डॉ. पीएस वोहरा
पिछले कुछ सालों के निजाम में हमारे आर्थिक विकास के लिए एक नया शब्द आया है – ‘आत्मनिर्भरता।अब देखना यह होगा कि आत्मनिर्भर भारत के लिए जरूरी रोडमैप के अंतर्गत अर्थव्यवस्था के लिए बनने वाली दूरदर्शी आर्थिक नीतियों में आम आदमी के आर्थिक मूल्यांकन को कितनी जगह मिलती है।‘क्या है यह ‘आत्मनिर्भरता’ और कैसे उसे वापरा जाए?
पिछले कुछ समय से अर्थव्यवस्था को विकास की नई राह पर ले जाने के लिए एकाएक प्रचलन में आया शब्द ‘आत्मनिर्भर’ देश के साथ-साथ एक आम व्यक्ति को भी आर्थिक विकास का एक नया सपना दिखा रहा है। आज भारतीय अर्थव्यवस्था व भारतीय समाज दोनों अपने आर्थिक जीवन के उस मुकाम पर हैं जहां पर विस्तार व संपन्नता के लिए एक नई सोच व सहारे की जरूरत है।
अर्थव्यवस्था का आर्थिक विस्तार दूरदर्शी व सशक्त नीतियां करती है, परंतु इसके लिए स्वच्छ लोकतंत्र व पूर्णतया सक्षम सरकार आवश्यक है। व्यक्ति की आर्थिक संपन्नता के लिए उसका आत्मचिंतन व आत्मविश्वास जरूरी है। आज भारतीय अर्थव्यवस्था व आम भारतीय के आर्थिक विकास को परिपक्वता की जरूरत है जो कि आत्मनिर्भरता के माध्यम से ही संभव है।
90 के आर्थिक सुधारों का असर अब ढलान की तरफ है। उनका आधार ‘आओ हमारा विकास करो’ के सिद्धांत पर आधारित था। जबकि अब ‘अपना विकास स्वयं करें’ का सिद्धांत आत्मनिर्भरता का मौलिक विचार है। उदारीकरण के सुधारों के बाद अर्थव्यवस्था के विकास को वृद्धि मिली तथा आम व्यक्ति की प्रति व्यक्ति आर्थिक आय बढ़ीं। उन सुधारों का परिणाम वर्ष 2000 की शुरुआत से समाज में दिखने लग गया था। परंतु आज दो दशक के बाद उन्हीं सुधारों को और कितना खींचा जा सकता है?
अब भारतीय अर्थव्यवस्था में आत्मनिर्भरता का वो मुकाम होना चाहिए जहां पर निर्यात तुलनात्मक रूप से आयात से ज्यादा हो। प्रति व्यक्ति आय व प्रति व्यक्ति क्रय क्षमता में उत्तरोत्तर वृद्धि हो। करों का संग्रहण राजकोषीय घाटे को खत्म करे। इंफ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट व प्रौद्योगिकी क्षेत्र रोजगारों में वृद्धि के नए आधार बनें। ग्रामीण अर्थव्यवस्था को नया आर्थिक स्थायित्व मिले जो आर्थिक विषमता में कमी लाए। इन सब दूरदर्शिताओं को अगर आत्मनिर्भरता का आउटपुट बनाना है तो जरूरी है कि विनिर्माण क्षेत्र का अंशदान अर्थव्यवस्था में तेजी से बढ़े।
इसके लिए सरकार को उन उद्योगों को विस्तार देना चाहिए जिनकी वैश्विक प्रतिस्पर्धा में लागत तुलनात्मक रूप से कम हो तथा गुणवत्ता एक स्थापित आयाम रखती हो। इससे बेरोजगारी की समस्याओं को आंशिक रूप से दूर किया जा सकता है। सर्विस सेक्टर से संबंधित नीतियों में भी आमूल-चूल परिवर्तन करने होंगे। पिछले तीन दशकों से अर्थव्यवस्था के मुख्य आधार सर्विस सेक्टर को अब अधिक मात्रा में छोटे शहरों व ग्रामीण इलाकों के युवाओं को रोजगारों में प्राथमिकता देनी होगी।
आत्मनिर्भरता के मद्देनजर सर्विस सेक्टर व शिक्षा की नीतियों में गुणवत्ता के मद्देनजर एक सामंजस्य भी स्थापित होना चाहिए। आज किसान के आर्थिक संघर्ष का मुख्य कारण कृषि क्षेत्र में लागत का निरंतर बढ़ना है। ग्रामीण अर्थव्यवस्था की मजबूती के लिए इस चिंतनीय विषय में आत्मनिर्भरता के मद्देनजर एक सूक्ष्म दूरदर्शिता की जरूरत है।
अजब संयोग है कि आत्मनिर्भरता आज अर्थव्यवस्था के साथ-साथ आम आदमी की भी सोच बन गई है। पिछले डेढ़ वर्ष के कठिन आर्थिक समय ने उसे इस बात के आत्मचिंतन की तरफ मोड़ दिया है कि उसके पास सुरक्षित भविष्य के लिए आर्थिक निवेश का होना अत्यंत आवश्यक है। अब वह लगभग इस पशोपेश से बाहर आ गया है कि महंगाई भी कभी नियंत्रित होगी? वो ये भी समझ गया है कि करों का संग्रहण सरकार की प्राथमिकता है, इस कारण पेट्रोल, डीजल व घरेलू रसोई गैस के मूल्य नियंत्रित होने से रहे।
अब आत्मनिर्भरता में नागरिकों का स्वयं का मुख्य एजेंडा बेहतरीन स्वास्थ्य सुविधाएं तथा अपने बच्चों के लिए गुणवत्तापूर्ण शिक्षा है जिन्हें वो अपने आर्थिक निवेश से सुरक्षित करना चाहता है। वो लगातार ये सोच रहा है कि वो अपनी आय का सिर्फ उपभोग क्यों कर रहा है? अब देखना यह होगा कि आत्मनिर्भर भारत के लिए जरूरी रोडमैप के अंतर्गत अर्थव्यवस्था के लिए बनने वाली दूरदर्शी आर्थिक नीतियों में आम आदमी के आर्थिक मूल्यांकन को कितनी जगह मिलती है।(सप्रेस)