दुनियाभर की लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं तक में राजसत्ता की ताकत को आमतौर पर हिंसक क्षमताओं, युद्धों में जीतने की सतत सैनिक तैयारी और उनके लिए साल-दर-साल बढ़ते वार्षिक बजट से ही मापा जाता है। लेकिन क्या इस उन्मादी अभियान से हम सचमुच किसी तरह की कोई ‘जीत’ हासिल कर पाते हैं ?
टॉलस्टॉय ने एक सुंदर कहानी लिखी है। एक युद्ध-खोर राजा बड़ी फौज लेकर पड़ौस के एक समृद्ध देश पर कब्जा करने की मंशा से सरहद पर खड़ा होता है और प्रतिपक्ष के राजा को युद्ध के लिये ललकारता है। पड़ौस के सुंदर, समृद्ध देश का राजा और प्रजा जो हमेशा अपने काम में मग्न रहते थे, जिन्होंने खेती में पसीना बहाकर अपने देश को समृद्ध बनाया था, जो मानते थे कि जहां भी रहेंगे, श्रम की रोटी खायेंगे, जिन्होंने भय से मुक्ति प्राप्त की थी। वे अपना दिनभर का काम पूरा होते ही आक्रमणकारी राजा और उसके थके-मांदे सैनिकों के प्रति चिंता व्यक्त करते हुए उन सबके लिये पीने का पानी और भोजन लेकर नम्र भाव से हाथ जोड़कर स्वागत करने के लिये सरहद पर पहुंचते हैं और उन्हें अपने राज्य में आमंत्रित करते हुए कहते हैं कि यह सब आपका ही है। इस व्यवहार से हतप्रभ आक्रमणकारी राजा और उसके सैनिक खुद से ही पूछते हैं कि वे आखिर किस लिये युद्ध करना चाहते हैं ? उस सुंदर प्रदेश को जीतकर भी वे उन लोगों को नहीं जीत सकते, जिनके मन में युद्ध के इरादे से आए विरोधी के प्रति भी थोड़ी-सी नफरत तक नहीं है। इससे उनके अंदर का मनुष्य जागता है और उनका युद्ध का इरादा गल जाता है। वे केवल अपना युद्ध करने का इरादा ही नहीं बल्कि दिग्विजयी बनने की अपनी राक्षसी महत्वाकांक्षा को भी त्याग देते हैं।
आज भारत पाकिस्तान एक दूसरे को युद्ध की चुनौती दे रहे हैं। यह जानते हुए भी कि युद्ध तबाही के सिवाय कुछ नहीं दे सकता, वे युद्ध करना चाहते हैं। ऐसे में दोनों देशों के नागरिकों को विचार करने की जरुरत है कि आखिर युद्ध क्यों और किससे करना चाहते हैं? युद्ध से हम क्या हासिल कर पायेंगे? भारत में 90 प्रतिशत आत्महत्याऐं गरीबी, अशिक्षा और असुरक्षित रोजगार के कारण होती हैं। प्रतिदिन 34 किसान आत्महत्या कर रहे हैं। हर तीसरा बच्चा कुपोषित है। आधी आबादी गरीबी की जिंदगी जीने के लिये मजबूर है। बेरोजगारों की कतारें लगी हैं। महिलाओं पर अत्याचार बढ़ रहे हैं। बच्चों को अश्लीलता परोसी जा रही है। केवल धन कमाने के लिये समाज में शराब और नशा परोसा जा रहा है। देश में सर्वत्र हिंसा व्याप्त है। किसानों की जमीन छीनी जा रही है। लाखों आदिवासियों से जंगल के अधिकार छीने जा रहा हैं। किसानों को मेहनत का मूल्य देने के लिये धन नहीं है, सारा धन चंद धनवानों के पास पहुंच रहा है। दूसरी तरफ, पाकिस्तान की हालत इससे भी बदतर है। अपने रोजाना के खर्च के लिये भी उनके पास धन नहीं है।
इसके बावजूद जनहित की योजनाओं में भले ही कटौती करनी पड़े या कर्ज की भीख मांगनी पडे, युद्ध से दोनों देश पीछे हटना नहीं चाहते। युद्ध के लिये दोनों देश बड़ी राशि खर्च करते हैं। भारत सरकार का वार्षिक बजट 27 लाख करोड़ का है जिसमें 3 लाख करोड़ रुपयों का रक्षा बजट है। पाकिस्तान सरकार का वार्षिक बजट पांच लाख करोड़ के आसपास है जिसमें 1.10 लाख करोड़ रुपये रक्षा बजट है। इसके अलावा दोनों देश युद्ध-सामग्री के अलावा युद्ध की व्यवस्था पर भी भारी अतिरिक्त रकम खर्च करते हैं। यह इतनी बड़ी राशि है कि इससे दोनों देश गरीबी, भुखमरी, कुपोषण और बेरोजगारी से लड़ते तो अब तक इन पर विजय प्राप्त कर चुके होते और अपने देश को समृद्ध बना चुके होते।
युद्ध का इतिहास बताता है कि उसने हुकूमतों को मजबूत किया है और साम्राज्यवाद को फैलाया है। लोगों के श्रम का शोषण, प्राकृतिक संसाधनों की लूट या युद्ध सामग्री का व्यापार बढ़ाने के लिये ही युद्ध किया जाता रहा है। युद्ध ने समाज और देश को हमेशा तबाही ही दी है। युद्ध हमेशा एक साजिश के तहत लादा जाता रहा है। युद्ध भूमि पर आम जनता की संतानों को ही राष्ट्रभक्ति का नशा पिलाकर मरवाया जाता है। उसके लिये कट्टरपंथियों द्वारा संकुचित राष्ट्रवाद और अपने ही देश के श्रमिकों का शोषण करके मौज करने वाले पाखंडी राष्ट्र-प्रेमियों द्वारा उन्माद पैदाकर युद्ध की भूमिका तैयार की जाती रही है। कट्टरपंथी सोच मानवता के लिये एक अभिशाप है। वह हमेशा दूसरों के इशारों पर समाज में विघटन पैदा करने का काम करती है। कट्टरपंथी और कारपोरेट मीडिया बेलगाम होकर लूट से ध्यान भटकाने और युद्ध के लिये लोगों में जहर भरने और उन्माद पैदा करने का काम करते रहते हैं।
क्या हम अपने देश को युद्ध का नशा और उन्माद फैलाने वाले लोगों के भरोसे छोड़ सकते हैं ? आखिर यह देश हमारा भी है। आज गरीबी, बेरोजगारी, कुपोषण और भुखमरी से लड़ने की आवश्यकता है। शोषणमुक्त समाज निर्माण के लिये सबको मिलकर शोषणकारी ताकतों से, कारपोरेटी साम्राज्यवाद से लड़ने की आवश्यकता है। इसके साथ ही अपने अंदर की हिंसा के विरुद्ध भी लड़ना जरूरी है। सवाल हिंसा या अहिंसा के चयन का है। युद्ध के लिये आमने-सामने खड़ी दोनों राज्य-सत्ताएं और कट्टरपंथी विचारधारा हिंसा के पक्ष में ही खड़ी हैं। हिंसा के चयन का अर्थ श्रमिकों के शोषण, प्रकृति के दोहन और लूट की व्यवस्था के संस्थानीकरण को स्वीकृति देना है। हिंसा साम्राज्यवादी ताकतों द्वारा पूरी दुनिया के लोगों में डर पैदा करके उन्हें गुलाम बनाने और खून की होली खेलकर, युद्ध के माध्यम से साम्राज्यवादी व्यवस्था को मजबूत बनाने की स्वीकृति देती है।
अहिंसा के चयन का अर्थ इस बात की मान्यता है कि हर मनुष्य के अंदर एक ही तत्व है। यह इस बात की पुष्टि है कि सबकी भलाई में मेरी भलाई है और जनसेवा ही सच्ची ईश्वर सेवा है। जिसमें दूसरों के अधिकार छीनकर भौतिक सुख के लिये जीने को नकारा गया है। जिसमें किसी भी आधार पर मनुष्य में भेद मंजूर नही हैं। जिसमें खुद को प्रकृति का हिस्सा बनकर जीना और प्रकृति का संरक्षण करना, हर मनुष्य के जीने के अधिकार का सम्मान और शोषण-मुक्त व्यवस्था की रचना निहित है। इसमें पूंजी और राज्य-सत्ता के नियंत्रण और हस्तक्षेप की जगह लोकशक्ति द्वारा समस्याओं के समाधान की स्वीकृति है।
साम्राज्यवाद हिंसा के द्वारा डर पैदा करके शोषण और लूट करता है। वह लिंग, रंग, जाति, धर्म, भाषा, श्रम, अस्मिता के आधार पर बंटे हुये समाज में विद्वेष पैदा करता है और संकुचित राष्ट्रवाद को उकसाकर युद्ध करवाता है। साम्राज्यवाद का आधार हिंसा है। हमें समझना होगा कि हिंसा का जवाब हिंसा से देकर साम्राज्यवाद को परास्त नहीं किया जा सकता। साम्राज्यवाद से मुक्ति अहिंसा से ही संभव है जिसमें प्रतिपक्ष के प्रति विद्वेष, घृणा, वैर के लिये कोई स्थान नहीं है। सबके कल्याण की शुभकामना है, लेकिन शोषण और लूट को समाप्त करने के लिये मर मिटने की प्रतिज्ञा भी है। उसके लिये केवल नीति नहीं, अहिंसा में निष्ठा होनी चाहिये। ऐसे अहिंसा पर निष्ठा रखने वाले भारत के सभी नागरिकों को शांति सेना का निर्माणकर शांति और न्याय के लिये पहल करनी होगी। अहिंसा के रास्ते ही दुनिया में शांति और न्याय संभव है। (सप्रेस) http://www.spsmedia.in