अरुण कुमार त्रिपाठी

दुनियाभर की सत्‍ताएं खुद को और-और मजबूत करने में लगी हैं और ऐसा करते हुए उन्‍हें इंसानी बिरादरी के गर्त में जाने का भी कोई भान नहीं है। सत्‍ता-लोलुपता की इस भीषण जद्दो-जेहद में लोकतंत्र सर्वाधिक प्रभावित हो रहा है। सवाल है, क्‍या अश्‍लील गैर-बराबरी की नींव पर बैठी मौजूदा सत्‍ताएं अपनी ताकत के संग्राम में लोकतंत्र को बरकरार रखना चाहेंगी?

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने 2016 की तरह एक बार फिर संकेत दिया है कि इस बात की गारंटी नहीं है कि वे नवंबर के चुनाव परिणामों को स्वीकार कर लेंगे। उन्होंने संदेहास्पद अंदाज में कहा है कि ‘मैं देखूंगा।’ ‘फाक्स न्यूज’ के माडरेटर क्रिस वैलेस से एक इंटरव्यू के दौरान यह पूछे जाने पर कि क्या वे चुनाव परिणाम को स्वीकार कर लेंगे तो उन्होंने कहा, ‘’मैं देखूंगा। ….मैं न तो हां कहने जा रहा हूं और न ही न कहने जा रहा हूं। मैंने पिछली बार भी हां या न कुछ नहीं कहा था।’’ उधर तुर्की में ‘सोफिया स्मारक’ को मस्जिद घोषित करने जा रहे राष्ट्रपति तैयब एर्दोजन ने एक सेक्यूलर देश को इस्लामी राष्ट्र घोषित करने की तैयारी कर ली है। भारत में भी अगले महीने जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी राम मंदिर का शिलान्यास करेंगे तब संभव है कि उन्हें राष्ट्रपिता घोषित कर दिया जाए और उनके समर्थक यह मान लें कि अगले कार्यकाल के लिए भी वे ही चुनाव जीतेंगे। उसके बाद भारत को हिंदू राष्ट्र न घोषित किया जाएगा इस बात की क्या गारंटी है? उधर चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने आजीवन पद पर रहने के लिए संविधान में संशोधन कर लिया है और रूस के राष्ट्रपति पुतिन ने भी ऐसा ही इंतजाम किया है।

ऊपर अमेरिका और भारत के साथ चीन और रूस के उदाहरण देने का अर्थ यह है कि जो लोकतांत्रिक देश हैं वहां खेल के नियम बदले जा रहे हैं और अधिनायकवाद स्थापित होता जा रहा है। जो अधिनायकवादी देश हैं उनकी लोकतंत्र की ओर यात्रा होती नहीं दिखाई दे रही है, बल्कि वे अपनी व्यवस्था में और मजबूत हो रहे हैं। ऐसे माहौल में जब यूरोप के भी लोकतांत्रिक देश तानाशाही की ओर जा रहे हैं तब कहां से उम्मीद की जाए? उदाहरण के लिए ‘यूरोपीय संघ’ का सदस्य हंगरी अब कहने के लिए लोकतांत्रिक बचा है। उसके प्रधानमंत्री विक्टर ओरबन ने विधायिका, न्यायपालिका और मीडिया पर एक तरह से कब्जा जमा लिया है और विपक्ष को बेअसर कर दिया है। इसी तरह आर्थिक संकट से गुजर रहे अन्य यूरोपीय देशों में शरणार्थियों की समस्या से पैदा हुआ राष्ट्रवाद और मजबूत होगा जो एक प्रकार से लोकतंत्र को कमजोर ही करने वाला है।

यहां एक अमेरिकी लेखक डैनियल एलेन की एक उक्ति का विशेष महत्व बन जाता है जिसमें वे कहते हैं, ‘’इस पूरे मामले का साधारण तथ्य यह है कि दुनिया आज तक ऐसा बहु-सांस्कृतिक लोकतंत्र स्थापित नहीं कर सकी है जिसमें कोई भी जातीय समूह बहुसंख्यक न हो। न ही ऐसा देश बन सका है जहां पर सामाजिक समता, राजनीतिक समता और सभी को सबल बनाने वाली अर्थव्यवस्था का लक्ष्य हासिल किया जा सका हो।’’ एलेन की तरफ से कल्पित यह लोकतंत्र की ऐसी शर्त है जिसे शायद ही कभी हासिल किया जा सके। हां, इतना जरूर है कि भारत और अमेरिका जैसे लोकतंत्र यूरोप की तुलना में ज्यादा बहुलता लिए हुए हैं। वहां की विविधतापूर्ण संरचना और लोगों में लोकतंत्र के लिए आकर्षण देखते हुए यह यकीन किया जाता था कि लोकतांत्रिक व्यवस्था लंबे समय तक चलने वाली है या यह तब तक चलेगी जब तक उससे बेहतर व्यवस्था न ढूंढ ली जाए।

लेकिन भारत और अमेरिका दोनों देशों में ऐसे राजनेता और उन्हीं के साथ ऐसे राजनीतिक दलों का उभार हो चुका है जो हर हाल में सत्ता हासिल करने और कायम करने में यकीन करते हैं और उसके लिए लोकतांत्रिक खेल के नियमों को बदलने से भी गुरेज नहीं करते। अमेरिका में वीजा के नियम, प्रवासियों और उनके बच्चों की देखभाल के नियम, मतदाता बनाने के नियम और वोट देने के नियमों में तरह तरह के बदलावों के प्रस्ताव लोकतंत्र को एक संकीर्ण और बहुसंख्यकवादी व्यवस्था बनाने के लिए चल रहे हैं। इस मामले में अमेरिका और भारत में कौन आगे है, कहा नहीं जा सकता। अगर अमेरिका के उत्तरी कैरिलोना जैसे विविधता वाले प्रांत में इस तरह के तमाम बदलाव पिछले दिनों किए गए हैं तो भारत में ‘सीएए’ और ‘एनआरसी’ के बहाने अल्पसंख्यकों को दरकिनार करने के नए नियम बन रहे हैं।

सवाल उठता है कि लोकतंत्र के प्रति विकर्षण का यह दौर आया कैसे? सन 1990 में सोवियत संघ के पतन के बाद जिस लोकतंत्र की तूती पूरी दुनिया में बोलती थी, अचानक ऐसा क्या हुआ कि लोकतांत्रिक संस्थाएं पस्त हो गईं और लोकतांत्रिक समाज का सपना टूटने लगा? निश्चित तौर पर इसके पीछे वे स्थितियां तो हैं ही जिसकी ओर डैनियल एलेन संकेत करते हैं। यानी समाज में बढ़ती असमानता लोकतंत्र के प्रति घटते विश्वास का एक प्रमुख कारण है। लोकतंत्र,  जो बराबरी का एक सपना है और जिसे पूरा करने का दावा उदारीकरण ने किया था, वह टूट गया है। अविश्वास के साथ बढ़ती है, हिंसा और उससे राज्य को दमनकारी होने का बहाना मिलता है। इस तरह एक दुष्चक्र निर्मित होता है जिसके भीतर लोकतांत्रिक संस्थाएं न तो मूल्यों के लिए दृढ़ता दिखा पाती हैं और न ही मानवाधिकारों की रक्षा कर पाती हैं। बढ़ती असमानता के बारे में बढ़-चढ़कर चिंता जताने वाले फ्रांसीसी अर्थशास्त्री थामस पिकेटी अपनी नई पुस्तक—‘कैपिटल एंड आइडियोलाजी’- में कहते हैं कि वर्ग आधारित राजनीति के कमजोर पड़ने के साथ असमानता तेजी से बढ़ी है। जाहिर सी बात है कि उसकी जगह धर्म, जाति और जातीयता की राजनीति ने ले ली है और वे अपने ढंग से जो काम कर रहे हैं उससे असमानता के साथ नए किस्म का द्वेष भी बढ़ रहा है। भले ही ऐसी राजनीति बहुसंख्यक एकता का दावा कर रही है और अपनी चुनावी संभावनाओं को प्रबल बना रही है। इसीलिए पिकेटी कहते हैं कि अगर धन के वितरण की नई और कारगर व्यवस्था नहीं की गई तो बहुत कुछ ध्वस्त हो जाएगा। हालांकि वे इस मामले में यूरोपीय परिदृश्य पर ही ध्यान केंद्रित करते हुए अपने उदाहरण प्रस्तुत करते हैं, लेकिन उनकी एक बात गौर करने लायक है कि विश्ववादी और राष्ट्रवादी जनमत के भीतर समतावादी और समता विरोधी लोगों का खेमा है। जरूरत इन दोनों खेमों को तोड़कर समतावादियों की एकता कायम करने की है।

यहीं पर महात्मा गांधी और बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर के `हिंद स्वराज’ और `जाति का समूल नाश’ भारतीय लोकतंत्र के लिए जरूरी विचार लगते हैं। गांधी एक ओर सत्य और अहिंसा की राह दिखाते हैं और व्यक्ति के स्वातंत्रय की बात करते हैं तो आंबेडकर समाज को समतामूलक और लोकतांत्रिक बनाने की जोरदार पैरवी करते हैं। गांधी हृदय परिवर्तन से नया व्यक्ति बनाने की बात करते हैं तो आंबेडकर नई व्यवस्था बनाकर नया मनुष्य बनाना चाहते हैं। पर दोनों का उद्देश्य अच्छा मनुष्य बनाना है। ऐसा इनसान जो समतामूलक दृष्टि रखे और दूसरे नागरिक से बंधुत्व और मैत्री का भाव रखे। इन मूल्यों के बिना या तो राष्ट्रवाद लोकतंत्र को खा जाएगा या समाज की असमानता लोकतंत्र को निगल जाएगी। कोई भी देश लोकतांत्रिक तभी तक रह सकता है जब तक उसका समाज लोकतांत्रिक हो। सिर्फ संस्थाओं के ठाठ खड़े करने से लोकतंत्र नहीं बनता और न ही वह ऊंची-ऊंची इमारतों के भीतर निवास करता है। लोकतंत्र का निवास उसके नागरिकों के दिलों में और व्यवस्था की उदारता और लचीलेपन में होता है। लोकतंत्र हर हाल में जीतने वाली व्यवस्था नहीं है और न ही इसके तहत हर समय सरकारें बनाने और बिगाड़ने का खेल चलते रहना चाहिए। लोकतंत्र हार को गरिमापूर्वक स्वीकार करने और नए सिरे से अपने विचारों को व्यवस्थित करने वाली व्यवस्था है। यहां न तो वामपंथ के अतिवाद की गुंजाइश है और न ही दक्षिणपंथ के। वह दोनों को परिवर्तित करके मध्यमार्गी बनाने वाली व्यवस्था है। यहां न तो किसी एक की ही मूर्ति लगाने का चलन है और न ही तमाम लोगों की मूर्तियों के भंजन की। यहां मूर्तियों की बहुलता का नियम है। आज भारतीय लोकतंत्र महज चुनावी होकर रह गया है जिसके भीतर एक ओर राजनेताओं की सत्ता और धन का केंद्रीकरण हो गया है और दूसरी ओर नौकरशाही को मनमानी करने की छूट मिल गई है। लेकिन जिस तरह से भारतीय जनता पार्टी विभिन्न प्रदेशों में बनी कांग्रेस की हर सरकार को गिराने की साजिश में लगी है उससे चुनाव भी बेमतलब होता जा रहा है। विडंबना यह है कि समाज की दृष्टि में लोकतंत्र के साथ होने वाली यह छेड़खानी कहीं से गलत नहीं है। इस संस्कृति में कोई भी जीते, लेकिन आखिर में लोकतंत्र ही हारेगा। (सप्रेस)  

 

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