तमाम लोकतांत्रिक-संवैधानिक मर्यादाओं को धता बताते हुए हाल में संसद के नए भवन का उद्घाटन किया गया है। इस पूरे कार्यक्रम में एक तमाशा दक्षिण के चोल वंश के राजदंड ‘सेंगोल’ को लोकतंत्र का मंदिर कही जाने वाली संसद में पुनर्स्थापित करने का भी रहा। लोकतांत्रिक देश में हुए ये कारनामे क्या लोकतंत्र की जरा भी गरिमा बढ़ाते हैं? आखिर इनसे क्या पता चलता है?
सब कुछ नया हो गया ! संसद भवन भी नया हो गया; लोकतंत्र भी नया हो गया; समयके ललाट पर अमिट हस्ताक्षर कर प्रधानमंत्री ने संकल्प भी नया लिख दिया ! यह भी एकदम नया हुआ कि संसद भवन का उद्घाटन समारोह हुआ, लेकिन न राष्ट्रपति थीं, न उप-राष्ट्रपति थे।
दोनों दिल्ली में ही थे, लेकिन उनके संदेश भर पढ़े गए, उन्हें मौजूद रहने से मनाही कर दी गई। 20 से ज्यादा विपक्षी दल नहीं थे, यह बात आपके लोकतंत्र में कोई मानी नहीं रखती। संविधान में यह बात ही गलत दर्ज हो गई है कि संसद में पक्ष और विपक्ष का होना ही जरूरी नहीं है, बल्कि वही लोकतंत्र है जिसमें दोनों की साझेदारी हो।
लोकसभा का अध्यक्ष उसका प्रथम पुरुष होता है, ऐसी कोई नई मान्यता बनाई जा रही है, तो वैसा भी कुछ बना नहीं ; अध्यक्ष थे जरूर, लेकिन थे वे प्रधानमंत्री के व्यक्तित्व विहीन पिछलग्गू ! इसकी पूरी सावधान योजना बनाई गई थी कि एक ही आदमी सुनाई दे, एक ही आदमी दिखाई दे, एक ही आदमी साकार हो ! लोकतंत्र एक ही आदमी का होता है, यह भी नया हुआ।
इतना नया-नया एक साथ इस तरह हुआ कि पुराना कुछ याद ही नहीं रहा। जैसे किसे याद रहा कि कहीं, इतिहास के किसी गतालखाने से कोई ‘सेंगोल’ लाया गया और हमने प्रधानमंत्री को उसके सामने साष्टांग भू-लुंठित देखा, मानो वह लोकतंत्र की कोई आदिशक्ति का साकार स्वरूप हो जिसकी साष्टांग अभ्यर्थना करना धार्मिक दायित्व हो।
क्या आपको याद है कि ऐसा पहली बार नहीं देखा हमने? अगर मैं भूलता नहीं हूं तो हमने संसद के प्रवेश-द्वार पर प्रधानमंत्री को साष्टांग भू-लुंठित देखा है; हमने संविधान की किताब के सामने उन्हें नतमस्तक देखा है; हमने उन्हें मठों – मंदिरों – पंडों – पुजारियों के सामने नतमस्तक देखा है।
हमने उन्हें दलितों के पांव धोते देखा है, हमने उन्हें सार्वजनिक सभाओं में मंचों के हर कोने पर जा-जाकर जनता – जनार्दन को इस तरह नतमस्तक प्रणाम करते देखा है कि वह उपहास का प्रसंग बन गया। यह सब पुराने कई वर्षों से हम देखते आ रहे हैं।
प्रधानमंत्री जब भी, जहां कहीं होते हैं कुछ-न-कुछ नया होता ही है जो बेहद पुराना होता है। वैसे यह ठीक भी है कि वे देश को नया बना रहे हैं तो उनका अपना नया बने रहना भी तो जरूरी है न ! बस, ध्यान इतना ही रखना है कि यह सारा नया कोई दूसरा नहीं, प्रधानमंत्री ही करें !
हमारे लोकतंत्र में ‘सेंगोल’ का प्रवेश एकदम नया है। प्रधानमंत्री ने उसे खोजा, धूल झाड़ी, उसे चमकाया, हथेलियों में उठाया, फूलों से सजाया, उसके सामने साष्टांग दंडवत हुए, फिर उसे लेकर पैदल चले, अध्यक्ष के आसान के पास एक खास जगह गढ़ी उन्होंने, उसका एक खास स्टैंड बनाया जिस पर उसे पूजा-पाठ के साथ स्थापित किया। फिर देश को यह भी सिखलाया कि यह भारतीय संस्कृति का प्रतीक है। यह राजदंड है।
अध्यक्ष के आसान के पास है तो इसलिए कि सदस्य (वे सदस्य जो विपक्ष के होते हैं !) सदन की मर्यादा का पालन नहीं करते तो अध्यक्ष उसे तत्काल ‘सेंगोल’ से बरज सकें। नहीं, नहीं, हमने गलत लिखा। अध्यक्ष नहीं बरजेंगे तो प्रधानमंत्री ही; अध्यक्ष उनसे निवेदन करेंगे कि ‘सेंगोल’ का वक्त आ गया है श्रीमान, आइए और इन महाशय को दंडित कीजिए ! राजदंड दंडित करने के लिए ही होता है।
बेकार ही बहुत सारा इतिहास खंगाला गृहमंत्री शाह ने। यह ‘सेंगोल’ कहां से आया, किसने इसे कब किसे दिया, आपका यह सारा शोध कबूल है शाह साहब, लेकिन समझने की बात तो इतनी ही है कि लोकतंत्र से इस ‘सेंगोल’ का कोई नाता बनता है क्या? नहीं, इसका नाता राजतंत्र से है। देखिए, आपने ‘सेंगोल’ की बात की तो न चाहते हुए भी आपको जवाहरलाल नेहरू को उस इतिहास में जगह देनी पड़ी जिस इतिहास को बदलने-भुलाने में आप और इतिहास के आपके इतने सारे दिग्गज लगे हुए हैं।
जवाहरलाल नेहरू को समझना उन सबको भारी पड़ता है जिनको लोकतंत्र का ककहरा न भाता है, न समझता है, लेकिन नेहरू को जब यह ‘सेंगोल’ मिला तो उन्होंने इसे इसकी सही जगह पहुंचा दिया। किसी संग्रहालय में रखवा दिया। राजदंड लोकतंत्र का प्रतीक नहीं बन सकता, इतना विवेक था, उन्हें। लोकतंत्र का एक मतलब, जरूरी मतलब यह भी है कि आपको अपनी समझ, अपने संस्कार, अपनी परंपराएं, अपनी पोथियां, अपनी मान्यताएं सब शनै-शनै बदलनी पड़ती हैं।
कपड़ा बदलने के बारे में तो कबीर साहब कब के कह गए हैं कि मन न रंगाए, रंगाए जोगी कपड़ा; लेकिन यहां तो लोकतंत्र कपड़े से आगे, मन व मान्यताओं के बदलाव की मांग करता है। लोकतंत्र से जिसका मेल नहीं बैठता, वह सारा कुछ किसी संग्रहालय में जगह पाता है। लोकतंत्र के आंगन में तो वही प्रतिष्ठित होता है जो लोकतांत्रिक मूल्यों को संवारता-पुष्पित-पल्लवित करता है।
इसलिए ‘सेंगोल’ की जगह संसद में नहीं है। जैसे ईंट-सीमेंट की बनी इमारत लोकतंत्र की संसद नहीं होती, वैसे ही राजतंत्र के किसी प्रतीक की जगह भी संसद में नहीं होती। संसद में आप करते क्या हैं, कैसे करते हैं और जो करते हैं वह संविधानसम्मत है या नहीं, यही कसौटी है कि वह लोकतंत्र की संसद है या नहीं। हमारी संसद में लोकतंत्र की जगह पहले ही कम थी, आपने उसे और भी संकरे रास्ते पर ला खड़ा किया है, लेकिन आप भी क्या करें, आपके लोकतंत्र में जगह ही एक आदमी की है, इसलिए आपकी परिकल्पना भी उतनी ही संकरी है। (सप्रेस)
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