बाबा मायाराम

शिक्षा के प्रति सकारात्मक वातावरण बनाने के लिए अरविन्द गुप्ता अपने तई प्रयासरत हैं। वे शिक्षक, इंजीनियर और वैज्ञानिक हैं। सबको पढ़वाने के लिए उनकी वेबसाइट लोकप्रिय है। वे बच्चों, शिक्षकों में उम्मीद जगाते हैं। उनमें उम्मीद के बीज बोते हैं।

विज्ञान और गणित ऐसे विषय हैं, जिनमें बच्चे अक्सर पिछड़ जाते हैं। ऐसे में हमें अरविन्द गुप्ता से मदद मिल सकती है। पिछले चार दशकों से अरविन्द गुप्ता गरीब बच्चों के लिए कबाड़ से खिलौने बनाकर गणित और विज्ञान की शिक्षा देने के लिए जाने जाते हैं। वे अब तक पंद्रह सौ से ज्यादा खिलौने बना चुके हैं, उन्होंने हजारों वीडियो बनाए हैं।

इन मजेदार खिलौने से विज्ञान को लोकप्रिय बनाने के लिए वे 20 देशों के तीन हजार से ज्यादा स्कूलों में कार्यशालाएं कर चुके हैं। अब तक लाखों विद्यार्थी उनके बनाए खिलौनों से लाभांवित हो चुके हैं। यूटूब पर उनके वीडियो सवा पांच करोड़ लोग देख चुके हैं जो एक रिकार्ड है। उनकी वेबसाइड  arvindguptatoys.com से रोज 15 हजार किताबें मुफ्त में डाउनलोड होती हैं।

अरविन्द गुप्ता ने कानपुर आईआईटी से इंजीनियरिंग से बीटेक किया है। शुरू में उन्होंने पुणे में टाटा मोटर्स में काम किया, लेकिन वहां उनका मन नहीं लगा। वे अपने जिंदगी के मायने ढूंढ़ रहे थे।

उस समय चीनी कवि लाओ त्सु की कविता एक नारे की तरह प्रचलन में थी। एक चीनी कवि लाओ त्सु की कविता है, जो 70 के दशक में एक नारा बन गई थी।

लोगों के बीच जाओ और रहो, उनसे प्यार करो और सीखो,

वे जो जानते हैं, वहां से शुरू करो जो उनके पास है उसे ही आगे बढ़ाओ।

अरविन्द गुप्ता भी इससे बहुत प्रभावित थे। कुछ सार्थक करने की तलाश में मध्यप्रदेश में होशंगाबाद जिले के एक गांव में आ पहुंचे, जहां किशोर भारती संस्था स्कूली शिक्षा में विज्ञान शिक्षा पर काम कर रही थी। होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम से जुड़कर उन्होंने छह महीने काम किया।

यही वह मोड़ है, जहां से उनकी जिंदगी की दिशा बदल गई। किशोर भारती के पास 7 किलोमीटर दूर एक छोटा कस्बा बनखेड़ी है। वहां शुक्रवार को साप्ताहिक बाजार लगता है। सड़क के किनारे दुकानें लगती हैं। वहां से वे छोटी-मोटी सस्ती चीजें खरीदते थे और उनसे खिलौने बनाते थे और उसके पीछे के विज्ञान को बच्चों को समझाते थे।

साइकिल के पहिए में लगने वाली वाल्व ट्यूब, माचिस की तीली, कचरे में पड़ा वायर या बोतल, झाडू की सींक जैसे सामानों से वे खिलौने बनाते थे। उन्हें इस काम में टेल्को में ट्रक डिजाइन करने से ज्यादा मजा आया और इससे कई गरीब बच्चों का बचपन खिलौनों से महरूम होने से भी बच गया।

वे कहते हैं कि किसी बात को समझने के लिए पहले बच्चों को अनुभव की जरूरत होती है। अनुभव में चीजों को देखना, सुनना, छूना, चखना, सूंघना आदि कुशलताएं शामिल हैं। वे हमेशा ठोका-पीटी कर-करके कुछ बनाते रहते हैं।

बच्चों में नया कुछ करने की हमेशा चाहत रहती है। वे बताते हैं कि कुछ समय के लिए वे छत्तीसगढ़ में लोहे की खदानों के बीच काम करने वाले मजदूरों के बीच गए थे। वहां लोहा पत्थर ढोने के लिए डम्पर ट्रक चलते थे। वहां के बच्चे दो माचिस की डिब्बियों की मदद से वह डम्पर ट्रक बनाकर खेल रहे थे। उसमें लीवर का काम करने के लिए तीली का इस्तेमाल किया गया था। इसे देखकर अरविन्द जी आश्चर्यचकित हुए और उन्होंने इसे अपनी खिलौनों की सूची में “माचिस का डम्पर ट्रक” शामिल कर लिया।

इन सब प्रयोगों पर आधारित उन्होंने वर्ष 1984 में मैचिस्टिक मॉडल एंड अदर साइंस एक्सपेरीमेंटस बुक लिखी। अब यह किताब 12 भाषाओं में है। इसके बाद उन्होंने 25 किताबें और लिखीं। इसके बाद वे पुणे में आयुका (द इंटर- यूनिवर्सिटी सेंटर फार एस्ट्रोनामी एंज एस्ट्रोफिजिक्स, पुणे) में बाल-विज्ञान केंद्र के को-आर्डिनेटर बने। वहां हर दिन वे नए-नए खिलौने बनाते थे, फिर उनकी वीडियो बनाते थे।

इसके अलावा, दुनिया के अच्छे बाल साहित्य और शिक्षा की किताबों का हिन्दी अनुवाद करके और उनकी पीडीएफ बनाकर अपनी वेबसाइट पर डालते हैं। हर दिन 7 से 8 घंटे यही काम करते हैं। देश के लगभग 7 राज्यों में हिन्दी बोलने वाले 40 करोड़ लोग हैं। फिर भी हिन्दी में शैक्षणिक और बाल साहित्य उतना समृद्ध नहीं है। इस काम को करने में रात दिन जुटे रहते हैं।

अरविन्द गुप्ता कहते हैं कि मेरी जिंदगी का एक ही मकसद है कि मैं न केवल देश बल्कि पूरी दुनिया के बच्चों को किताबें, वीडियो, मेरे बनाए खिलौनों को बनाना सीखने के तरीके मुफ्त में उपलब्ध कर सकूं, ताकि ज्ञान पाने के रास्ते में गरीबी या संसाधनों की कमी आड़े न आए, अभी वेबसाइट पर साढ़े हजार किताबें भारतीय भाषाओं में उपलब्ध हैं। वे अब तक 220 किताबों का अनुवाद कर चुके हैं।

उनकी चिंता है कि हमारे देश में बल्कि दुनिया के कई देशों में गरीबी के चलते बच्चे खिलौने खरीद नहीं सकते। जब वे कचरे या बेकार सामान से अपने खिलौने खुद बनाकर खेलते हैं, तो इससे उन्हें बेहद खुशी होती है। भारत में खिलौने बनाने की एक परंपरा पुरानी रही है। परंपरागत खिलौने फेंकी हुई वस्तुओं को दुबारा इस्तेमाल करके बनते हैं, इसलिए वे सस्ते और पर्यावरण मित्र होते हैं। इस प्राचीन परंपरा के बारे में वे बुद्ध की कहानी सुनाते हैं।

एक दिन बुद्ध अपने मठ में मठवासियों के साथ बैठे बात कर रहे थे।

तभी एक भिक्षु ने नए अंगरखे के लिए इच्छा जताई। बुद्ध ने पूछा। तुम्हारे पुराने अंगरखे का क्या हुआ?

“वह बहुत फटा पुराना हो गया है। इसलिए मैं उसे अब चादर के रूप में इस्तेमाल कर रहा हूं।”

 बुद्ध ने फिर पूछा-पर तुम्हारी पुरानी चादर का क्या हुआ?

 “गुरूजी, वह चादर पुरानी हो गई थी, वह इधर-उधर से फट गई थी, इसलिए मैंने उसे फाड़कर तकिया का खोल बना लिया।” भिक्षु ने कहा।

बेशक तुमने तकिया का नया खोल बना लिया, लेकिन तुम ने तकिया के पुराने खोल का क्या किया? बुद्ध ने पूछा-

“गुरूजी, तकिये का गिलाफ सर घिस-घिस कर फट गया था और उसमें एक बड़ा छेद हो गया था। इसलिए मैंने पायदान बना लिया।”

बुद्ध हर चीज की गहराई से तहकीकात करते थे। उस जवाब से भी वे संतुष्ट नहीं हुए।

“गुरूजी, पायेदान भी पैर रगड़ते-रगड़ते फट गया। एकदम तार-तार हो गया। तब मैंने उसके रेशे इकट्ठे करके उनकी एक बाती बनाई। फिर उस बाती को तेल के दीये में डाल कर जलाया।”

भिक्षु की बात सुन कर बुद्ध मुस्कराए। फिर उस सुपात्र को बुद्ध ने एक नया गरम अंगरखा दिया।

यह कहानी आज भी प्रासंगिक है। क्योंकि उपभोक्तावादी संस्कृति इस्तेमाल करो और फेंको (यूज-एंड-थ्रो) की संस्कृति को बढ़ावा देती है। जिससे चीजों के प्रति अथाह चाह जगती है और पैसों की और जीवन के बहुमूल्य समय की बर्बादी होती है। और जीवन में सार्थक करने की बजाय चीजों को बटोरने में जिंदगियां लग जाती हैं।

अरविन्द गुप्ता अब शिक्षक हैं, इंजीनियर हैं, वैज्ञानिक हैं, खिलौने बनाते हैं और किताबों से बहुत प्रेम करते हैं। खुद पढ़ते हैं और अनुवाद करते हैं। सबको पढ़वाने के लिए उनकी वेबसाइट पर मुफ्त उपलब्ध करवाते हैं। वे बच्चों की उम्मीद हैं। बच्चों में भी उम्मीद जगाते हैं, उनमें उम्मीद के बीज बोते हैं। (सप्रेस)

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बाबा मायाराम
स्वतंत्र लेखक व शोधकर्ता हैं। लोकनीति नेटवर्क के सदस्य हैं। पिछले दो दशक से पत्रकारिता से जुड़े हुए हैं और इस दौरान वे मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में कई समाचार पत्र-पत्रिकाओं से संबद्ध रहे। 2004 से 2006 दो वर्ष लोकनीति, सीएसडीएस में सहायक संपादक के पद पर कार्य किया। वर्ष 1999 से 2001 तक झुग्गी बस्तियों की समस्याओं पर हाशिये पर नामक पत्रिका के संपादक के रूप में काम किया। उन्होंने मासिक पत्रिका सामयिक वार्ता में संपादन सहयोग किया।

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