विकास की तरह-तरह की किस्सा-गोइयों के बावजूद हमारे देश में सिंचित कृषि का कुल रकबा अब भी 40 फीसदी के आसपास ही है। जाहिर है, खेती की बाकी जरूरत का पानी मानसून की बरसात की उम्मीदों पर टिका होता है। आखिर क्या हाल है, इस बरसात का? वह कैसे, कहां और कब-कब बरसती है?
डेढ़-दो साल से देश में कोरोना की विभीषिका के बावजूद देश के अन्नदाताओं ने ही अर्थव्यवस्था को गति देने का काम किया है। किसानों ने खेती का रकबा बढ़ाकर प्रचुर मात्रा में दलहन, तिलहन, अनाज और फल व सब्जियों का रिकॉर्ड उत्पादन किया है। वर्ष 2020-21 में 35 करोड टन अनाज की पैदावार हुई है। अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्र जब नकारात्मक विकास दर दिखा रहे हों, तब देश के किसानों का यह योगदान किसी वरदान की तरह है।
देश के ‘सकल घरेलू उत्पाद’ (जीडीपी) में ग्रामीण अर्थव्यवस्था का योगदान लगभग 45 फीसदी है। इसी वजह से उन प्रवासी मजदूरों को ग्रामों में रोजी-रोजी मिल पाई, जो देश में हुई तालाबंदी के चलते गांव लौट आए थे। हालांकि गैर-कृषि कार्यों से देश के 80 करोड़ लोगों की आजीविका चलती है, लेकिन इसमें बड़ा योगदान खेती-किसानी से जुड़े उत्पादों का ही रहता है। दरअसल, कृषि ही देश का एकमात्र ऐसा व्यवसाय है, जिससे 60 प्रतिशत आबादी की रोजी-रोटी चलती है। इसके बावजूद भारत में सिंचित क्षेत्र महज 40 फीसदी है, इसलिए खेती की निर्भरता अच्छे मानसून पर टिकी है।
वैसे तो इस बार मौसम विभाग के पूर्वानुमान ने अच्छी बारिश की उम्मीद जगाई है, लेकिन विभाग की एक अन्य रिपोर्ट चौंकाने वाली है। 50 वर्षों के अध्ययन पर केंद्रित इस रिपोर्ट के अनुसार, मौसम में जो बादल पानी बरसाते हैं, उनकी सघनता धीरे-धीरे घट रही है। इस नाते मानसून कमजोर हो जाता है। इससे आशय यह निकलता है कि देश में मानसून में बारिश का प्रतिशत लगातार घट रहा है। दरअसल जो बादल पानी बरसाते हैं, वे आसमान में छह से साढ़े छह हजार फीट की ऊंचाई पर होते हैं। 50 साल पहले ये बादल घने भी होते थे और मोटे भी, परंतु अब साल-दर-साल इनकी मोटाई और सघनता कम होती जा रही है।
इस अध्ययन से देश के नीति-नियंताओं को चेतने की जरूरत है, क्योंकि हमारी खेती-किसानी और 60 फीसदी आबादी मानसून की बरसात से ही रोजी-रोटी चलाती है। यदि औसत मानसून आये तो देश में हरियाली और समृद्धि की संभावना बढ़ती है और औसत से कम आये तो पपड़ाई धरती और अकाल की क्रूर परछाईयां देखने में आती हैं।
मौसम मापक यंत्रों की गणना के अनुसार यदि 90 प्रतिशत से कम बारिश होती है तो उसे ‘कमजोर मानसून’ कहा जाता है। 90-96 फीसदी बारिश इस दायरे में आती है। 96-104 फीसदी बारिश को ‘सामान्य मानसून’ कहा जाता है। यदि बारिश 104-110 फीसदी होती है तो इसे ‘सामान्य से अच्छा मानसून’ कहा जाता है। 110 प्रतिशत से ज्यादा बारिश होती है तो इसे ‘अधिकतम मानसून’ कहा जाता है।
आजकल बादलों के बरसने की क्षमता घट रही है। ऐसा जंगलों के घटते जाने के कारण हुआ है। दो दशक पहले तक कर्नाटक में 46, तमिलनाडू में 42, आंध्रप्रदेश में 63, ओडिश में 72, पश्चिम बंगाल में 48, अविभाजित मध्यप्रदेश में 65 फीसदी वनों के भूभाग थे, जो अब 40 प्रतिशत शेष रह गए हैं। इस कारण बादलों की मोटाई और सघनता घटती जा रही है। नतीजतन पानी भी कम बरसने लगा है और आपदाओं की घटनाएं बढ़ने लगी हैं।
मौसम वैज्ञानिकों का कहना है कि बीते एक दशक में मौसम में आ रहे बदलावों के चलते बीस गुना आकस्मिक घटनाएं बढ़ी हैं। इस बदलाव में भू-स्खलन, भारी बारिश, ओलों का गिरना और बादलों के फटने की घटनाएं शामिल हैं। चक्रवात और बाढ़ प्रभावित जिलों में ये घटनाएं और अधिक संख्या में देखने में आती है। इन्हें ‘चरम जलवायु परिवर्तित घटनाएं’ कहा गया है। सन् 1970 से 2005 के बीच इनकी संख्या 250 थी, जो 2005 से 2020 के बीच बढ़कर 310 हो गईं।
इस चरम बदलाव के चलते जो बारिश पहले तीन दिन में होती थी, वह अब तीन घंटे में हो जाती है। पहले केरल और मुंबई में बाढ़ आती थी, जिसका विस्तार गुजरात और राजस्थान के रेगिस्तानी इलाकों में भी हो गया है। बारिश के औसत दिन भी कम हुए है। पहले 1 जून से 30 सितंबर के बीच 122 दिन की लंबी अवधि तक बारिश होती रहती थी। इसका औसत 880 मिलीमीटर के इर्द-गिर्द रहता था। अब बारिश की मात्रा तो लगभग यही रहती है, लेकिन यह बारिश करीब 60 दिन की भी हो जाती है। इस वजह से बाढ़, भू-स्खलन और बादल फटने के हालात बनते हैं, जो जानमाल की तबाही से जुड़े होते है। विडंबना यह है कि जिन क्षेत्रों में ये हालात बनते हैं, उन्हीं में बेमौसम बारिश, तेज गर्मी और सूखे के हालात भी निर्मित होते हैं।
मौसम वैज्ञानिकों की बात मानें तो जब उत्तर-पश्चिमी भारत में मई-जून तपता है और भीषण गर्मी पड़ती है तब कम दाव का क्षेत्र बनता है। इस कम दाब वाले क्षेत्र की ओर दक्षिणी गोलार्ध से भूमध्य रेखा के निकट से हवाएं दौड़ती हैं। दूसरी तरफ धरती की परिक्रमा सूरज के इर्द-गिर्द अपनी धुरी पर जारी रहती है। निरंतर चक्कर लगाने की इस प्रक्रिया से हवाओं में मंथन होता है और उन्हें नई दिशा मिलती है। इस तरह दक्षिणी गोलार्ध से आ रही दक्षिणी-पूर्वी हवाएं भूमध्य रेखा को पार करते ही पलटकर कम दबाव वाले क्षेत्र की ओर गतिमान हो जाती हैं। ये हवाएं भारत में प्रवेश करने के बाद हिमालय से टकराकर दो हिस्सों में विभाजित होती हैं।
इनमें से एक हिस्सा अरब सागर की ओर से केरल के तट में प्रवेश करता है और दूसरा, बंगाल की खाड़ी की ओर से प्रवेश कर ओड़ीसा, पश्चिम-बंगाल, बिहार, झारखंड, पूर्वी उत्तर-प्रदेश, उत्तराखण्ड, हिमाचल-प्रदेश, हरियाणा और पंजाब तक बरसता है। अरब सागर से दक्षिण भारत में प्रवेश करने वाली हवाएं आन्ध्र-प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, मध्य-प्रदेश और राजस्थान में बरसती हैं। इन मानसूनी हवाओं पर भूमध्य और कश्यप सागर के ऊपर बहने वाली हवाओं के मिजाज का प्रभाव भी पड़ता है। प्रशांत महासागर के ऊपर प्रवाहमान हवाएं भी हमारे मानसून पर असर डालती हैं। वायुमण्डल के इन क्षेत्रों में जब विपरीत परिस्थिति निर्मित होती है तो मानसून के रुख में परिवर्तन होता है और वह कम या ज्यादा बरसात के रूप में धरती पर गिरता है।
बरसने वाले बादल बनने के लिये गरम हवाओं में नमी का समन्वय जरूरी होता है। हवाएं जैसे-जैसे ऊंची उठती हैं, तापमान गिरता जाता है। अनुमान के मुताबिक प्रति एक हजार मीटर की ऊंचाई पर पारा 6 डिग्री नीचे आ जाता है। यह अनुपात वायुमण्डल की सबसे ऊपरी परत ट्रोपोपॉज तक चलता है। इस परत की ऊंचाई यदि भूमध्य रेखा पर नापें तो करीब 15 हजार मीटर बैठती है। यहां इसका तापमान लगभग शून्य से 85 डिग्री सेन्टीग्रेट नीचे पाया गया है।
यही परत ध्रुव प्रदेशों के ऊपर कुल 6 हजार मीटर की ऊंचाई पर भी बन जाती है और तापमान शून्य से 50 डिग्री सेन्टीग्रेट नीचे होता है। इसी परत के नीचे मौसम का गोला या ट्रोपोस्फियर होता है, जिसमें बड़ी मात्रा में भाप होती है। यह भाप ऊपर उठने पर ट्रोपोपॉज के संपर्क में आती है। ठंडी होने पर भाप द्रवित होकर पानी की नन्हीं-नन्हीं बूंदें बनाती है। पृथ्वी से 5-10 किलोमीटर ऊपर तक जो बादल बनते हैं, उनमें बर्फ के बेहद बारीक कण भी होते हैं। पानी की बूंदें और बर्फ के कण मिलकर बड़ी बूंदों में तब्दील होते हैं और बर्षा के रूप में धरती पर टपकना शुरू होते हैं। बहरहाल मौसम में आ रहे बदलाव और बढ़ती घटनाओं के चलते हमें खेती के तरीकों में ऐसे परिवर्तन लाने होंगे, जो जलवायु में अचानक होने वाले दुष्प्रभावों से सुरक्षित रहें। (सप्रेस)
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