देश के ‘प्रीमियम’ शिक्षण संस्थानों में भांति-भांति के दबावों के चलते होने वाली आत्महत्याएं और इनमें भी दलितों, आदिवासियों, पिछडों और अल्पसंख्यकों की बहुतायत हमारी शिक्षा-पद्धति से लगाकर सामाजिक ताने-बाने तक पर गंभीर सवाल खडे कर रही हैं। क्या हैं, इसके तर्क-वितर्क? प्रस्तुत है, इसी की पडताल करता मीनाक्षी नटराजन का लेख।
आईआईटी-मुंबई (इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टैक्नॉलॉजी) में उन्नीस वर्षीय दर्शन सोलंकी की आत्महत्या से हुई असमय मृत्यु से मन उबरा भी नहीं था कि आईआईटी-चेन्नई की घटना सामने आ गई, जहां एक चौबीस वर्षीय छात्र ने खुदकुशी का निर्णय ले लिया। सरकारी आंकड़ों के अनुसार आईआईटी, आईआईएम (इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मैंनेजमेंट) समेत देश के उच्चतम शैक्षणिक संस्थानों में 2014 से 21 के बीच 122 आत्महत्या के मामले सामने आये हैं। इनमें से 71 मामले दलित, आदिवासी, पिछड़ा वर्ग और अल्पसंख्यक समुदाय के हैं, जिनमें आईआईटी में हुई खुदकुशी के मामलों में 18 दलित एवं पिछड़े वर्ग के छात्र थे।
‘हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय’ के छात्र रोहित वेमूला के प्रसंग ने पूरे देश को झकझोर दिया था। सामाजिक बहिष्कार, ‘कोटा’ जैसी संज्ञा का उपयोगकर दलित, आदिवासी छात्रों पर तंज कसना परिसर में आम है। इससे उपजी कुंठा, हीन-भावना, शैक्षणिक उत्कृष्टता के दबाव पर भारी पड़ जाती है। जब भी सामाजिक न्याय का सवाल खड़ा किया जाता है, उत्कृष्टता का तर्क आगे किया जाता है। यह सामूहिक सामाजिक समझ में प्रभुत्व संपन्न वर्ग के कथानक का प्रमुख हिस्सा है।
यह स्थापित किया गया है कि जातिगत आरक्षण ने उत्कृष्टता को नष्ट किया है। आरक्षित वर्ग का बराबरी पर आना रास नहीं आता। यह भी जोर देकर कहा जाता है कि योग्यता को हाशिये पर धकेलने से ही हम विकास से वंचित हैं। जब संविधान में समानता का जिक्र है, तो कुछ वर्गों को विशेष महत्व क्यों दिया जाये? जाहिर है कि यह सोच पूर्वाग्रह से ग्रसित है, जो सच का सामना ही नहीं करना चाहती।
सरकारी एजेंसियों द्वारा प्रकाशित आंकड़ों पर ही दृष्टि डालें, तो सामाजिक विषमता से साक्षात्कार होता है। 2014 में आदिवासियों की औसत उम्र 43 वर्ष, अनुसूचित जाति की 48 वर्ष, मुसलमान ओबीसी की 50 वर्ष और हिंदू ओबीसी की 52 वर्ष थी, जबकि इसी वर्ष कथित ऊँची जाति के लोगों (हिंदू व अन्य गैर-मुसलमान) की औसत उम्र 60 वर्ष थी। दलित, आदिवासी एवं पिछड़े वर्ग में पांच साल से कम उम्र के बच्चों की मृत्युदर राष्ट्रीय दर से अधिक है। 56 प्रतिशत दलित महिलाओें में खून की कमी देखी गई है, जबकि प्रभुत्व संपन्न महिलाओं में यह 47.6 प्रतिशत है। स्वास्थ्य परीक्षण के दौरान 94 प्रतिशत दलित बच्चे छुआ-छूत का सामना करते हैं। स्वास्थ्य-कर्मियों के हाथों दलित परिवार 93 प्रतिशत भेदभाव का सामना करता है तो 59 प्रतिशत भेद का सामना चिकित्सकों के हाथों होता है। करीबन 33 प्रतिशत स्वास्थ्य-कर्मी दलित घरों में जाते ही नहीं हैं।
शिक्षा और रोजगार के आंकडे भी ऐसे ही है। देश में 73 प्रतिशत साक्षरता की दर है तो दलित-वर्ग में यह 66 प्रतिशत है। दलित समुदाय में 6-17 साल के बीच 22.8 प्रतिशत बच्चों का स्कूल छूट जाता है। 37.8 प्रतिशत ग्रामीण इलाकों के स्कूल में दलित बच्चों को अलग बैठाया जाता है। दलितों में युवा बेरोजगारी की दर करीब 7.3 प्रतिशत है। करीब 60 प्रतिशत दलित परिवार भूमिहीन हैं। अनुबंध और ठेका पद्धति ने सरकारी नौकरी से दलित समुदाय को वंचित किया है।
निजी क्षेत्र में उन्हें भंयकर भेद का सामना करना पड़ता है। देश के सबसे शीर्ष 1000 उद्योगों में दलित आदिवासी वर्ग के 3.5 प्रतिशत लोग ही प्रबंधकीय व्यवस्था में स्थान पाते हैं। आईआईएम-अहमदाबाद के 2006 के एमबीए छात्रों के अध्ययन के अनुसार उद्योगों में दलित आदिवासी समुदाय के चयनित प्रबंधकों को 19 प्रतिशत कम वेतन दिया जाता है। कई बार उन्हें शारीरिक रुप से कथित तौर पर ‘सौम्य’ न होने के लिए चयनित नहीं किया जाता। परिणामतः देश की ‘राष्ट्रीय औसत घरेलू आय’ से भी अधिक प्रभुत्व संपन्न वर्ग पाता है।
जब आर्थिक आधार पर आरक्षण की मांग होती है तो क्या इन तथ्यों को नजर अंदाज किया जाना चाहिए? आज भी बंधुआ मजदूरी के लिए मजबूरजनों में 90 प्रतिशत दलित आदिवासी हैं। 58,098 हाथ से मैला उठाने वाले सफाई कामगारों में से 42,594 दलित हैं। इनमें से राजधानी के मैनहोल में काम करते हुए कई हमेशा के लिए खामोश हो जाते हैं।
ऐसे में जब संविधान का हवाला दिया जाता है तो याद रखना चाहिए कि उसमें अवसर और प्रतिष्ठा की समानता का जिक्र है। उसे प्रस्तावना और मौलिक अधिकारों में शामिल किया गया है। सदियों से बहिष्कृत, भेदभाव से जूझते समाज को समान धरातल पर लाने के लिए हजारों साल से चली आ रही विषमता की खाई को पहले पाटना पडेगा। तब ही समता का माहौल बन सकता है।
अक्सर देखने में आता है कि प्रभुत्व संपन्न वर्ग दलित-बहिष्कृत समाज की हकीकत से ना-वाकिफ भी होता है और संवेदन-शून्य भी। वे ही परीक्षा में पर्चे तैयार करते हैं, क्योंकि अधिकांश अध्यापक प्रभुत्व संपन्न वर्ग से हैं। चूंकि प्रभुत्व संपन्न समाज के बच्चों की परवरिश में खुद को उत्कृष्ट, योग्य तथा दलितों के अयोग्य होने का बोध रहता है इसलिए उनके बनाये प्रश्नपत्र में समता के लिए स्थान नहीं होता। शैक्षणिक परिसर में विषमता को काटने का प्रयास नहीं होता, खासकर जैसे-जैसे निजी शिक्षण संस्थान बढ़े हैं, वैसे-वैसे समावेशी माहौल सिकुड़ता जा रहा है। प्रभुत्व संपन्न वर्ग का सामना दलित या आदिवासी समुदाय के बच्चों से होता ही नहीं है। ऐसे में उच्च शैक्षणिक परिसर में वे अपने-अपने पूर्वाग्रहों के साथ आते हैं।
इस भयावह विषमता को और बल तब मिलता है, जब टीवी, फिल्म आदि में इसे पुष्ट किया जाता है। हाल में ही ‘शहजादा’ फिल्म में खल-चरित्र के बतौर ‘वाल्मीकि’ नाम के किरदार को दिखाया गया है, जबकि फिल्म निर्माता इस नाम से जुड़े सफाई कामगारी के पेशे और उनकी वर्ण व्यवस्था की स्थिति से अनभिज्ञ नहीं होंगे। यदि हैं तो वह और भी संवेदनहीनता है। फिल्म में यह बताने की कोशिश हुई है कि कैसे प्रभुत्व संपन्न वर्ग का बालक ‘वाल्मीकि’ के पास पलने पर भी नायक होने के गुण रखता है। तो क्या यह संस्कारों को वर्ण और गुणधर्म से जोड़ने की अवैज्ञानिक, फूहड़ कोशिश है?
वाल्मीकि महान् संत भी रहे, ऐसी मान्यता है। एक वर्ग उन्हें ही रामायण का रचयिता और समकालीन मानता है। वहीं, दूसरे वर्ग को यह मंजूर नहीं। वो मानता है कि वाल्मीकि नाम के दो अलग व्यक्ति रहे होंगे, यानि दलित का रचनाकार होना प्रभुत्व संपन्नता को रास नहीं आता। बहरहाल ढ़ाई हजार साल पहले झाडू बुहारने वाले सुनीत का थेरगा थागान याद आया। जहां वो कहता है कि सबकी घृणा झेलता रहा, मगर उसे तथागत शाक्यमुनि ने गले से लगाया। सुनीत मुक्त हुआ। रोहित, दर्शन, सन्नी कब मुक्त होंगे? संविधान आधारित भारत निर्माण ही एकमात्र रास्ता है। (सप्रेस)
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