अदालतों में हिंदी और स्थानीय भाषाओं में कार्रवाई की मांग को लेकर बरसों से बहस चलती रही है, लेकिन अब सुप्रीमकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की पहल पर इसे मंजूर किया गया है। न्याय की आस में अदालतों के दरवाजे ठक-ठकाते आम लोगों को अब अपनी भाषा में उनके फैसलों की जानकारी मिल सकेगी।
सर्वोच्च न्यायालय के फैसलों का अब शीघ्र ही हिंदी में भी अनुवाद किया जाएगा। उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय में बहस और फैसले की भाषा को लेकर हिंदी के इस्तेमाल की मांग लंबे समय से चली आ रही है। समय-समय पर सरकार से ऐसी व्यवस्था करने की मांग भी की जाती रही है। अब मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई ने कहा है कि सुप्रीम कोर्ट जो भी फैसले देता है वे वादी की समझ में आना चाहिए। अगर फैसले का अनुवाद वादी को समझ में आने वाली भाषा में करवा दिया जाए तो उसे समझने में आसानी होगी।
मुख्य न्यायाधीश ने एक उदाहरण देकर समझाया है कि मान लीजिए कोई व्यक्ति तीस बरस तक मुकदमा लड़ता है और उसके बाद अंग्रेजी में आए फैसले से उसे घर, संपत्ति से बेदखल कर दिया जाता है। अगर सीधी अंग्रेजी में दिए गए उक्त फैसले को वह समझ नहीं सकता और उसका वकील भी समयाभाव की वजह से पूरा फैसला उसे समझा नहीं पाता अथवा उक्त फैसला समझाने के लिए अलग से पैसों की मांग करता है, तो यह व्यवस्था ठीक नहीं है। यहां इस बात का खास तौर से ध्यान रखना होगा कि फैसलों के हिंदी अनुवाद की भाषा बोल-चाल की सरल हिंदी ही हो, न कि सरकारी शब्दकोष वाली जटिल हिंदी। फैसलों के हिंदी अनुवाद की यह योजना जल्द ही शुरू होने वाली है। हिंदी के बाद इस योजना को क्षेत्रीय भाषाओं में भी लाया जाएगा।
अंग्रेजी की अनिवार्यता से मुक्ति पाने की दिशा में सर्वोच्च न्यायालय का यह फैसला ऐतिहासिक और बेहद खास है। गांधीजी मानते थे कि समूचे हिंदुस्तान में व्यवहार करने के लिए हमें भारतीय भाषाओं में से एक ऐसी भाषा की जरूरत है जिससे ज्यादा-से-ज्यादा देशवासी परिचित हों और बाकी लोग भी जिसे झट से समझ सकें। संदेह नहीं कि हिंदी ही ऐसी भाषा है। जनगणना के आंकड़े बताते हैं कि हिंदी बोलने वालों की संख्या 52 करोड़ है, जबकि इसे समझने वालों का आंकड़ा दोगुने से कहीं अधिक है।
भाषा की राजनीति के चलते देश को भारी नुकसान उठाना पड़ा है। साठ के दशक में एक तरफ आरएसएस ने जहां ‘हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान’ का नारा दिया तो दूसरी तरफ समाजवादियों ने ‘अंग्रेजी हटाओ’ का बिगुल बजाया। इससे दक्षिण भारत के लोग नाराज हो गए। दक्षिण भारत के राज्यों की आपत्ति सिर्फ हिंदी थोपे जाने की आशंका को लेकर नहीं थी, बल्कि उनकी यह शिकायत भी थी कि शिक्षा के ज्यादातर प्रमुख केंद्र उत्तर भारत में स्थित हैं। अब पिछले चार-पांच दशक में भाषा को लेकर दिखाई देने वाले आग्रह, दुराग्रह और पूर्वाग्रह भी बदले हैं।
भाषायी आशंका और आंदोलन के कारण दक्षिणी राज्यों ने उदारतापूर्वक अंग्रेजी अपनाई और दुनियाभर में हो रहे तकनीकी विकास का लाभ उठाया, जबकि अंग्रेजी विरोध की राजनीति करने वाले उत्तर भारतीय राज्य निरंतर पिछड़ते गए। कौन नहीं जानता कि उत्तर भारत में स्थापित ज्यादातर विश्व विद्यालय शैक्षणिक अराजकता के शिकार हो गए हैं। अंग्रेजी का विरोध करने वाले नेताओं और बुद्धिजीवियों ने भी दोहरा रवैया अपनाया है। इन लोगों ने खुद अपने बाल-बच्चों को तो अंग्रेजी में शिक्षित-दीक्षित किया, लेकिन आम जनता के दिलो-दिमाग में अंग्रेजी के विरूद्ध नफरत के बीज बो दिए। छदम गर्व से भरे ये हिंदी भाषी नेतागण अपनी जनता को यह समझाने में सफल रहे कि अंग्रेजी पढ़ने का अर्थ अपनी संस्कृति और परंपरा से विमुख होते जाना होगा। इसके चलते देश का एक बड़ा वर्ग हिंदी में ही अपना भविष्य देखने लगा। अंग्रेजी के मुकाबले हिंदी गरीब होती चली गई।
भाषा से जातीय बोध, निजत्व और स्वाभिमान झलकता है। गांधीजी भी यही कहते थे कि अंग्रेजी से दंभ, राग, द्वेष और जुल्म आदि बढ़े हैं, जबकि हिंदी विनम्रता सिखाती है। हिंदी वैचारिक स्वाधीनता की भाषा है, वह भारतीय ज्ञान परंपरा के पार, लौकिक विश्वास और आधुनिक जीवन, संस्कार के विचार को एक जिज्ञासु दृष्टिकोण से प्रासंगिक बनाती है। इसीलिए भारतीय चिंतन में कहा गया है कि ‘हमें सब कुछ शब्द के माध्यम से ही दिखाई देता है।‘ जाहिर है, माध्यम स्वभाषा ही होती है। अगर स्वभाषा अथवा निज भाषा के उपयोग का अवसर किसी व्यक्ति समाज और समुदाय की समझ को सशक्त बनाता है तो उससे वंचित कर दिए जाने पर वही व्यक्ति और समाज कई स्तरों पर विपन्न भी हो जाता है। भाषायी भेदभाव का यही संस्करण गुलामी को जन्म देता है। भाषायी परतंत्रता से ही सामाजिक, आर्थिक शोषण का भी विस्तार होता है। प्रसन्नता की बात है कि हिंदी के महत्व को अब सर्वोच्च न्यायालय ने भी स्वीकार कर लिया है।
भूलना नहीं चाहिए कि न्यायपालिका का क्षेत्र भी हमारे जीवन का एक अभिन्न व व्यवहारिक क्षेत्र है। अब से पहले उच्चन्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय की संपूर्ण कानूनी कार्रवाई अंग्रेजी में ही प्रतिपादित करने की बाध्यता थी जिसे लोकतंत्र की आत्मा के विरूद्ध माना गया था। जो न्याय किसी भी तरह से वादी की समझ में ही नहीं आता हो उसे पक्षपात रहित कैसे कहा जा सकता है। फिर जिस देश का बहुसंख्यक वर्ग, जिस भाषा में लिखता- पढ़ता-बोलना है, अगर उसे उसी भाषा में न्याय नहीं मिलता तो वह न्याय कैसा न्याय हुआ?
ऐसा प्रतीत होता है कि सर्वोच्च न्यायालय ने भाषा के प्रति गांधीजी की उस मंशा को सही-सही पकड़ा है जिसमें उन्होंने कहा था कि आज हिंदी ही एक ऐसी भाषा है जिसे ज्यादा-से-ज्यादा देशवासी जानते हैं और तुरंत समझ लेते हैं। सर्वोच्च न्यायालय का यह कदम बेशक औपनिवेशिक मानसिकता से छुटकारे की ओर बढ़ता एक कदम तो है ही, गांधीजी को दी जाने वाली सच्ची श्रद्धांजलि भी है। एक तरफ आज देश गांधीजी की डेढ़ सौवीं जयंती मनाने की तैयारी में जुटा है, वहीं दूसरी तरफ हिंदी के सम्मान में भी एक लंबी छलांग लगाई गई है। भाषायी-स्वाधीनता से वैचारिक स्वाधीनता आती है और वैचारिक स्वाधीनता से ही राजनीतिक स्वाधीनता संपूर्ण होती है। सर्वोच्च न्यायालय के फैसलों का हिंदी अनुवाद दिए जाने की यह घोषणा न्यायिक सुधारों की दिशा में नए दौर की नई और बेहतर शुरूआत है।
मुख्य न्यायाधीश महोदय ने एक और खास बात कही है। उन्होंने कहा है कि प्रमुख फैसलों की समरी (सार-संक्षेप) भी उपलब्ध करवाने पर सर्वोच्च न्यायालय में चर्चा चल रही है। उदाहरण देते हुए मुख्य न्यायाधीश महोदय ने स्पष्ट किया है कि जैसे ट्रिपल तलाक का फैसला चार सौ पन्नों का है जिसकी समरी कुछ पन्नों में बन सकती है। इसके लिए ‘थिंक टैंक’ बना दिया गया है जो यह काम करेगा, किंतु यहां यह जान लेना जरूरी है कि समरी सीधे-सीधे जारी नहीं कर दी जाएगी। ‘थिंक टैंक’ द्वारा तैयार की गई फैसलों की समरी फैसला देने वाले न्यायाधीशों के समझ प्रस्तुत की जाएगी और न्यायाधीशों द्वारा पढ़ने और मंजूरी देने के बाद ही सार्वजनिक की जाएगी।
वैसे तो यह सब व्यवस्थागत मसला है जो ऊपरी अदालतों की कार्रवाई को रेखांकित करता है, लेकिन इसका सीधा संबंध देश की जनता से भी जुड़ता है। यह लोकतंत्र और कल्याणकारी राज्य की परिकल्पना का भी हिस्सा है। अब अगर मुख्य न्यायाधीश के हस्तक्षेप से सर्वोच्च न्यायालय की कार्रवाई में हिंदी और क्षेत्रीय भाषाए भी शामिल होने जा रही हैं, तो बहुत रोमांचक प्रतीत हो रहा है। अभी तक हम एक ऐसी विचित्र व्यवस्था ही देखते आ रहे थे जिसमें संबंधित पक्ष या पक्षों को खुद के ही मुकदमे से संबंधित कानूनी प्रक्रिया, सुनवाई और फैसलों को समझने में नाना-नाना प्रकार की कठिनाईयां आती थीं।
देश की बहुसंख्यक आबादी सिर्फ हिंदी या क्षेत्रीय भाषा ही बोलती, समझती है। इनमें से भी मुकदमों का सामना कर रहे ज्यादातर लोग प्रायः हिंदी अथवा अपनी मातृ-भाषा ही सिर्फ बोल और समझ पाते हैं, वे लिखना-पढ़ना तक भी नहीं जानते हैं। सात दशक से चली आ रही इस विवश मानसिकता को बदलकर सर्वोच्च न्यायालय ने न सिर्फ अंग्रेजी और अंग्रेजीयत के अहंकार को तोड़ा है, बल्कि न्याय-प्रक्रिया का मान बढ़ाते हुए भाषायी-लोकतंत्र में हिंदी और क्षेत्रीय भाषाओं के गौरव की भी स्थापना की है। इससे किसी को भी कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए। (सप्रेस)