साठ के दशक में रिहंद बांध की नींव रखते हुए तब के राजनेताओं, खासकर तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू को इस पहल के नतीजों का कोई भान शायद ही रहा हो। देश की ऊर्जा राजधानी खडी करने के जुनून ने मध्यप्रदेश के सिंगरौली और उत्तरप्रदेश के सोनभद्र जिलों को वायु, जल, मिट्टी के प्रदूषण, तीन-तीन बार के विस्थापन जैसी अनेक पर्यावरणीय समस्याओं का ‘घर’ बना दिया है।
सिंगरौली मध्यप्रदेश के विंध्य क्षेत्र का वह महत्वपूर्ण इलाका है जहां हरिजन, आदिवासियों की बहुलता और जीवन-यापन का मुख्य आधार प्राकृतिक संपदा रही है। जब इस क्षेत्र के भू-गर्भ में कोयले के अटूट भंडार, वन संपदा एवं जल की प्रचुर मात्रा आदि का पता चला तो 1957 में रेलवे लाइन का काम शुरू किया गया। इसके तुरत बाद सन् 1963 से निकाला जा रहा कोयला पश्चिम क्षेत्र में स्थित ताप-विद्युत संयंत्रों को भेजा किया गया। विद्युत संयंत्रों का निर्माण कोयला क्षेत्र के समीप ज्यादा मितव्ययी होने के उद्देश्य से सिंगरौली क्षेत्र को प्रमुख उर्जा केंद्र हेतु सर्वाधिक उपयुक्त पाया गया। ‘ऊर्जा की राष्ट्रीय राजधानी’ बनाने के दृष्टिकोण से विकसित क्षेत्र का अधिकांश भाग मध्यप्रदेश के सिंगरौली तथा कुछ भाग उत्तरप्रदेश के सोनभद्र जिले में आता है।
कोयला भंडार से परिपूर्ण इस क्षेत्र में विद्युत उत्पादन में इस्तेमाल होने वाले पानी के लिए 1960 के दशक में रिहंद नदी पर बांध बनाया गया था। आज इस क्षेत्र में 21 हजार मेगावाट की 10 थर्मल पावर प्लांट और ‘नार्दन कोलफील्ड्स लिमिटेड’ (एनसीएल) समेत निजी कम्पनियों की 16 कोयला खदानें संचालित हैं। इन खदानों से लगभग सात करोड मैट्रिक टन कोयला प्रति वर्ष निकाला जाता है। ‘एनसीएल’ के चेयरमैन पीके सिन्हा ने दिसम्बर 2019 के एक कार्यक्रम में कहा था कि सिंगरौली क्षेत्र में 2021 तक 10 करोड़ 60 लाख मैट्रिक टन और 2023-24 के लिए 11 करोड 50 लाख मैट्रिक टन कोयला उत्पादन का लक्ष्य रखा गया है। इसी लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए क्षेत्र में मोरवा बाज़ार, पिटरवाह, सुलियरी, सिधौली, बरका, महुली आदि नये कोल ब्लॉक से उत्पादन करने की तैयारी चल रही है। देश के कुल कोयला भंडारों का आठ प्रतिशत मध्यप्रदेश में है जिसमें सिंगरौली सबसे बड़ा कोयला क्षेत्र है। जिले के चितरंगी क्षेत्र में चकरिया और गुरार पहाङ में सोने के अयस्क का पर्याप्त भंडार है। 147 हैक्टर में सरकार ने खनन का निर्णय लिया है।
सिंगरौली क्षेत्र के ताप विद्युत संयंत्र की बिजली और कोयला बेचने से लगभग पांच हजार करोड़ रुपयों का राजस्व पैदा होता है, परन्तु विषमता देखिये – ‘नीति आयोग’ ने 2018 में देश के 20 ‘अति पिछङे’ जिलों में सिंगरौली को शामिल किया है। सन् 1991 में विश्व बैंक और ‘नेशनल थर्मल पॉवर कॉर्पोरेशन’ (एनटीपीसी) द्वारा गठित ‘पर्यावरणीय आयोग’ ने पाया कि 90 प्रतिशत स्थानीय समुदाय को इन सभी उद्योगों के कारण एक बार विस्थापित किया गया है। इसमें से 35 प्रतिशत लोगों को बार-बार विस्थापित होना पङा है। विगत एक साल में एस्सार, एनटीपीसी और सासन रिलांयस पावर प्लांट का राखङ बांध टूटने से 6 लोगों समेत दर्जनों मवेशी मारे गए हैं और सैकड़ों एकङ फसल बर्बाद और जमीन बंजर हो गई है। 6 अक्तूबर 2019 को एनटीपीसी विंध्याचल का शाहपुर स्थित विशालकाय राखङ बांध टूट गया था जिससे 35 मैट्रिक टन राख रिंहद बांध में समा गया जो नदी के पानी को जहरीला करेगा। रेणुका नदी पर बने इस बांध से सोनभद्र और सिंगरौली जिले के लाखों लोगों के लिए पेयजल व्यवस्था की गई है।
देश की उर्जा राजधानी के रूप में ख्यात सिंगरौली क्षेत्र गहरे संकट की ओर बढ़ रहा है । जो जमीन कभी घने जंगलों, वन्यजीवों और भारी वर्षा के कारण बीहङ और रहस्यमय मानी जाती थी वह आज उजाड़ है, हवा में जहर घुल गया है और चारों तरफ कोयले की राख और धूल ने खेतों और पानी के स्रोतों को जहरीला बना दिया है। नदियां सूखती जा रही हैं और खेती की उपज आधी हो गई है। पूरी आबादी फेफङे और पेट की तरह-तरह की बीमारियों से ग्रस्त है, बच्चे कई गंभीर बीमारियों के शिकार होते जा रहे हैं।
‘राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण’ के निर्देश पर गठित ‘विशेषज्ञ कोर कमेटी’ की रिपोर्ट भी यहां की मुसीबतों का कुछ ऐसा ही उल्लेख करती है। इस कमेटी के अनुसार इस क्षेत्र में 350 से अधिक उद्योग संचालित हैं जिनमें 10 थर्मल पावर प्लांट, 16 कोयला खदानें, 10 रसायन कारखाने, आठ विस्फोटक कारखाने, 309 क्रशर और स्टील, सीमेंट एवं अल्यूमिनियम के एक-एक उद्योग हैं। इनसे करीब 45 लाख टन कचरा हर साल उत्सर्जित होता है जिसमें लगभग 35 लाख टन तो सिर्फ़ कोयले की राख है। 21 हजार मेगावाट बिजली उत्पादन करने के लिए सालभर में 10.3 करोङ टन कोयले की जरूरत होती है। इतनी बङी मात्रा में कोयले की खपत से हर साल 3.5 करोड़ टन फ्लाई ऐश (राख) पैदा होती है, जिसका सही तरीके से निस्तारण नहीं हो पा रहा है। इसके अलावा 10 लाख टन से अधिक लाल कीचङ (रेड मड) व अन्य रसायन उत्सर्जित होते हैं। परन्तु इनके निस्तारण के लिए उचित प्रबंध नहीं होने से 20 लाख टन से अधिक कचरा सिंगरौली क्षेत्र में खुले में फेंका जा रहा है।
‘कमेटी’ की रिपोर्ट के अनुसार करीब 17 हजार टन सल्फर डाईआक्साइड और नाइट्रोजन आक्साइड जैसी स्वास्थ्य के लिए हानिकारक गैस हवा में तैरने के साथ ही हर साल 8.4 हजार टन यानी 8.4 लिटर पारा (मरकरी) भी ऊर्जा संयंत्रों से निकल रहा है जो इस इलाके की जल संरचनाओं में समाहित हो रही है। पारे की इतने बङे पैमाने पर मौजूदगी मानव ही नहीं, बल्कि पशु-पक्षियों के लिए भी अत्यधिक खतरनाक है। राख से खाक होती जिंदगी को बचाने के लिए कमेटी ने कुछ सुझाव भी दिये हैं। पीने के पानी का किसी भी तरह से उद्योगों में इस्तेमाल नहीं हो, बांध के समीप सभी राखङ बांध हटाए जाएं, कोयले की ढुलाई किसी भी स्थिति में सङक मार्ग से नहीं हो, सिंगरौली (मध्यप्रदेश) और सोनभद्र (उत्तरप्रदेश) जिला निकाय ‘वाटर ट्रीटमेंट पलांट’ लगाएं, वायु प्रदूषण को कम करने के लिए ‘एंवियेंट क्वालिटी सिस्टम’ लगातार सक्रिय रखने जैसे महत्वपूर्ण सुझाव शामिल हैं, परन्तु बीते चार सालों में इन सुझावों पर कोई अमल नहीं हुआ है। यदि हुआ होता तो राखङ बांध फूटने जैसे हादसे से बचा जा सकता था। विकास में स्थानीय समुदाय की हिस्सेदारी जैसे सवालों पर वर्षों से केवल राजनीति हो रही है और विकास के नाम पर स्थानीय समुदाय की बलि चढ़ाई जा रही है। (सप्रेस)
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