विकास की अंधी दौड़ में गरीबी, भुखमरी, कुपोषण, बेरोजगारी, अन्याय, शोषण, भ्रष्टाचार, बलात्कार, हिंसा हमारे ऊपर हावी हो रही है। लोक, जो कि लोकतांत्रिक व्यवस्था की सबसे बड़ा घटक है, गायब हो चुका है। सियासत और भ्रष्टाचार का यह गठजोड़ आज ऐसे मुकाम पर आ खड़ा हुआ है जिसने आजादी के मायने ही बदल दिए हैं। विविध भाषा, विविध संस्कृति, विविध धर्मों में बंटे देष में समता, स्वतंत्रता एवं बंधुत्व बहाल करने की बड़ी चुनौती है। हमें लोकतंत्र को बचाना है तो हमारी सोच को बदलना पड़ेगा और लोकतंत्र को सही मायने में समझना पडेगा।
अमरनाथ भाई
मानव जाति ने शताब्दियों से विभिन्न विचार/धाराओं और तदनुसार व्यवस्था पद्धतियों से गुजरते हुए लोकतंत्र तक की यात्रा पूरी की है और अब तक की व्यवस्थाओं में लोकतांत्रिक व्यवस्था को सबसे उत्तम माना गया है। इसके पहले तक मनुष्य की प्रतिष्ठा धनबल, बाहुबल, बुद्धिबल, जाति, धर्म, नस्ल, रंग आदि के कारण होती रही है। अब्राहम लिंकन की परिभाषा में लोकतंत्र के केन्द्र में मनुष्य मात्र है। जनता का, जनता के लिये, जनता के द्वारा। शीर्ष पर विराजमान बड़े से बड़े आदमी को एक वोट का अधिकार और समाज के अंतिम आदमी को भी एक वोट देने का अधिकार। मनुष्य की समानता की पराकाष्ठा।
1947 में भारत आजाद होने के बाद लोकतंत्र को स्वीकार किया ’हम भारत के नागरिक’ कहते हुए संविधान सभा ने जनता के नाम पर संकल्प लिया। संविधान में भारत राष्ट्र को एक संप्रभुता सम्पन, समाजवादी, पंथ निरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाना घोषित किया। भारत के सभी नागरिकों के लिये समाजिक, आर्थिक, राजनैतिक और न्याय, विचार की अभिव्यक्ति विश्वासनिष्ठा, पूजा की स्वतंत्रता, सामाजिक स्तर और अवसर की समानता सुलभ करना तथा व्यक्ति की गरिमा, राष्ट्र की एकता की आवष्यकता के साथ भारत के सभी नागरिकों में भाईचारे की भावना का प्रसार करना।
संविधान के उपरोक्त लक्ष्य से लोकतंत्र की भव्यता और नागरिक की गरिमा परिलक्षित होती है। इस उदात्त संविधान और लोकतंत्र की घोषणा के परिप्रेक्ष्य में आजाद भारत की सत्तर साल में हुई यात्रा की समीक्षाकर लेना प्रासंगिक होगा। इसमें कोई शक नहीं कि देश में अद्भुत निर्माण विकास हुआ है। दुनिया में भारत राष्ट्र का स्थान है। काफी लम्बी चौडी उपलब्धियाँ गिनायी जा सकती है। इस सबके बावजूद स्वराज्य की इस लंबी यात्रा के बाद भी देष में गरीबी, भुखमरी, कुपोषण, बेरोजगारी, अन्याय, शोषण, भ्रष्टाचार, बलात्कार, हिंसा, किसान कारीगरों की आत्महत्याएँ है तो दूसरी और दुनिया के 10 बड़े धनपतियों में 4 भारत के हैं। इन सब प्रतिष्ठानों में बैठे हुए मुट्ठीभर लोगों के सुख-सुविधाओं, समृद्धि की कोई सीमा नहीं। सत्ता चाहे राज की हो या धन और धर्म की हो सभी का जबदस्त गठबंधन। देशी पूँजीपतियों द्वारा प्रकृति संसाधनों की बेहताशा लूट और बर्बादी, अमर्यादित निरंकुश भोगवादी जीवन शैली और पर्यावरण विनाशक विकास मॉडल ने अस्तित्व पर ही संकट खड़ा कर दिया है। आजादी की लड़ाई में जिस स्वदेशी व स्वराज्य का उद्घोष था, उसकी जगह ’कारपोरेटीकरण’ और ’सुराज’ ने ले लिया है। हम आज भूल गये हैं कि जो ’स्व’ नहीं होगा ’सु’ हो ही नहीं सकता।
विडंबना तो यह है कि भारी-भरकम संविधान में दल का तो जिक्र ही नहीं है और हमारा लोकतंत्र दलों के दलदल में ही फंस कर रह गया है। लोकतंत्र के नाम पर दलतंत्र ही चल रहा है। आज जनता का सरोकार पांच साल में एक बार वोट देने के अलावा अपने नाम पर चलने वाली व्यवस्था में भी नहीं रह गया है। जिन पार्टियों के अंदर ही लोकतंत्र नहीं है, वे देश में लोकतंत्र चला रही है। सभी पार्टियों में हाईकमांड है, सुप्रीमो है, अन्ततोगत्वा निर्णय एक के हाथ में है। चुनावों में आत्मस्तुति, परनिंदा तो अलग ही रहा है। लेकिन आज तो कोई मर्यादा ही नहीं रह गई है। घटिया दर्जे के आरोप-प्रत्यारोप विष-वमन, शब्द-बाणों का आदान-प्रदान, परस्पर प्रतिद्वंदिता की जगह शत्रुता ने ले ली है। मतदाताओं को तरह-तरह से रिझाना, ललचाना, स्मार्ट फोन, लैपटॉप, रंगीन टी.वी., मंगलसूत्र, गैस चूल्हा आदि देकर वोट पाने की जुगाड़ की जाती है। मतदाताओं के खाते में लाखों रुपये डालने, युवकों को करोड़ों नौकारियाँ देने, किसान का उपज मूल्य को बढ़ाकर देने, जैसे न पूरा होने वाले वादे करने में भी कोई हिचक-संकोच नहीं रहा गया है।
इस देश की जनता ने सभी पार्टियों को अकेले मतदान में राज्यों में, केंद्र में सरकार बनाने का मौका दिया। कमोवेश नागनाथ-सांपनाथ सब बराबर ही सिद्ध हुए। आज इस देश में एक पार्टी नहीं बची है जिसे सरकार बनाने का मौका नहीं मिला हो। इस देश में जनता से जो भी करते बना वह सब किया। अब क्या करें ? इन्हीं पार्टियों को ताश के बावन पत्तों की तरह फेटती रहे ? क्या यही उसकी नियति रह गई है ? क्या लोकतंत्र के असली स्वरूप की दिशा तलाशने की संभावनाएँ खत्म हो चुकी हैं ?, दलों के दलदल से लोकतंत्र को निकालना संभव नहीं रह गया है ? लोकतंत्र के नाग-पाश से नहीं छूटेगा? लोकनीति,लोकतंत्र, लोकशक्ति, लोकस्वराज्य अव्यावहारिक है ? अब्राहम लिंकन की परिभाषा आदर्श ही रह जायेगी ? राजतंत्र से लोकतंत्र की यात्रा अपने में इन प्रश्नों का उत्तर है।
लोकतंत्र के नवसंस्करण की दृष्टि से भारत की भूमि अपने दर्शन व संस्कृति के कारण बहुत उर्वर दिखती है। यहाँ ’स्व’ का चिंतन हुआ है खंड का नहीं। भारत माता ग्राम वासिनी मानी गई है। किसी नई रचना की शुरूआत गाँवों से होगी। अपने बचपन में अंग्रेजी-राज में भी हमने ग्राम-पंचायतों का अवशेष गाँवों में देखा है। ’पांच पंच मिल कीजै काम जीते हारे नहीं लाज’ यह कहावत तो आज भी सुनी जाती है। प्रेमचन्द्र की कहानी पंच-परमेश्वर में एक झलक उन पंचायतों की दिखती है। वर्तमान गाँवों के स्वभाव चरित्र, परिस्थिति से हम अपरिचित नहीं है। सरकार, बाजार ने काफी प्रदूषित किया है। जाति-धर्म आधारित दलगत चुनावों ने ताश के पत्ते की तरह गांव को बिखेर दिया है। इक्यावन और उनपचास की चुनाव पद्धति से होने वाली जीत हार के दंश से गाँव भी कहाँ अछूता रहे। वर्तमान तीन स्तरीय पंचायती व्यवस्था मात्र एक ढाँचा न होकर लोक अभिक्रम, लोकषक्ति को जागृत कर नई समाज रचना के बुनियादी नींव के रूप में उसमें प्राण-प्रतिष्ठा की जा सके तो काफी संभावनाएं प्रकट हो सकती है। आज के उल्टे विपरीत के पिरामिड का सीधा किया जा सकता है। भवन तो वहीं मजबूत माना जाता है जिसकी नींव मजबूत हैं और षिखर हल्का हो। यद्यपि वर्तमान पंचायत व्यवस्था में बहुत जरूरी खमियाँ हैं, लोकाभिमुख बनाने के लिये बहुत सारे परिवर्तन करने पडे़गें। बुनियाद गाँव की ग्राम सभा ही होगी। देश में कुछ क्रांतिकारी प्रयोग भी हुए हैं। अतः इन सबसे हमें मदद मिल सकती है। वर्तमान परिस्थिति के संदर्भ में इस सबमें आवश्यक संशोधन, परिवर्तन, जोड़ना, घटाना ही पड़ेगा। अवश्यकता इस बात की है कि इसके लिये गाँव, मुहल्ले से राष्ट्र स्तर तक के विचारकों,सामाजिक कार्यकर्ताओं, जागरूक नागरिकों, राजनीतिक दलों के नेताओं विशेषकर युवा मित्रों को सामूहिक चिंतन-मंथन की शुरूआत करनी होगी। साथ ही यथा संभव कुछ प्रत्यक्ष व्यवहारिक कार्यक्रमों के क्रियान्वयन का प्रयास भी करना होगा।
यद्यपि बहुत सारी समस्याएँ आज राष्ट्रीय स्तर की ही नहीं वैश्विक हो गई है। इसलिये दुनिया भर में विकल्प की चर्चा चल रही है। प्रदूषित होता पर्यावरण तथा आण्विक हथियारों ने तो दुनिया के अस्तित्व पर प्रश्न चिन्ह लगा दिया है। अतः भारत में वैकल्पिक व्यवस्था के विमर्श में वैश्विक संदर्भ को भी ध्यान में रखना होगा।
इस बात को मैं समझता हूँ कि व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई बहुत आसान नहीं है। 42 साल पहले बिहार से एक नये समाज की रचना के लिये संपूर्ण क्रांति की घोषणा हुई थी तो देश में आपातकाल लगा कर उनका गला घोंट दिया गया था। जनता ने आम चुनाव में उसका जवाब भी दिया था। संपूर्ण-क्रांति तब से हजार गुना प्रासंगिक आज भी है। मानवता के सुनहले भविष्य के लिये उसे पूरा करना होगा। वर्तमान व्यवस्था में लाभान्वित वर्ग जिनके निहित स्वार्थों की पूर्ति इस व्यवस्था में हो रही है, वह आसानी से इस व्यवस्था को क्यों बदलने देगा? नवउदारवाद के पोषक व पैरोकार तो दुनिया भर में बड़ी शिद्दत के साथ यह स्थापित करने में लगे है कि इसका कोई विकल्प नहीं है, इसी में जीना है। उससे अधिक मजबूती से यह कहने की आवश्यकता है कि विकल्प अवश्य है और उस विकल्प के सूरज का उदय भारत की धरती से होगा। ’हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिये, इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।’ इन पंक्तियों को कब दुहराते रहेगें? एक बार भगीरथ बनने की तैयारी भी तो करें, गंगा अवश्य निकलेगी। (सप्रेस)
श्री अमरनाथ भाई वरिष्ठ गांधीवादी एवं सर्व सेवा संघ के पूर्व अध्यक्ष हैं।