आजादी बहुत अधिक सजगता की मांग भी करती है। अक्सर तो हमें इसका अहसास भी नहीं होता कि वह वास्तव में हम आजाद नहीं या फिर जिसे आजादी समझ रहे हैं वह गुलामी का ही एक परिष्कृत रूप है। सुसज्जित पिंजरों को आजादी समझना हमारी व्यक्तिगत और सामूहिक आदत का हिस्सा है। अक्सर आजादी को परिभाषित करते हैं सत्तासीन शासक और धर्म ग्रन्थ, पर इनके द्वारा परिभाषित स्वतंत्रता सिर्फ उनकी ताकत को बनाये रखने का एक माध्यम भर होती है। वह आपको हर आजादी दे सकते हैं, खुद पर प्रश्न उठाने की आजादी को छोड़ कर।
बापू ने 16 जनवरी 1930 को यंग इंडिया में लिखा था: “मेरे विचार में तो सोने की जंजीरें लोहे की जंजीरों से भी बुरी हैं। लोहे की जंजीरें तो किसी को भी घिनौनी लग सकती हैं, पर सोने की जंजीरों को कोई आसानी से भूल सकता है। इसलिये यदि भारत को जंजीरों में ही बंधा रहना है, तो बेहतर होगा कि वे जंजीरें सोने या और किसी कीमती धातु की न होकर लोहे की ही हों”। आज एक ज्वलंत प्रश्न है यह; हम कैसी आजादी चाहते हैं और यह कहते समय राष्ट्रपिता ने किस तरह की आजादी का सपना संजोया होगा? बापू ने आजादी के बारे में एक और बहुत ही कीमती बात कही थी जिसका ज़िक्र यहाँ जरुरी है। उनका कहना था कि “यदि आजादी में गलती करने या पाप करने तक की आजादी शामिल नहीं, तो फिर उस आजादी का कोई अर्थ नहीं। यह पूरी तरह मेरी समझ से बाहर है इंसान जो इतना अनुभवी और कुशल है, दूसरे इंसानों को इस अधिकार से वंचित रखकर कैसे खुश हो सकता है।” (यंग इंडिया, 12 मार्च, 1931)।
गांधीजी ने को लेकर जो कहा, उससे आजादी के समूचे प्रश्न में एक नया आयाम जुड़ जाता है| एक नए दृष्टिकोण से आजादी का अर्थ समझ आता है| गांधीजी की अनूठी बात यह थी कि वह एक तरफ तो घृणा, वैमनस्य आदि से मनुष्य की आतंरिक मुक्ति और इसके लिए आवश्यक प्रेम और करुणा से संवर्धन पर जोर देते थे, पर साथ ही उस राजनीतिक स्वतंत्रता के लिए भी लगातार संघर्षरत रहे जिसे उस काल के कई दार्शनिकों और आध्यात्मिक शिक्षकों ने ज्यादा महत्त्व नहीं दिया| बौद्धिक, आध्यात्मिक और व्यावहारिक सोच विचार के बीच इस तरह का संतुलन दुर्लभ है| इस सन्दर्भ में एक ख़ास घटना का ज़िक्र जरूरी है| जब जिद्दू कृष्णमूर्ति ने एक आध्यात्मिक शिक्षक और दार्शनिक के तौर पर अपना जीवन शुरू नहीं कर पाए थे, और न ही गांधी जी ने सक्रिय तौर पर भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन में हिस्सा लेना शुरू किया था, उस समय एनी बेसेंट ने गाँधी जी के सामने कृष्णमूर्ति का ज़िक्र किया था और गाँधी जी ने उनसे कहा था: ‘कृष्णमूर्ति अपने उद्येश्य को लेकर चल रहे हैं और वह ठीक भी है, पर हमें अपने मकसद को लेकर काम करना है|’ सभी को मालूम होगा कि कृष्णमूर्ति ने एक अलग किस्म की आजादी की बात 1929 में ही की थी जब उन्होंने थियोसोफिकल सोसाइटी से अपना दामन छुड़ाया था| उस समय उन्होंने मनुष्य को परम रूप से, बगैर किस शर्त के मुक्त करने के अपने उद्येश्य को दोहराया था, पर गौरतलब है कि जिद्दू कृष्णमूर्ति ने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में कोई सक्रिय हिस्सा नहीं लिया था, क्योंकि आजादी के उनके निहितार्थ ही अलग थे| गाँधी जी इसका महत्व जानते हुए भी, अपने उद्येश्य को लेकर स्पष्ट थे| कृष्णमूर्ति जिस आजादी की बात करते थे, उसका अपना महत्त्व है, क्योंकि उसकी खोज में मनुष्य के अंतरतम की उस गहरी प्यास की अभिव्यक्ति है जो सभी सामाजिक और राजनीतिक मापदंडों से परे है |
आजादी शब्द के कई अर्थ हो सकते हैं। इसकी नाप-तौल, परख के भी कई तरीके हो सकते हैं और हर तरीका उन संस्कारों द्वारा परिभाषित होगा जिनमेंहम पले-बढ़े हैं। किसी भूखे इंसान को रोटी में आजादी दिखती है, बेरोजगार को काम में, तो सत्ता-लोलुप को प्रचुर, असीमित राजनीतिक ताकत में। तथाकथित संत भी और अधिक आध्यात्मिक लोकप्रियता में अपना स्वातंत्र्य या मुक्ति देखता है। पर क्या आजादी का कोई बुनियादी मतलब भी हो सकता है जो हर परिस्थिति में लागू होता हो? ऐसा लगता है कि आजादी का एक व्यापक अर्थ एक ऐसी अवस्था या परिवेश है जिसमे हम अपने बारे में खुद फैसले ले सकें; हम बगैर किसी भय के अपने मन की बात कह सकें। अक्सर आजादी का मतलब लोग समझते हैं कि यह एक ऐसी स्थिति है जिसमे हम जो चाहे, जब चाहें कर सकते हैं, पर यह सही नहीं। ऐसा तभी संभव है जब आप बिलकुल अकेले किसी जंगल में रहते हों और कोई दूसरा आपके साथ न रहता हो। ज्यों ही एक समाज की सृष्टि होगी, चाहे वह कितना ही लघु समाज क्यों न हो, आजादी का अर्थ बदल जाएगा। ऐसे में आप अपनी आजादी का जश्न मनाते समय किसी दूसरे की स्वतंत्रता का हनन करते हैं तो उसके परिणाम आपको भुगतने होंगें। इसे सरल ढंग से देखा जाए, तो आपको अपने हाथ तेज़ी से घुमाने की आजादी तो है पर बीच में किसी की नाक नहीं आनी चाहिए।
जिन राजनीतिक दलों ने हमारे साथ वादाखिलाफी की है उनके हाथों में हम फिर से अपने भविष्य की कुंजी नहीं सौपेंगें—आजादी की यह भी मांग है। अपने बुरे अनुभवों और पुरानी गलतियों को न दोहराने का अवसर मिलना भी एक तरह की बड़ी आजादी है। यदि हमें एक लोकतंत्र में अपनी सरकार को चुनने की आजादी न मिले, मतदाताओं को बूथ तक जाने से रोका जाए, उन्हें किसी चीज़ का लोभ देकर, पैसे बहा कर मीडिया कुप्रचार के जरिये उनके राजनीतिक रुझान को बदलने की कोशिश की जाए, तो यह स्वतंत्रता का उल्लंघन है। यदि किसी आततायी को पसंद न करते हुए भी आपको उसके साथ रहना पड़े, अपनी व्यक्तिगत, आर्थिक और सामाजिक मजबूरियों के चलते, तो यह भी आपकी आजादी के खिलाफ है। आजादी बहुत अधिक सजगता की मांग भी करती है। अक्सर तो हमें इसका अहसास भी नहीं होता कि वह वास्तव में हम आजाद नहीं या फिर जिसे आजादी समझ रहे हैं वह गुलामी का ही एक परिष्कृत रूप है। सुसज्जित पिंजरों को आजादी समझना हमारी व्यक्तिगत और सामूहिक आदत का हिस्सा है। अक्सर आजादी को परिभाषित करते हैं सत्तासीन शासक और धर्म ग्रन्थ, पर इनके द्वारा परिभाषित स्वतंत्रता सिर्फ उनकी ताकत को बनाये रखने का एक माध्यम भर होती है। वह आपको हर आजादी दे सकते हैं, खुद पर प्रश्न उठाने की आजादी को छोड़ कर।
यह तो स्पष्ट है कि राजनीतिक अर्थ में आजादी बहुत ही सीमित होती है। स्वयं आजादी और पारदर्शिता के नाम पर शपथ लेने वाले दलों के भीतर खुल कर तानाशाही रवैया चलता है, भाई-भतीजावाद को बढ़ावा दिया जाता है और धन एवं जाति-धर्म वगैरह के नाम पर लोगों को पार्टी की टिकटें दी जाती हैं। फिर आजादी किस बात की? जब हम धन, सत्ता, लोभ और अनावश्यक संग्रह की प्रवित्तियों से ही मुक्त नहीं हुए तो फिर एक झूठी, सीमित आजादी का हम क्या करें? जब तक सड़क पर चलता आदमी संसद तक पहुँचने में तमाम मुश्किलों का सामना करे, तो फिर आजादी कैसी? फिर तो वह आजादी धनपशुओं और संभ्रांत वर्ग के खेल का मोहरा बन कर रह गयी? एक पिंजरे से निकल कर दूसरे पिंजरे में जाना भी आजादी नहीं। एक मैले-गंदे पिंजरे से निकल कर एक सुसज्जित पिंजरे में बस जाना भी आजादी नहीं। जब किसी एक पार्टी की जगह हमारी पार्टी सत्ता में आती है तो लगता है हमे आजादी मिल गयी। थोड़े दिन बाद मोहभंग होता है और हम किसी नए पिंजरे की तलाश में लग जाते हैं। क्या आजादी सिर्फ पिंजरे बदलने का खेल भर है? राजनितिक तौर पर देखा जाए तो कई देशों की अपेक्षा हम ज्यादा आजाद हैं। पर क्या आजादी की परख तुलनात्मक दृष्टि से होनी चाहिए?
गौरतलब है कि बगैर सजगता के आजादी का कोई अर्थ ही नहीं। कई मामलों में सोशल मीडिया ने लोगों को जागरूक बनाने के लिए भी सकारात्मक काम किया है। महिलाओं और कमज़ोर वर्ग के लोगों पर बार-बार होने वाले हमलों ने हमारी आजादी को लेकर बड़े सवाल उठाये हैं। जिस देश में खुले आम राजनीतिक और सामाजिक घृणा की वजह से कमज़ोर वर्ग के लोगों पर हमले हों, क्या उसे एक आजाद देश कहा जा सकता है? जिस देश में हर बीस मिनट पर एक स्त्री के साथ बलात्कार होता हो, क्या उसे हम स्वतंत्र देश कहेंगे? जहाँ सदियों से कई वर्ग दारिद्य और दुःख में जीवन बिता रहे हों, क्या वह देश आजाद है? कौन आजाद है यहाँ, और किसके लिए है हमारी आजादी? जहाँ सत्ता के करीब रहने वाले धनी 27 मंजिल के घर में रहते हों और उसी शहर में लाखों लोग गन्दगी में लोटते हुए झुग्गी झोपड़ियों में कई-कई पीढियां गुज़ार देते हों, वह देश क्या आजाद है? जिस देश में किसान कर्ज के संकट से डर कर फांसी पर झूल जाएँ, जहाँ छोटे बच्चे पारिवारिक दबाव की वजह से या तो स्कूल ही न जा सकें, और या माँ बाप और शिक्षक के दबाव में चूहा दौड़ में शामिल हो जाएँ और थक हार कर ख़ुदकुशी कर लें, तो ऐसे में क्या हमे खुद को आजाद देश का नागरिक कहना चाहिए?
दक्षिणपंथी और वामपंथी विचारधाराएँ स्वतंत्रता को भी अपने तरीके से परिभाषित करती हैं। वास्तव में दोनों ही सीमित आजादी की ही तरफदारी करती हैं और उनकी सर्वोच्च प्राथमिकता अपनी राजनीतिक सत्ता की निरंतरता ही होती है। अभिव्यक्ति की आजादी के हिमायती अपने शासनकाल में भी ख़ास किताबों, फिल्मों और लेखकों पर रोक लगाने में संकोच नहीं करते, पर राजनीति में तात्कालिक हितों के सामने विचारधारा के प्रति निष्ठा को कुर्बान करने में कोई संकोच नहीं होता। स्वतंत्रता के जिन आवश्यक पहलुओं का ऊपर ज़िक्र किया गया है, उनका उल्लंघन वही लोग करते दिखते हैं जो कभी उनकी रक्षा के लिए जान देने की बातें किया करते थे। इस तरह स्वतंत्रता की कोई एक सर्वमान्य, विश्वव्यापी धारणा निर्मित नहीं हो पाती। बस एक सीमित और जहाँ तक हो सके प्रगतिशील, सर्वसमावेशी आम राय बनती है और उसे लेकर ही बहसें, तर्क-कुतर्क, मनोमालिन्य चलता रहता है।
आजादी को लेकर जो एक सीमित आम राय बनी है उसके आधार पर देखा जा सकता है कि हर व्यक्ति या समाज कुछ ख़ास तरह की स्वतंत्रता की मांग करता है जो कि इन बातों के साथ जुडी होती हैं—इसमें शामिल है बोलने और खुद को व्यक्त करने की आजादी जिसे हर सभ्य और प्रगतिशील समाज में अत्यावश्यक माना जाता है। दूसरी महत्वपूर्ण आजादी है: अपने-अपने भगवान की अपने ढंग से पूजा वगैरह करने की आजादी। इस आजादी का एक अहम पहलू है नास्तिकों की आजादी, क्योंकि अनीश्वरवादी हमेशा से समाज का हिस्सा रहे हैं और अपने वैज्ञानिक, तार्किक चिंतन के जरिये उन्होंने समाज के विकास में योगदान दिया है। ईशनिंदा की आजादी को इसमें शामिल किया जाना चाहिए। अभावमुक्त जीवन दुनिया के हर व्यक्ति को, हर पशु पक्षी को उपलब्ध होना चाहिए। यह ठोस भौतिक अभाव की बात है न कि मनोवैज्ञानिक अभाव की, जिसके लिए कोई सरकार कुछ नही कर सकती। चौथी महत्वपूर्ण आजादी है भय से मुक्ति: पडोसी के हमले का भय, रास्ते चलती स्त्रियों के अपमान का भय, बच्चों के मन में उनके शिक्षकों का भय, नौकरी चले जाने का भय, दुर्घटनाओं का भय, बुजुर्गों में रुग्णता, असुरक्षा का भय वगैरह।
आजादी का एक और पहलू है जिसे हमें भूलना नहीं चाहिए—और यह है धरती की आजादी, उसके लिए जीने की आजादी। जिस तरह लोभ के कारण पिछले दशकों में धरती का शोषण हुआ है वह एक अभूतपूर्व और बहुत ज्यादा दुःख देने वाली घटना है। इसका परिणाम भी हम लगातार भुगत रहे हैं। धरती की आजादी का अर्थ है नदियों को बहने की आजादी, जंगलों को उगने की आजादी, पक्षियों को चहकने की, पशुओं को निर्भीक होकर अपने जंगलों में घूमने फिरने की आजादी। इसके प्रति सजगता जरुर बढी है, पर इस सजगता के पीछे हमें खुद के असुरक्षित होने का भय अधिक है, धरती को बचाने की फिक्र कम। यदि हमारे कुकर्मों से धरती का नुकसान होता पर हम बचे रह जाते, तो हमें धरती या पर्यावरण की जरा भी फिक्र नहीं होती। तो धरती के लिए धरती की फिक्र करने की उम्मीद कर सकते हैं हम, खुद से और अपनी संतानों से? यदि यह धरती और हमारे मूक सहचर ही हमारी अदम्य कामनाओं के पिंजरे में कैद हो गए, तो हम कैसे स्वतंत्र हो सकते हैं। विवेकानंद ने स्वतंत्रता को उसके गहरे और व्यापक अर्थ में परिभाषित किया है और उनकी बात पर गौर करना आवश्यक लग रहा है। उनका कहना है: “सभी मुक्ति के लिए संघर्ष कर रहे हैं, एक क्षुद्र अणु से लेकर एक सितारे तक”। हम सब अपनी आजादी के साथ साथ उनकी आजादी की भी फिक्र करें जिन्हें हम ‘अन्य’ या ‘पराया’ कहते हैं, तभी मुक्ति का यह लक्ष्य हमारी पहुँच के भीतर रहेगा; वर्ना हर दिन यह दूर खिसकता चला जाएगा। (सप्रेस)