बुनियादी मुद्दों पर सत्ता की यह अनदेखी समाज से उसकी बढ़ती हुई दूरी को ही उजागर करती है। आजादी के बाद से लगाकर आज तक का हमारा राजनैतिक इतिहास सत्ता और समाज के बीच की इस बढ़ती दूरी का ही इतिहास रहा है। ऐसे में क्या लोकतंत्र और संविधान अपने ठीक अर्थों में कारगर माने जा सकते हैं? क्या हमारे समाज में लोकतंत्र और संविधान की बदहाली इसी अनदेखी का नतीजा नहीं हैं? तीस-चालीस साल पहले तक दूरी के इन ध्रुवों में एक ओर सत्ता, सरकार और उसका अमला था और दूसरी ओर व्यापक समाज। उन दिनों समाज की तमाम व्याधियां सरकार के किए, न किए का नतीजा होती थीं।
आखिर ‘बीजू जनता दल’ के सांसद भर्तृहरि मेहताब के सवाल पर दिए गए सरकारी जबाव ने उस नजरिए को ही एक बार फिर उघाड़कर रख दिया है जो बरसों से हमारे राजनैतिक आकाओं की नजर, दिमाग और कारनामों में मौजूद रहा है। सांसद महोदय ने इसी साल मार्च के अंतिम सप्ताह में लगाए गए लॉकडाउन की मार में अपने-अपने गांव-घर लौटने और रास्ते में मौत को गले लगाने वाले मजदूरों की संख्या जानने के लिए संसद में आमफहम-सा सवाल किया था। जबाव में सरकार मा-बदौलत ने इस नफरी से खुद की अनभिज्ञता जाहिर करते हुए बता दिया कि समाज के प्रति उनकी क्या और कितनी हमदर्दी है।
आखिर यह हमदर्दी हो भी क्यों, जब देशभर की श्रम शक्ति के इन 91 फीसदी लोगों के श्रम की ही कोई कीमत न लगे? जिनके भरोसे समूची अनौपचारिक अर्थव्यवस्था चलायमान रहे और उनकी कमाई ‘सकल घरेलू उत्पाद’ (जीडीपी) में शामिल ही नहीं हो? पिछली तिमाही में ‘ऋण 23.9 फीसदी’ तक पहुंची देश की ‘जीडीपी’ में यदि अनौपचारिक क्षेत्र के 91 फीसदी कार्यबल की उत्पादकता को जोड़ दें तो दुनिया की सबसे बडी अर्थव्यवस्था का दावा करने वाले हमारे देश की ‘जीडीपी’ का आंकडा कहीं अधिक शर्मनाक दिखाई दे सकता है।
मार्च, अप्रैल और मई तक प्रवासी कहे जाने वाले करोडों मजदूरों की देशभर में इधर-से-उधर होती आबादी के दौर में यह सवाल उछलता रहता था कि आखिर ये मजदूर क्यों वापस अपने उसी अंधेरे गांव-देहात की तरफ बगटूट भाग रहे हैं, जहां उन्हें रहने लायक जीवन तक नसीब नहीं हुआ? संसद में मंत्री महोदय के जबाव से जाहिर हुई गैर-जिम्मेदारी और एक तरह के तिरस्कार ने अब यह भी साफ कर दिया है कि करोडों मजदूर अपनी रोजी-रोटी के ठिकानों को छोड़कर वापस गांव-देहात लौटने को क्यों उतावले थे। आखिर सत्ता पर विराजी और विराजने को हुलफुलाती राजनीतिक जमातों के अपमानजनक तिरस्कार को कोई कब तक झेले?
वोटर समेत आम लोगों के प्रति राजनेताओं का यह तिरस्कार पूर्ण रवैय्या मार्च में ही मध्यप्रदेश की राजनीति में भी दिखाई दिया था। तब विधायकों को बहला-फुसलाकर अच्छी-खासी कांग्रेस सरकार को घुटनों पर ला देने की हरकत आम लोगों को ठेंगे पर मारने के उसी तिरस्कार से उभरी थी जिससे अभी दो दिन पहले करीब डेढ़ करोड़ लोगों की घर-वापसी की अनदेखी और अवज्ञा उभरी है। यानि अधिकांश राजनेताओं के लिए जनता ठेंगे पर मारने, तिरस्कार करने से ज्यादा की हैसियत नहीं रखती। यदि रखती तो कम-से-कम ये ढ़ाई दर्जन विधायक अपने-अपने वोटरों की नजरों का लिहाज तो करते? अपने समाज को जानबूझकर अनदेखा करने के ऐसे और भी कई उदाहरण हैं।
इनमें एक बानगी है, किसानी सरीखे बेहद बारीक हुनर को आज भी ‘अकुशल श्रम’ मानने की है। समझ-बूझकर, अनुभव-जनित ज्ञान के सहारे खेती करने वाले हमारे किसान ‘अकुशल श्रमिक’ माने जाते हैं और उन्हें मिलने वाली मजदूरी की गणना भी उसी अनुसार होती है। साल में दो बार, अप्रेल और अक्टूबर में जिस ‘न्यूनतम मजदूरी’ की घोषणा की जाती है वह दरअसल ‘अकुशल कृषि मजदूरी’ ही है और जो मिस्त्री, लुहार, बढई जैसे कामों से भी बेहद कम आंकी जाती है। पिछली तिमाही में कुलटइयां खाने वाली ‘जीडीपी’ में ‘निर्माण,’ ‘सेवा,’ ‘वाहन-निर्माण,’ ‘भवन-निर्माण’ आदि कमाऊ क्षेत्रों के नकारात्मक आंकडों के मुकाबले ‘कृषि’ अपने ‘प्लस 3.4 फीसदी’ के साथ अलग ही चमक रही थी, लेकिन उसे करने वाले किसान आज भी सरकारों, राजनेताओं की नजर में ‘अकुशल श्रमिक’ भर हैं।
किसानों से ही जुड़ा अनदेखी का एक और मामला ‘न्यूनतम समर्थन मूल्य’ (एमएसपी) का भी है जिसका लाभ बहुत कम किसान उठा पाते हैं। भंडारण की दशा जानने के लिए गठित ‘शान्ताकुमार समिति’ का कहना था कि देश के 94 फीसदी किसान तो मंडी में जाकर ‘एमएसपी’ का कोई लाभ ही नहीं उठा पाते। यानि ‘एमएसपी’ कुल छह फीसदी किसानों के लिए तय किया जाता है। इसे लेकर पिछले सालों में भारी बवाल मचा था और ‘न्यूनतम समर्थन मूल्य’ को लागत का डेढ-गुना बनाने की तजबीज पेश की गई थी। ‘हरित क्रांति’ के इलाकों में गेहूं, धान, सरसों आदि के ‘एमएसपी’ को बढाने के लिए हर साल बवाल मचता है, लेकिन कोई यह नहीं कहता कि ‘एमएसपी’ की सारी कसरत कुल छह फीसदी किसानों भर की किस्मत चमका सकेगी। क्या ‘एमएसपी’ को बंधनकारी नहीं बनाने के पीछे कहीं यही अनदेखी ही जिम्मेदार तो नहीं है?
बुनियादी मुद्दों पर सत्ता की यह अनदेखी समाज से उसकी बढ़ती हुई दूरी को ही उजागर करती है। आजादी के बाद से लगाकर आज तक का हमारा राजनैतिक इतिहास सत्ता और समाज के बीच की इस बढ़ती दूरी का ही इतिहास रहा है। ऐसे में क्या लोकतंत्र और संविधान अपने ठीक अर्थों में कारगर माने जा सकते हैं? क्या हमारे समाज में लोकतंत्र और संविधान की बदहाली इसी अनदेखी का नतीजा नहीं हैं? तीस-चालीस साल पहले तक दूरी के इन ध्रुवों में एक ओर सत्ता, सरकार और उसका अमला था और दूसरी ओर व्यापक समाज। उन दिनों समाज की तमाम व्याधियां सरकार के किए, न किए का नतीजा होती थीं।
धीरे-धीरे इन केन्द्रों में बदलाव आता गया। अब सत्ता में पूंजी भी शरीक हो गई। भूमंडलीकरण ने सत्ता-पूंजी के इस गठजोड़ को और ज्यादा हवा दी। नतीजे में व्यापक समाज हाशिए पर आता गया। कोविड-19 महामारी के चलते चार घंटे की मोहलत पर लगाए गए लॉकडाउन ने जब करोडों प्रवासी मजदूरों को बेरोजगार कर दिया तो आखिर उनके पास अपने घर लौटने के अलावा और चारा ही क्या था। केन्द्र और राज्य सरकारें तब भी इन मजदूरों को अनदेखा कर रही थीं और जानते-बूझते उनके घर-वापसी के लिए कोई इंतजाम नहीं किया जा रहा था। लाखों मजदूर खुलेआम सड़क के रास्ते अपने-अपने गांव-देहात की ओर कूच कर रहे थे, लेकिन सरकारों के कान पर कोई जूं तक नहीं रेंगा था।
आंकडों के मुताबिक करीब एक करोड मजदूरों के इस पलायन ने ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर दबाव बनाया था और सरकारों से अपेक्षा की गई थी कि वे अपने ‘महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कार्यक्रम’ जैसी योजनाओं के जरिए इसमें प्रवासियों को मदद करेंगी। लेकिन यहां भी सत्ता के तिरस्कार और अनदेखी ने समाज की बदहाली को ही बढाया। केन्द्र सरकार ने इसमें मदद करने की बजाए राज्यों को दी जाने वाली राशि में ही कटौती कर दी। यदि मार्च के दौर में ग्रामीण अर्थव्यवस्था को ‘मनरेगा’ का सहारा मिल गया होता तो आज बदहाली का यह आलम खड़ा नहीं हुआ होता। नोट छापकर बांटने के बेहूदे सुझावों का दबाव झेलने की बजाए सरकार आज अपने लोगों के उत्पादक कार्यों का लेखा-जोखा कर रही होती।
लेकिन सरकारें और सत्ता इस तरह नहीं सोचतीं। उन्हें गांव-गांव में आज भी जरूरी मिट्टी, पानी और वन के कामों को करवाने में कोई दिलचस्पी नहीं है। वे पूंजी के उकसावे पर आज भी गांवों को बर्बाद करके ग्रामीणों को उद्योगों के हवाले करना बेहतर मानती हैं। जाहिर है, सत्ता के सोच की यह खामी समाज से उसकी दूरी के नतीजे में पैदा हुई है और इससे तब ही पार पाया जा सकता है जब सरकारें, सत्ताएं समाज को अनदेखा करने की बजाए उसकी सुनें। यदि सुनेंगी तो उन्हें प्रवासियों और राह में जान गंवाने वालों की संख्या का अंदाजा भी होगा।
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