महेन्द्रकुमार
राजनीति के द्वारा सत्ता प्राप्त करके ही सेवा की जा सकती है। यानि गांवों की सेवा कोई बहुत बड़ा बिच्छू है और उसे राजसत्ता के चिमटे से पकड़ा जाए। राजनीति में पड़े हुए कुछ लोग ऐसे भी हैं जिन्हें सेवा करने की इच्छा होती है, लेकिन उनके दिमाग पुराने जमाने के होते हैं। इसलिए उन सेवा-परायण, धर्म-निष्ठों को लगता है कि सत्ता भी अपने हाथ में रहे तो ठीक होगा। विनोबा भावे के विचार संकलन.
हम लोग यही जानते हैं कि राजनीति के द्वारा सत्ता प्राप्त करके ही सेवा की जा सकती है। यानि गांवों की सेवा कोई बहुत बड़ा बिच्छू है और उसे राजसत्ता के चिमटे से पकड़ा जाए। राजनीति में पड़े हुए कुछ लोग ऐसे भी हैं जिन्हें सेवा करने की इच्छा होती है, लेकिन उनके दिमाग पुराने जमाने के होते हैं। इसलिए उन सेवा-परायण, धर्म-निष्ठों को लगता है कि सत्ता भी अपने हाथ में रहे तो ठीक होगा। अंग्रेजी शासन के समय उनके राज्य को उलटकर सत्ता अपने हाथ में ली जाए, यह एक प्रमुख कार्यक्रम ही बन गया था। उन दिनों राजनीति में बहुत से लोग सद्भावना के साथ काम कर रहे थे, लेकिन स्वराज्य के बाद क्या हुआ? सत्ता किसके हाथ में रहे, यही वाद-विवाद शुरू हो गया। देश विभाजन के बावजूद कश्मीर-समस्या का लटकते रहना, आपस में भाई-भाई में भी अनबन, भाषावार प्रान्तों के झगड़े आदि सारी समस्याएं हम-आपसे छिपी नहीं हैं। अगर सेवा के लिए सत्ता चाहिए तो फिर ये झगड़े क्यों? यानि जब तक लोग सत्ता रूपी देवता के भक्त बने रहेंगे, तब तक ये झगड़े-फसाद चलते ही रहेंगे और सेवा को महत्व प्राप्त न होगा। उसका गौणत्व बना रहेगा और सर्वत्र अशांति ही रहेगी।
नैतिक मूल्यों की गिरावट का सबसे बड़ा कारण लोगों का यह विश्वास है कि हम सारा काम सत्ता के जरिये करेंगे। इसीलिए सारी योजना सत्ता प्राप्त करने की ही बनायी जाती है। सत्ता-प्राप्ति के बाद आपस में संघर्ष शुरू हो जाता है। कोई सत्ता में चला गया और कोई नहीं जा सका तो उनका झगड़ा शुरू हो जाता है। अमुक शख्स सिर्फ छह साल जेल में था, वह तो मंत्री बन गया और मैं नौ साल जेल में था, लेकिन मुझे मंत्री नहीं बनाया गया। जनता में एक पक्ष का नेता जाता है, दूसरे पक्ष के नेता को गाली देता है। दूसरे पक्ष का नेता भी जाकर वही काम करता है। जनता दोनों की गालियां सुनती है, दोनों की गालियां इकट्ठी करती है, और फिर दोनों को गालियां देती है। मतलब यह कि जनता में अब किसी के लिए कोई आदर नहीं रहा है। ऐसी आदर शून्य जनता से हिन्दुस्तान की तरक्की कैसे होगी?
लोगों को यह समझाया जाता है कि हमें चुन लो तो हम आपको स्वर्ग में ले जाएंगे। दूसरे को वोट दोगे तो वह तुम्हें नर्क में ले जाएगा। हर कोई आकर यही समझाता है। कोई यह नहीं कहता कि ’तुम्हारा भला तुम करो। गांव का भला तुम लोगों के हाथ में है। तुम्हारा स्वर्ग और नर्क तुम्हारे हाथ में है।‘ वेलफेयर स्टेट (कल्याणकारी राज्य) के नाम से प्रजा का भला करेंगे, सभी ऐसी भावना रखते हैं। यह नहीं सोचते कि गांव का भला गांव करेगा। जनता का भला हम करेंगे, इस भावना में बहुत लोगों के दिमाग उलझे हैं और इसके कारण वे सत्ता के पीछे पड़े रहते हैं। जो लोग सत्ता में नहीं हैं वे सत्ता की अभिलाषा रखते हुए सत्तासीन लोगों से द्वेष करते हैं। जनता में सीधा जाकर सेवा करने का काम कोई नहीं कर रहा है। योजना बनाना सरकार का काम न होकर लोगों का काम होना चाहिए। सरकार का काम है-सिर्फ मदद देना। लेकिन आज योजना सरकार बनाती है, पैसा भी सरकार खर्च करती है और योजना के अमल की भी जिम्मेदारी सरकार की ही होती है। इससे लोग समझते हैं कि आसमान से बारिश की तरह सरकार की तरफ से हम पर नियामतें बरसें और हमारा भला हो। ऐसा चाहने वाले लोग इस जमाने के लायक नहीं हैं। इस जमाने में वे टिक नहीं सकेंगे।
इन दिनों कहा जाता है कि दुनिया में नास्तिकता बढ़ रही है। इससे सभी धर्म भयभीत हैं। लेकिन मैं कहना चाहता हूं कि मुझे उस नास्तिकता से कोई खतरा नहीं लगता। मैं ईमानदार नास्तिकों को उन आस्तिकों के बनिस्बत लाख गुना पसंद करता हूं, जो भगवान का नाम लेकर इंसान को चूसते हैं। अल्लाह का नाम लेकर दीन, हीन, गरीबों को ही चूसने वालों पर अल्लाह कैसे खुश होगा? गीता का नाम लेने वाले गरीबों को लूटते रहेंगे तो क्या उन्हें धार्मिक कहा जा सकेगा? धर्म का नाम लेने से कोई धार्मिक नहीं हो जाता और न भगवान का नाम लेने से ही भक्त होता है। जिसके जीवन में ईमान न हो, आचरण में अहिंसा न हो, व्यवहार में धर्म न हो, वह आस्तिक नहीं हो सकता। जिस नास्तिक के पास सच्चाई हो, वह नामधारी आस्तिक से भगवान के ज्यादा नजदीक है।
मैं किसी को ज्यादा अमीर देखता हूं तो मुझे दुःख होता है। मैं अपने अमीर मित्रों से कहता रहता हूं कि खबरदार रहो। जैसे दुःख में खतरा है, वैसे ही सुख में भी है। चढ़ाई में खतरा है, तो उतराई में भी है। उतराई हो तो बैल जोर से दौड़ना चाहते हैं। जैसे उतराई पर बैल बेकाबू होते हैं, वैसे ही सुख में, ऐशो-आराम में इन्सान दौड़े जाता है और पता नहीं चलता कि वह किस गड्ढ़े में गिरेगा। जैसे चढ़ाई पर बैल आगे बढ़ना ही नहीं चाहते, उन्हें पीछे से ढ़केलना पड़ता है, वैसे ही दुःख में हमारी इन्द्रियां, आगे बढ़ने से इन्कार करती है। चढ़ाई और उतराई दोनों हालत में इन्सान को सावधान रहना ही पड़ता है। हां, लेकिन जहां ऊंचा-नीचा न हो, बिलकुल समान, सीधा रास्ता हो, वहां सावधान रहने की जरूरत नहीं पड़ती। ऐसे रास्ते पर बैल आगे बढ़ते रहते हैं और गाड़ीवान नींद भी ले लेता है। यूरोप, अमेरिका का अनुभव दिखा रहा है कि जहां बहुत ज्यादा सुख होता है, वहां भी खतरा है। अपने देश का अनुभव बता रहा है कि जहां बहुत ज्यादा दुःख-गरीबी होती है, वहां भी खतरा है।
मेरी बातें सुनकर अनेक लोग पूछते हैं कि क्या ये कभी सही होने वाली हैं? मेरा कहना है कि आप करेंगे, तब न होगा? विचार समझने में जितना समय लगेगा, उतना तो समय लगेगा ही, किन्तु विचार समझने के बाद देर नहीं लगेगी। मेरे बिछौने पर सांप है, यह मालूम होने पर क्या मैं उस पर सोया रह सकता हूं? तत्काल बिछौना छोड़कर अलग हट जाऊंगा। वह बिछौना कितना ही मुलायम हो, तब भी मुझे उसका मोह नहीं लगेगा। जब तक विचार समझ में नहीं आयेंगे, तब तक अमल में नहीं आयेंगे। परंतु एक बार विचार समझ में आने के बाद मेरे पास कहने के लिए कुछ नहीं रह जाएगा। (सप्रेस)
महेन्द्रकुमार सप्रेस के संस्थापक संपादक रहे हैं।