अस्सी के दशक में जिस पर्यावरण के दुख में सरकार और समाज दूबरा हुआ जाता था, अब वही पर्यावरण आंख की किरकिरी बनकर महज टालने योग्य प्रक्रिया बनकर रह गया है। नर्मदा की मुख्यधारा पर बने पहले बडे बांध ‘रानी अवंतीबाई सागर’ की डूब से प्रभावित चुटका और उसके आसपास के कुछ गांवों को परमाणु ऊर्जा परियोजना में अब इसी गफलत का सामना करना पड रहा है।
‘पर्यावरण आंकलन अधिसूचना’ को ‘पर्यावरण सुरक्षा अधिनियम–1986’ के अन्तर्गत सबसे पहले 1994 में जारी किया गया था। इसके पहले यह कार्य महज प्रशासनिक जरूरत भर होता था, लेकिन 27 जनवरी 1994 को ‘पर्यावरण प्रभाव अधिसूचना’ के जरिये एक विस्तृत प्रकिया शुरू की गई। इस अधिसूचना के अन्तर्गत 29 औद्योगिक एवं विकासात्मक परियोजनाओं (बाद में संशोधन कर इस संख्या को 32 किया गया) को शुरू करने के लिए केन्द्र सरकार के ‘पर्यावरण एवं वन मंत्रालय’ से मंजूरी लेना अनिवार्य कर दिया गया। इन परियोजनाओं में बङे बांध, खदानें, हवाईअड्डे, राजमार्ग, समुद्र-तट पर तेल एवं गैस उत्पादन, पेट्रोलियम रिफाइनरी, कीटनाशक उद्योग, रासायनिक खाद, धातु उद्योग, ताप-विद्युत प्लांट, परमाणु-उर्जा परियोजना आदि शामिल हैं।
परियोजनाओं को एक विस्तृत प्रकिया से गुजरना आवश्यक बनाया गया। जिसके तहत ‘पर्यावरण प्रभाव निर्धारण’ रिपोर्ट (ईआईए) तैयार कर सार्वजनिक करना एवं जन-सुनवाई महत्वपूर्ण माना गया। ‘ईआईए’ रिपोर्ट अंग्रेजी तथा प्रादेशिक और स्थानीय भाषाओं में जिला मजिस्ट्रेट, पंचायत व जिला परिषद, जिला उद्योग कार्यालय और ‘पर्यावरण एवं वन मंत्रालय’ के क्षेत्रीय कार्यालय में उपलब्धता सुनिश्चित की गई। इसका मुख्य उद्देश्य था कि सभी विकास परियोजनाओं के पर्यावरणीय प्रभावों का केवल सही-सही आंकलन ही न हो, बल्कि इस आंकलन प्रकिया में प्रभावित समुदायों का मत भी लिया जाए और उसी के आधार पर परियोजनाओं को पर्यावरण मंजूरी देना या नहीं देने का फैसला लिया जाए। इस अधिसूचना के अन्तर्गत प्रभावित क्षेत्रों में ‘पर्यावरणीय जन-सुनवाई’ जैसा महत्वपूर्ण प्रावधान रखा गया। किसी भी परियोजना को मंजूरी देने से पहले उसके प्रभावों को पैनी नजर से आंकने और जांचने के रास्ते भी खुले और निर्णय प्रकिया में जनता की भूमिका भी बढी।
इस प्रकिया में परियोजना चार चरणों से गुजरती है। जब परियोजना निर्माता आवेदन करता है, उसे ‘टर्म्स ऑफ रेफरेंस’ की प्रतीक्षारत अवस्था कहते हैं। इसके बाद एक विशेषज्ञ आकलन समिति द्वारा परियोजना की छानबीन की जाती है। छानबीन के अन्तर्गत ‘पर्यावरण प्रभाव आंकलन’ हेतु बिंदु (टर्म्स ऑफ रेफरेंस) तैयार किए जाते हैं। इसी के साथ परियोजना ‘टर्म्स ऑफ रेफरेंस’ की स्वीकृत अवस्था में आ जाती है। ‘पर्यावरण प्रभाव आंकलन’ का मसौदा तैयार होने के बाद जन-सुनवाई आयोजित की जाती है और उसके बाद ‘पर्यावरण प्रभाव आंकलन’ प्रतिवेदन तथा ‘पर्यावरण प्रबंधन योजना’ को अंतिम रूप दिया जाता है। ये सारे चरण पूरे होने के बाद ‘पर्यावरण एवं वन मंत्रालय’ को रिपोर्ट प्रस्तुत की जाती है। यह अवस्था ‘पर्यावरण मंजूरी प्रतीक्षारत’ अवस्था है। इसके बाद ‘विशेषज्ञ आकलन समिति’ द्वारा सबंधित दस्तावेजों की छानबीन की जाती है और परियोजना को स्वीकृत या ख़ारिज करने की सिफारिश की जाती है। एक बार पर्यावरण मंजूरी मिल जाने के बाद परियोजना पर्यावरण मंजूरी अवस्था में आ जाती है।
कम्पनियों के सामने झुकने वाली सरकार के कारण नर्मदा घाटी के बरगी बांध से विस्थापित गांव चुटका में प्रस्तावित ‘परमाणु उर्जा परियोजना’ की जन-सुनवाई में 1994 से 2006 तक 12 सालों में 13 बार संशोधन किया गया। 14 सितम्बर 2006 को ‘पर्यावरण एवं वन मंत्रालय’ द्वारा 1994 के नोटीफिकेशन को बदल कर ‘पर्यावरण प्रभाव निर्धारण प्रकिया-2006’ बनाया गया। ये नोटीफिकेशन भी गोविंद राजन के नेतृत्व वाली समिति की सिफारिशों और मंत्रालय द्वारा विश्वबैंक की मदद से चलाए गए ‘पर्यावरण प्रबंधन दक्षता विकास कार्यक्रम’ के आधार पर लाया गया था। इसमें कम्पनियों द्वारा परियोजना को स्वीकृति देने की प्रकिया को शीघ्र व सरल और सरकारी नियंत्रण को आसान करने जैसे सुझाव शामिल कर लिए गए, जबकि स्वीकृति प्रकिया में शर्तो की मानिटरिंग तथा शर्तो की कार्य योजना महत्वपूर्ण है।
वर्ष 2006 का नोटीफिकेशन इस पर अधिक जोर नहीं देता है। उसमें केवल इतना ही कहा गया है कि छ:-माही प्रतिवेदन देना होगा। प्रकिया कमजोर होने के बावजूद लोग आज भी उस जन-सुनवाई में विरोध करने जाते हैं। चुटका में प्रस्तावित ‘परमाणु उर्जा परियोजना’ की जन-सुनवाई स्थानीय समुदाय के विरोध के कारण दो बार अंतिम वक्त पर रद्द करना पङी। तीसरी बार बाहरी पुलिस बल के साये में जन-सुनवाई का आयोजन किया गया, परन्तु स्थानीय समुदाय जन-सुनवाई स्थल पर हजारों की संख्या में विरोध करने जुट गये। इसके पहले लोगों ने ‘ईआईए’ रिपोर्ट के विभिन्न बिन्दुओं पर लिखित शिकायत दर्ज कराई थी।
एक बार फिर मंत्रालय ने 12 मार्च 2020 को ‘पर्यावरण प्रभाव निर्धारण प्रकिया-2006’ में संशोधन हेतु ‘ईआईए-2020’ प्रस्तावित किया है। इसमें पर्यावरणीय मंजूरी के पहले ही परियोजना निर्माण करने की छूट, कई परियोजनाओं को पर्यावरण जन-सुनवाई से मुक्ति, खदान परियोजनाओं की मंजूरी की वैधता-अवधि में बढोतरी, मंजूरी के बाद नियंत्रण और निगरानी के नियमों में भारी ढील जैसे बदलाव प्रस्तावित हैं। मंत्रालय ने साफ-साफ कह दिया है कि व्यवसायी और कम्पनियों के लिए व्यापार सुगम करना इस प्रस्ताव का उद्देश्य है। देश की पर्यावरणीय हालत पहले ही खास्ता है- वायु, जल और मिट्टी के प्रदूषण से शहर और गांव त्रस्त हैं और प्राकृतिक संपदा निरंतर नष्ट हो रही है।
पर्यावरणीय और जलवायु संकट के चलते आपदाएं बढ रही हैं और प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर समुदाय अपनी आजीविका और जीने के स्रोत खोते जा रहे हैं। इनमें देश के किसान, मछुआरे, वनाधारित आदिवासी समुदाय, पशुपालक, दलित और कई अन्य समुदाय शामिल हैं जो विस्थापन और प्रदूषण की मार झेल रहे हैं। ऐसे में मंत्रालय को पर्यावरण सुरक्षित करने और प्राकृतिक संतुलन बनाये रखने के लिए जनता की भागीदारी मजबूत करते हुए प्रकिया और नियम लागू करना चाहिए, ना कि पूंजीपतियों के मुनाफे के लिए संसाधनों को कौड़ियों के दाम पर बेचना चाहिए। इन सभी परिस्थितियों को लेकर ‘राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण’ (एनजीटी) की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है। इस नई परिस्थिति में ‘न्यायाधिकरण’ के अधिकारों को सीमित करने की कोशिश की जा रही है। मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल 1984 में ‘यूनियन कार्बाइड’ कंपनी से गैस-रिसाव की त्रासदी झेल चुका है। सरकार तथा कम्पनियों की इस क्रूर-चाल के विरोध में लोगों के न्यायपूर्ण एवं लोकतांत्रिक संघर्ष को गोलबंद करने की जरुरत है। यह प्रस्तावित संशोधन इस जनपक्षीय अधिसूचना के लिए अंतिम कील साबित होने वाला है।(सप्रेस)