कस्बाई और ग्रामीण इलाकों के स्कूलों में भाषा, खासकर मीडियम यानि माध्यम की भाषा का सवाल अक्सर बेचैन करता है। विज्ञान समेत ऊंचे दर्जे की कक्षाओं के अनेक विषय अंग्रेजी में होते हैं, लेकिन उन्हें सीखने-समझने की बच्चों की तैयारी अपनी-अपनी मातृभाषाओं या स्थानीय बोलियों की होती है। महाराष्ट्र के स्कूलों ने ‘सेमी-इंग्लिश’ यानि ‘अर्ध-अंग्रेजी’ की मार्फत इस कठिनाई का एक बेहतरीन तोड निकाला है। क्या है, यह तरीका?
कुछ दिन पहले अपने शहर देवास (मध्यप्रदेश) के एक छोटे ‘प्राइवेट स्कूल’ में जाने का मौका मिला। चर्चाओं के दौरान संस्थापक ने बताया कि यह प्राइवेट स्कूल सन 1994 में शुरू किया गया था और उस समय यह हिन्दी माध्यम का स्कूल था। दस-बारह वर्ष बाद छात्रों कि संख्या घटकर ढाई सौ से एक सौ तक आ गई। ऐसे में हमने स्कूल को इंग्लिश माध्यम का बना दिया और नतीजे में स्कूल में विद्यार्थियों की संख्या फिर से बढ़ने लगी।
इसी स्कूल के नर्सरी और पहली कक्षा को देखा तो समझ में आया कि बच्चों के पास अंग्रेज़ी माध्यम की किताबें थीं, जिसे वे समझ के साथ पढने में सक्षम नहीं थे। इस परिस्थिति में शिक्षक यही कर सकते हैं कि कुछ शब्दों को चिन्हित करके उन्हें रटवाया जाए। बड़ी कक्षाओं में वे विद्यार्थियों को हिन्दी में समझाते हैं और किताब में कोष्टक लगाकर याद करने को कहा जाता है। संस्थापक ने कहा कि अंग्रेज़ी माध्यम वाली किताबें रखना ज़रूरी है, नहीं तो लोग अपने बच्चों को अन्य स्कूलों में भेज देंगे। ‘जब बाज़ार ने बड़े-बड़े हिन्दी माध्यम के स्कूलों को इंग्लिश मीडियम में बदलने को मज़बूर कर दिया है, तो फिर हम किस खेत की मूली हैं?,’ उन्होंने समझाया।
शिक्षक, जिनकी अंग्रेजी ज्यादा अच्छी नहीं है, मज़बूर महसूस करते हैं। बच्चों को अर्थहीन तरीके से याद करवाना कक्षा का मुख्य उद्देश्य बन जाता है। सभी पालक चाहते हैं कि उनके बच्चे अंग्रेज़ी सीख जाएँ। बाज़ार इस भ्रम पर जीवित है कि अंग्रेज़ी माध्यम की किताबें लागू करने से बच्चे संघर्ष करते हुए अंग्रेज़ी सीख लेंगे। शिक्षक समझ तो रहे हैं कि यह तरीका उचित नहीं है, पर मज़बूरी के दुष्चक्र में फंसे हुए हैं। हमें यह सोचना होगा कि इस दशा में क्या कोई अजमाया हुआ अन्य रास्ता भी है?
हम महाराष्ट्र के सरकारी-अनुदान प्राप्त सेमी-इंग्लिश मीडियम स्कूलों से क्या सीख सकते हैं? महाराष्ट्र में कई स्कूलों में तीन दशकों से सेमी-इंग्लिश मीडियम स्कूलों की परिपाटी चली आ रही है। हालांकि शुरुआत में ये स्कूल थे तो मराठी माध्यम के, परंतु माध्यमिक कक्षाओं में विज्ञान और गणित के लिए अंग्रेज़ी पाठ्य-पुस्तकों का उपयोग करना आरंभ कर देते थे। शुरुआत में यह परिपाटी, शहरी व तालुका के कस्बाई स्कूलों द्वारा अपनाई गई। इन स्कूलों को सरकारी अनुदान प्राप्त था और ये स्थानीय ट्रस्ट द्वारा संचालित किए जाते थे। वर्ष 2005 में राज्य ने कुछ सरकारी स्कूलों को अर्ध-अंग्रेज़ी यानी सेमी–इंग्लिश नीति अपनाने की अनुमति दी। आज यह चलन सरकारी ग्रामीण स्कूलों द्वारा भी अपनाया जा रहा है।
महाराष्ट्र के एक दूरस्थ तालुका की कल्पना करें, जहाँ न तो अभिभावक अंग्रेज़ी पृष्ठभूमि के थे और न अंग्रेज़ी किताबों से उनका कोई परिचय था। यहाँ के परिवेश में अंग्रेज़ी पुस्तकें या अन्य छपी सामग्री उपलब्ध नहीं है। सेमी-इंग्लिश माध्यम के सरकारी-अनुदान प्राप्त स्कूलों में विज्ञान और गणित की पाठ्य-पुस्तकें अंग्रेज़ी में होती हैं और बाकी विषय की पाठ्य-पुस्तकें मराठी में। अंग्रेज़ी एक अलग विषय के रूप में भी पढ़ाई जाती है। इन बच्चों का प्राथमिक शिक्षण मराठी में होता है, जो कि उनकी घर की या क्षेत्रीय भाषा है।
महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि कक्षा में मराठी का उपयोग किया जाता है – चाहे कोई विषय समझाना हो, सवाल पूछना हो या बातचीत करना हो। शिक्षक पाठ्य-पुस्तक पढते तो अंग्रेज़ी में हैं, पर बच्चों को समझाते मराठी में हैं। एक द्वि-भाषी सांस्कृतिक प्रक्रिया सब दूर स्वीकारी जाती है। जब बच्चे अंग्रेज़ी पाठ्य-पुस्तकों को पढ़ने का प्रयास करते हैं तो वे अंग्रेज़ी शब्दावली से परिचित हो पाते हैं और उनका अर्थ मराठी में समझते व सोचते हैं।
ऐसे स्कूलों के कुछ पूर्व-छात्रों से बात करके यह कहा जा सकता है कि इन पाठ्य-पुस्तकों को पढ़ना उनके लिए आसान नहीं था। वे न केवल कठिन शब्दों के अर्थों को लिखने और शब्दावली को याद करने से जूझा करते थे, बल्कि उनमें प्रश्नों का जवाब अंग्रेज़ी में देने का खौफ बना रहता था। पाठ्य-पुस्तकों से जूझना उनके लिए ज़रूरी था। शिक्षकों के प्रयास द्वारा वे धीरे-धीरे इस नई भाषा से परिचित होते चले गए। उनमें विज्ञान या गणित की परिचित पुस्तक को पढ़ने में तेज़ी से बढ़ोतरी हुई है।
तीन से चार वर्षों के दौरान वे आत्मविश्वास से यह सांस्कृतिक बाधा को पार कर पाए कि वे अंग्रेज़ी में उच्च-शिक्षण ले पाएँगे। इस दौरान वे सहपाठियों और शिक्षकों के साथ तकनीकी बातचीत मराठी में करने के परिवेश को संजोते रहे। जो अंग्रेज़ी उन्होंने सीखी वह धारा-प्रवाह तो नहीं थी, परंतु उससे संसार का सामना करने का विश्वास जरूर बना। सबसे अहम बात यह रही कि वे मराठी को मूल भाषा के रूप में उपयोग करने की ताकत का फायदा लेते रहे। मराठी के लिए उनका आदर वास्तविक और गहरा था और आज भी बना हुआ है। उन्होंने भाषा-विदों द्वारा सुझाए वे तरीके साबित किए जिनके मुताबिक जब अर्थपूर्ण संदर्भ बन जाते हैं तो बच्चे मूल-भाषा के सहारे अन्य भाषा आसानी से सीख लेते हैं। घर या क्षेत्रीय भाषा में अर्थपूर्ण धारा प्रवाहित होते रहने से दूसरी भाषा सीखने में मदद मिलती है और यह हमारा मस्तिष्क अपने आप करता है।
इस प्रक्रिया के साथ-साथ घर और क्षेत्रीय भाषा के लिए आदर बढ़ जाता है। बहुभाषी शिक्षा को समर्थन देना समाज के लिए बेहतर है। यह किसी प्रकार से भी विद्यार्थी की आकांक्षाओं को बाधित नहीं करता और वे अंग्रेज़ी में उच्च-शिक्षा हासिल कर पाते हैं।
यह समय है कि हम शालाओं में अंग्रजी का माहौल बनाएँ, ताकि बच्चों को सहज रूप से घुलने—मिलने का मौका मिले। मानकर चलें कि समाज में अंग्रेज़ी का माहौल नहीं है। हमें कविता—कहानी के पोस्टर, नोटिस एवं सूचनाएँ और किताबों से यह माहौल बनाना होगा। अंग्रेज़ी को माध्यम बनाए बिना उससे परिचय करवाना होगा। सभी जगह बातचीत का माहौल, कक्षा और उसके बाहर हिन्दी में होना चाहिए, ताकि अर्थपूर्ण संदर्भ बने।
जब बच्चे सहज रूप से अंग्रेज़ी को आत्मसात करने लगें और क्षेत्र की मूलभाषा, हिन्दी की पकड़ मज़बूत हो जाए, तब कक्षा 4 या 5 तक क्रमबद्ध तरीके से अंग्रेज़ी शुरू करें। शिक्षकों को बिना कोसे, ईमानदारी से अंग्रेज़ी सीखने का मौका मिले। इस प्रक्रिया से लोगों में विश्वास बनाना होगा कि अंग्रजी सीखने के लिए हमारे स्कूल में कारगर रास्ता है, तभी आप बाज़ार के इंग्लिश माध्यम का विकल्प प्रस्तुत कर सकते हैं। (सप्रेस)
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