न्यूयार्क टाइम्स , ल’मांद, वाशिंगटन पोस्ट, ऑब्जर्वर, इंडियन एक्सप्रेस, टाइम्स ऑफ इंडिया, द हिन्दू, फ्रंटलाइन, हिन्दुस्तान टाइम्स, जनसत्ता, नई दुनिया, भास्कर, नवभारत आदि राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मीडिया के करीब डेढ सौ पत्रकारों के आने की संभावना थी, इसलिए उनके ठहरने, खाने-पीने और समाचार देने की व्यवस्था की गई थी। कस्बे के कुछ फोन-धारी परिवारों ने अपने-अपने फोन पत्रकारों के उपयोग के लिए समर्पित कर दिए थे और कुछ संसाधन-धारी पत्रकारों ने अपने लिए बीएसएनएल की ओबी वैन लगवा ली थी।
वैसे तो 26 और 27 सितम्बर से ही लोगों का आना शुरु हो गया था, लेकिन 28 को असली जमावडा हुआ। कार्यक्रम बाबा आमटे की अगुआई में होना था, उन्हें ही ‘संकल्प मेले’ में मौजूद लोगों को संकल्प दिलवाना था इसलिए पहले वे ही मंचासीन हुए। अनिल त्रिवेदी के संचालन में हुए कार्यक्रम में शबाना आजमी, शिवराम कारंत, एसआर हीरेमठ, बबलू गांगुली, स्वामी अग्निवेश, सुन्दरलाल बहु्गुणा, मेधा पाटकर, स्मितु कोठारी, ओमप्रकाश रावल, महेन्द्र कुमार, विनोद रैना के साथ देशभर के पर्यावरणविद्, सामाजिक कार्यकर्ता और वैकल्पिक राजनीति में लगे अनेक लोग शामिल थे। सभा में मेेनका गांधी और विद्याचरण शुक्ल भी पहुंचे थेे, लेकिन सत्ता की राजनीति से परहेज रखने की मान्यता के चलते उन्हें विनम्रता-पूर्वक मंच से उतरने का आग्रह किया गया। दिनभर गणमान्यों और बांध-प्रभावितों ने पर्यावरण और बडे बांधों से होने वाली आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक हानियों के बारे में विस्तार से बताया। इस तरह के कार्यक्रमों का यह शुरुआती दौर था और इसीलिए सभी की बातें नई और भारी उत्सुकता जगाने वाली थीं।
‘संकल्प मेले’ की इस प्रक्रिया में एक जो सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात हुई, वह थी –‘जन विकास आंदोलन’ का गठन। असल में बाबा आमटे और ओमप्रकाश रावल का आग्रह था कि हमें भी अब राष्ट्रीय स्तर पर ‘ग्रीन पार्टी’ की घोषणा कर देना चाहिए और उसके लिए ‘संकल्प मेले’ से बेहतर कोई अवसर नहीं हो सकता था। लेकिन बाबा और रावल जी की इस बात से कई लोगों की असहमति थी। उनका कहना था कि पार्टी गठित करने के पहले हमें आपस में एक-दूसरे की वैचारिक समझ, व्यापक राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय माहौल का ज्ञान और राजनीति में उतरने की इच्छा पर बात कर लेनी चाहिए। अंत में तय हुआ कि इस मौके का लाभ लेते हुए कम-से-कम एक गठबंधन तो बनाना ही चाहिए और नतीजे में ‘जन विकास आंदोलन’ का जन्म हुआ। ‘संकल्प मेले’ के बाद कुछ साल ‘जन विकास आंदोलन’ सक्रिय भी रहा, लेकिन फिर उसके सहभागी संगठनों-व्यक्तियों ने अपनी-अपनी जरूरतों, समझ और व्यक्तिगत महात्वाकांक्षाओं के चलते इस महत्वपूर्ण प्रक्रिया से किनारा कर लिया। इस तरह इतिहास में दशक की एक महत्वपूर्ण घटना की तरह दर्ज हरसूद का ‘संकल्प मेला’ समाप्त हो गया और उसी के साथ नए हरसूद या छनेरा में तब्दील हो गया वह हरसूद, जो अपनी जीवन्तता, संघर्ष और आपसी भाई-चारे के लिए जाना-पहचाना जाता था। अंत में रह गया वह मासूम बच्चा जिसने डूब क्षेत्र का दौरा करने आईं लेखिका अरुन्धती राय के यह पूछने पर कि तुम जंगल के फूल क्यों इकट्ठा कर रहे हो, जबकि यहां दूर-दूर तक कोई देवी-देवता नहीं हैं, कहा था कि फूल ‘कित्ते खबसूरत हैं न?!’ उम्मीद है कि अपने समय और समाज को डुबोने वालों को भी इस बच्चे जैसी समझ आ सके !!(सप्रेस)
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बहुत बढ़िया लेख है। नर्मदा आन्दोलन के विभिन्न चरणों में जो घटनाएं हुई हैं उन पर निरन्तर लिखा जाना जरूरी है। उम्मीद करना चाहिए कि राकेश को इतिहास के प्रति अपनी जिम्मेदारी का अहसास होगा। जानकारी तो बहुतों को हो सकती है लेकिन समय कुछ को ही अवसर देता है , मुझे लगता है राकेश दीवान के सामने यह चुनौती हाजिर है ।