तीन दशक पहले 73वें संविधान संशोधन की मार्फत पंचायती राज संस्थाओं में महिलाओं को आरक्षण मिला था। आज उस आरक्षण के बूते सक्षम हुईं महिलाओं की क्या स्थिति है?
ग्रामीण महिलाएं घर सजाने, खाना बनाने, बच्चे पालने और कपड़े सिलने के अलावा कर भी क्या सकती हैं। जिन्हें बोलना नहीं आता, ऐसी गूंगी गुडिय़ाएं नेतागिरी क्या खाक करेंगी? तीन दशक पहले ऐसी टिप्पणियां उस समय की गई थीं, जब 24 अप्रेल 1993 को लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण और महिला सशक्तीकरण की सफल क्रियान्विति के लिए महिलाओं को उनकी जनसंख्या के अनुपातिक आधार पर पंचायत संस्थाओं में प्रतिनिधित्व देकर नई क्रांति के सूत्रपात का स्वप्न संजोया गया। पुरुष प्रधान पंचायत संस्थाओं में इस पर हर किसी ने प्रश्नचिन्ह खड़ा किया मगर आज तीन दशक बाद यह स्वप्न साकार रूप लिए नजर आता है।
पहले पांच साल बीते, फिर दस, बीस और अब तीस साल हो गए हैं। ‘गूंगी गुडिय़ाएं’ न केवल बोल रही हैं बल्कि उन्होंने बड़बोलों की छुट्टी कर दी है। पंचायत संस्थाओं में, खासकर राजस्थान जैसे प्रदेश में जहां औरतें हमेशा पर्दे में रही हैं, नारी शिक्षा का स्तर आज भी अपेक्षित स्तर पर नहीं पहुंच पाया है और लडक़ों के मुकाबले आज भी लड़कियों को कमतर आंका जाता है, यह बदलाव हैरान कर देने वाला है। ग्रामीण-सुलभ झिझक, नारी-सुलभ हया और निरक्षर होने की हीन भावना के साथ सरपंच, उप सरपंच, पंच, प्रधान और जिला प्रमुख बनीं महिलाएं अब ऊंची उड़ान भर रही हैं। शुरू की हिचक जाती रही है। महिलाएं कहती हैं कि अब हिचक कैसी, महिलाएं सब कुछ कर सकती हैं।
मैंने पिछले पच्चीस सालों में राजस्थान के हनुमानगढ़, श्रीगंगानगर, नागौर, जोधपुर, बाड़मेर, बीकानेर, चूरू आदि जिलों में पंचायती राज में महिलाओं की भूमिका को नजदीक से देखा है। सच में जिस तरह की सोच महिलाओं के प्रति व्यक्त की जा रही थी, उनके प्रति व्यवहार भी वैसा ही किया जा रहा था। 73वें संविधान संशोधन के जरिए तीन दशक पहले वंचित, दलित और शोषित वर्ग की महिलाओं के लिए पंचायत संस्थाओं में पद आरक्षित किए गए तो हालात बहुत प्रतिकूल थे। महिलाएं पदों पर तो बैठ गईं, लेकिन वास्तविक सत्ता पुरुषों के पास ही रही। ज्यादातर महिलाएं कहने को ही जन प्रतिनिधि थीं। उनके पतियों ने खुद ही ‘जैडपीपी’ (जिला प्रमुख पति), ‘पीपी’ (प्रधान पति), ‘एसपी’ (सरपंच पति) जैसे पद सृजित कर कुर्सी हथिया ली। महिलाओं की भूमिका रबर स्टाम्प से ज्यादा न रही। सरपंच बनीं महिलाओं को हतोत्साहित करने के लिए उन पर अत्याचार किए गए।
वर्ष 2000 में उदयपुर जिले की भानपुरा पंचायत के ग्रामीणों ने ओमली मीणा को निर्विरोध सरपंच चुना तो उसने महिलाओं के लिए अभिशाप बनी ‘डायन प्रथा’ को खत्म करने का बीड़ा उठाया, लेकिन ओमली को ही डायन करार दे दिया गया। उसे यह कहते हुए बुरी तरह मारा-पीटा गया कि वह डायन है। गांव वालों पर जादू-टोना करती है। वह निरीह महिला रोती रही, चिल्लाती रही, लेकिन हैवानों ने एक न सुनी। उसके घर पर पथराव किया गया। उसका देह शोषण भी हुआ। ओमली के साथ यह सब इसलिए हुआ था कि उसने गांव के दबंगों के दबाव में काम करने से इनकार कर दिया था।
कोटड़ा तहसील की महाद पंचायत की 30 वर्षीय पंच फगू को 2005 में उसी के प्रति ने इसलिए पीट-पीट कर मार डाला क्योंकि उसे फगू का ग्राम विकास के मुद्दों पर सरपंच व ग्राम सचिव से बात करना पसंद नहीं था। जोधपुर जिले के शेखसर की दलित सरपंच किरण के पति को इसलिए झूठे मुकदमे में फंसा दिया गया क्योंकि उसने उप सरपंच द्वारा किरण को जमीन पर बैठा कर खुद सरपंच की कुर्सी पर बैठने का विरोध किया था। 2005 में हनुमानगढ़ जिले की उज्ज्लवास पंचायत की दलित सरपंच कमला लूणा को सुचारू रूप से चल रहे अकाल राहत कार्यों में गड़बड़ी दर्शाकर उन्हें फंसाने के प्रयास किए गए। यह इसलिए हुआ था क्योंकि कमला ने सरपंच चुनाव में एक पूर्व विधायक के नजदीक कार्यकर्ता को पराजित किया था। वर्ष 2005 में श्रीगंगानगर जिले के 22 क्यू की सरपंच सोमा देवी तथा संघर गांव की सरपंच चंदो देवी को अनियमितताओं के आरोप में गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया। राजस्थान में इस तरह के मुकदमें दर्जनों महिलाओं के खिलाफ दर्ज किए गए। इन महिलाओं को तब राहत मिली, जब तत्कालीन राज्यपाल प्रतिभा पाटिल ने इस मामले में दखल दिया।
महिला सरपंचों को हतोत्साहित करने के देश भर में ऐसे हजारों मामले हैं, लेकिन धीरे-धीरे स्थिति बदली है, ‘जैडपीपी,’ ‘पीपी,’ ‘एसपी’ पृष्ठभूमि में जाने लगे हैं। महिलाएं अपनी भूमिका का निर्वहन बखूबी कर रही हैं। बहुत सी महिलाओं ने अपने दायित्व को स्वयं निभाकर अपनी काबिलियत को साबित किया है। अब देश भर से महिला सरपंचों की सफलता की कहानियां सामने आती रहती हैं।
पंचायती राज के विकास में महिलाओं की भूमिका पुरुषों से किसी रूप में कम नहीं है, यह आभास अब किया जा सकता है। महिला जन प्रतिनिधियों ने न केवल सामाजिक बुराइयों के खिलाफ आवाज उठाई है, वहीं भ्रष्टाचार के खिलाफ सीना तानकर खड़ी हुईं हैं। आज से बीस साल पहले श्रीगंगानगर की जिला प्रमुख सरिता बिश्नोई ने अकाल राहत कार्यों में अनियमितताओं के खिलाफ जमकर आवाज उठाई। मुझे याद है, शिकायतें मिलने पर सरिता न केवल गांव-गांव में गईं, बल्कि एक-एक काम का निरीक्षण कर जांच भी शुरू कराई। उन्होंने पंचायत राज की मजबूती के लिए और अधिकारों की मांग सरकार से की। मैंने विभिन्न जिलों में प्रत्यक्ष देखा है कि उन पंचायतों में ज्यादा सक्रियता और ईमानदारी से काम हुआ है, जहां महिलाएं सरपंच थीं।
महिलाओं ने जो ठाना, वह कर दिखाया। 54 जीबी की सरपंच चरणजीत कौर ने अन्य कामों के अलावा अपने गांव में स्कूल भवन बनवाने को तरजीह दी। 24 एएससी की सरपंच कुसुम महेश्वरी ने महिलाओं को सामाजिक बुराइयों के खिलाफ जागृत करने के काम को प्राथमिकता से लिया। उनकी कोशिश से बहुत सी स्कूल छोड़ चुकीं बच्चियां फिर से पढऩे लगीं। कई महिलाओं ने गर्भ में लड़क़ी होने की वजह से गर्भपात का इरादा टाल दिया। नागौर जिले के निम्बड़ी कलां की सरपंच मनीष कुमारी ने गांव में लड़कियों की शिक्षा सुनिश्चित करने के लिए दस साल पहले जो कुछ किया, वह सराहनीय है। चूरू जिले के गोपालपुरा की सरपंच सविता राठी ने गांव की कायापलट दी है। मीठड़ी की सरपंच हेमलता बीच में पढ़ाई छोड़ देने वाले बच्चों का सहारा बनीं।
पंचायतों की जन प्रतिनिधि बनी महिलाओं ने अपने क्षेत्र के विकास के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी। बीस साल पहले टिब्बी की सरपंच शबनम गोदारा तो अपने यहां एक सडक़ का निर्माण न होने के कारण आंदोलन पर उतर आईं थीं। शबनम ने अपने उपेक्षित गांव में बरसों से अधर में अटके काम करवाए। अब तो शबनम दो बार विधानसभा चुनाव लड़ चुकी हैं। वे चुनी नहीं गईं, यह अलग बात है। नागौर के जायल की विधायक मंजू मेघवाल ने भी अपनी राजनीतिक यात्रा पंचायती समिति सदस्य का चुनाव लडक़र ही शुरू की थी। ऐसे दर्जनों उदाहरण हैं।
हालांकि ऐसे लोग अभी भी हैं, जिन्हें पंचायत राज में महिलाओं की भूमिका पसंद नहीं है। ऐसे लोग महिलाओं की पंचायती राज में बढ़ती भूमिका को खत्म करने का षड्यंत्र करते रहते हैं। कई जगह आज भी महिला सरपंचों की जगह पर उनके पति, देवर, जेठ, ससुर कुर्सी पर कायम होने की कोशिश करते हैं, इससे इनकार नहीं किया जा सकता, लेकिन पिछले तीन दशकों में स्थिति काफी बदली है। पंचायत संस्थाओं में महिलाओं ने अपनी योग्यता सिद्ध कर दी है। महिलाएं अपने बूते पर पंचायती राज में काम कर रही हैं लेकिन पुरुषों का अहं उन्हें बात को स्वीकार नहीं करने देता है। वह महिलाओं को नाकारा साबित करने पर तुले हैं।
जाने-अनजाने जिम्मेदार पदों पर बैठे अधिकारी भी पुरुषों के इस कुचक्र में मददगार बने जान पड़ते हैं। मध्यप्रदेश में ‘पंचायती राज एवं ग्रामीण विकास विभाग’ द्वारा पिछले साल जारी एक आदेश को देखिए। इस आदेश में महिला सरपंचों को चेतावनी दी गई है कि अगर सरकारी बैठकों में उनके पति शामिल हुए तो उन्हें पद से हटा दिया जाएगा। हैरानी की बात है, गलती करेंगे पति और सजा दी जाएगी पत्नियों को। ऐसे आदेश के पीछे ऐसी मानसिकता काम करती है, जो महिलाओं को आगे बढ़ते नहीं देख पा रही है। ऐसी मानसिकता वालों को यह डर सताता है कि कहीं पंचायती राज में 33 फीसदी सीटों पर बैठी महिलाएं अब संसद और राज्य विधानसभाओं में आरक्षण पर न अड़ जाएं? (सप्रेस)
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