चैतन्य नागर

कहा जाता है कि इंसान की बुनियादी फितरत में आहार, निद्रा, क्रोध, भय और मैथुन शामिल हैं। इनमें से भय हमारे जीवन के सर्वाधिक करीब है। क्‍या होता है, भय? उसके क्‍या प्रभाव होते हैं? हमारे मन में भय क्‍यों, कैसे पैदा होता है?

भय को लेकर हाल ही में कुछ लोगों के साथ दिलचस्प बातें हुईं। उनमें बच्चे भी थे और बड़े भी। बारहवीं कक्षा में पढने वाली एक छात्रा ने कहा : “मुझे अपनी उम्र के लोगों के साथ रहना अच्छा ही नहीं लगता, क्योंकि मेरा अनुभव तो यही है कि मेरे दोस्त मुझे छोड़ देंगे और ऐसा मेरे साथ इतनी बार हो चुका है कि मैं अब अपनी उम्र या अपने से छोटे बच्चों के साथ रहने से डरती हूँ। अपनी उम्र से बड़े लोगों के साथ रहने में मैं सुरक्षित महसूस करती हूँ, ऐसा लगता है जैसे वे मुझे कभी छोड़ कर नहीं जायेंगें।” आठवीं में पढ़ रहे एक बच्चे का अपना ही अनूठा अनुभव था। उसने कहा कि उसे ‘ट्रिपोफोबिया’ है। इस शब्द से मैं परिचित नहीं था, तो उसने स्पष्ट किया कि उसे ऐसी चीज़ें भयभीत करती हैं जो खुरदुरी हों और जिनमें छोटे-छोटे छिद्र हों। अधेड़ आयु की एक स्कूल शिक्षिका को अपने फ्लैट में ‘भूतों’ का इतना अधिक भय लगा कि अपने माता-पिता से उपहार में मिले घर को उसने आनन-फानन में बहुत सस्ते दाम पर बेच डाला। इन दिनों मनुष्य की सामूहिक चेतना में यदि कोई भय सबसे अधिक गहरा धंसा हुआ है तो वह है मृत्यु का भय। अंग्रेजी में इसके लिए एक शब्द भी है, ‘थैनेटोफोबिया। ‘थैनेटोस’ यूनानी मिथकों में मृत्यु के देवता हैं।

भय की अपनी ही भाषा होती है। अपना एक विशेष स्वाद और रंग। भय में डूबे मन में सहसा अँधेरा छा जाता है और उसे कुछ भी नहीं सूझता। यह पंगु बना देता है। अँधेरे कमरे का भय, अकेले होने का भय, बीमार पड़ने का भय, इम्तहान में असफल हो जाने का भय—न जाने कितनी तरह के भय हैं। गौरतलब है कि ये सिर्फ नाम नहीं, इनसे लोग वास्तव में गुज़रते हैं और इनकी भयावहता का पूरा अनुभव करते हैं। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि सात साल की उम्र तक बच्चे का मस्तिष्क पूरी तरह विकसित हो जाता है, उतना ही जितना कि किसी वयस्क का मस्तिष्क। पर सात साल की उम्र तक अपने विकसित होते मस्तिष्क में एक बच्चा अजीबो-गरीब भयों का अनुभव करता है। ज़रा हम अपने बचपन के मनोभावों में फिर से लौटने की कोशिश करें। तार पर टंगे कपड़ों के उड़ने का भय, आंधी में तेजी से हिलते पेड़ों का भय, किसी ऊंची बालकनी के किनारे तक जाने का भय, छत से पंखे के टूट कर गिर जाने का भय और न जाने कैसे-कैसे भय!

भय के साथ ही कई मनो-दैहिक, भावनात्मक प्रतिक्रियाएं भी चलती हैं। क्रोध और हिंसा भी भय का ही हिस्सा हैं। भयभीत इंसान को बहुत गुस्सा आ सकता है और वह इस गुस्से को बड़े हिंसात्मक तरीके से व्यक्त कर सकता है। भय के पीछे असुरक्षा का भाव भी प्रबल तरीके से काम करता है। असुरक्षा, भय और आक्रामकता का गहरा सम्बन्ध है। गौर करने पर दिखेगा कि क्रोध, हिंसा, असुरक्षा, खुद के प्रति गहरी आसक्ति — ये सभी भय के वृक्ष पर लगी अलग-अलग शाखाएं ही हैं।

गीता के प्रथम अध्याय या ‘विषाद योग’ में युद्ध से ठीक पहले अर्जुन के माध्यम से भयभीत होने की दशा का सटीक वर्णन मिलता है। जब वह अपने सगे-सम्बन्धियों को ही कुरुक्षेत्र के मैदान में देखता है तो अचानक उसका मन भय की गिरफ्त में आता है और वह कहता है कि उसके दांत कटकटा रहे हैं, मुंह सूख रहा है, शरीर काँप रहा है और रोंगटे खड़े हो गए हैं। वह कहता है कि उसका धनुष ‘गांडीव’ उसके हाथ से फिसला जा रहा है और त्वचा जल-सी रही है। वह खड़ा तक नहीं रह पा रहा और उसका मन भ्रमित हुआ जा रहा है। अर्जुन की इस दशा में भय के कई मनो-दैहिक लक्षण व्यक्त होते दिखते हैं। भय चाहे किसी भी और परिस्थिति में पैदा हो, उसके लक्षणों में ये सभी अक्सर शामिल रहते हैं।

स्कूल के छोटे बच्चों को पढ़ाई और शिक्षक को लेकर कभी इतना अधिक भय हो जाता है कि उसके कारण सांस लेने में भी दिक्कत आने लगती है। जब कोई अनुभवी चिकित्सक यह बताता है कि ऐसा सिर्फ भय की वजह से हो रहा है तो माता-पिता के साथ-साथ बच्चे को भी ताज्जुब होता है। इम्तहान के दिन या पर्चा मिलने से ठीक पहले आँखों के आगे अँधेरा छाने लगता है और मस्तिष्क सुन्न-सा होने लगता है। वयस्कों में भी कभी किसी इंटरव्यू से ठीक पहले, बॉस के कमरे में बुलाये जाते वक़्त या फिर बेहतर प्रदर्शन न कर पाने का और जीवन में असफल होने का गहरा भय हो सकता है। युवाओं में अस्वीकार किये जाने का गहरा भय होता है। इसलिए जब उन्हें कोई अपना लेता है तो उसके प्रति गहरी आसक्ति हो जाती है।

बहुत ताकतवर दिखने वाले तानाशाह भी अपनी सत्ता को खोने की कल्पना से भयभीत रहते हैं, और उसे बचाने के लिए इसीलिए तरह-तरह की तिकड़मों में लगे रहते हैं। ‘आर्म्स एंड द मैन’ नाम के अपने मशहूर नाटक में जॉर्ज बर्नार्ड शॉ सैनिकों के भय के बारे में बड़े ही दिलचस्प तरीके से बताते हैं। आमतौर पर हम यह मानते हैं कि फौजियों में बड़ा साहस होता है और वे मृत्यु से भी नहीं डरते। शॉ युद्ध को एक ‘रोमांटिक भ्रम’ बताते हैं और सैन्य कला को कायरता का ही पर्याय मानते हैं। महात्मा गांधी ने कहा था कि कायरता और हिंसा के बीच चयन का अवसर आया, तो वे हिंसा को चुन लेंगे। पर यह देखने और स्वीकार करने में भी बहुत साहस की जरूरत है कि स्वयं के भीतर कायरता है। खुद को साहसी दिखाने और साबित कर देने से अधिक साहस है, अपनी कायरता की आँखों-में-ऑंखें डालकर देखने में। सच्चाई तो यह है कि कायरता के कारणों को भली-भांति समझे बगैर कोई सही अर्थ में साहसी नहीं हो सकता।   

आज के वातावरण में जब एक महामारी से होने वाली मृत्यु की आशंका ने समूची मानव चेतना को अपनी गिरफ्त में ले लिया है, मृत्यु के भय को भी थोड़ा खंगाला जाना चाहिए। इसे कई लोग महसूस कर रहे हैं, पर हर प्रकार के भय की तरह इसे भी व्यक्त करना नहीं चाहते। वयस्क सोचते हैं कि इससे बच्चों पर बुरा असर पड़ेगा और बच्चे भी चुप लगा जाते हैं। एक तरह का वर्जित भाव होने की वजह से यह भय भीतर के किसी अँधेरे बंद कमरे में पड़ा रहता है। भय मन-मस्तिष्क पर भले ही छाया रहे, दिखना नहीं चाहिए, शब्दों में व्यक्त नहीं होना चाहिए। भयभीत व्यक्ति को कमज़ोर कहा जाता है, पर हकीकत यह है कि सभी डरते हैं, बस कुछ लोग इसे छिपाने में सफल हो जाते हैं। मजबूत और साहसी बनने का पाठ इतनी बार पढाया जाता है कि भयभीत होने में भी भय और अपराध-बोध लगता है।    

दरअसल मृत्यु के भय को हमने जीवन से बहुत दूर ही रखा है। जैसे त्यौहार और जश्न जीवन का हिस्सा हैं ठीक वैसे ही मृत्यु भी। बच्चे इस बारे में जिज्ञासु जरुर होते हैं, पर उनकी जिज्ञासा को एक तरफ कर देते हैं, उन्हें डांट-डपट कर चुप करवा देते हैं। बच्चों को चुप कराने के लिए भी हम भय का इस्तेमाल करते आये हैं। वयस्कों के लिए जरुरी है कि पहले तो वे अपने भयों को समझें और फिर साथ-ही-साथ बच्चों को भी उनके भय की व्यर्थता दिखाएँ। पर हममें से कितने हैं जो अपनी भावनात्मक संरचना को समझना चाहते हैं?

मृत्यु के भय को गौर से देखें तो समझ आएगा कि यह हमेशा किसी-न-किसी चीज़ के साथ सम्बंधित होता है। वह अकेला खड़ा नहीं हो सकता। वास्तव में मृत्यु का भय उन चीज़ों के खोने का भय है जो ज्ञात हैं। मसलन अपना सामान, अपने नाते-रिश्तेदार, अपना सम्मान, अपना नाम, अपनी देह वगैरह। ये सभी ज्ञात क्षेत्र की चीज़ें हैं। इन भयों को हम मृत्यु का भय कह देते हैं, पर वास्तव में यह देखे गए और जिए गए जीवन के खोने का भय होता है। यदि इस भय की गिरफ्त थोड़ी कम करनी हो तो इसकी आँखों में झाँक कर देखना ही पड़ेगा, इसे निहारना पड़ेगा, इसके पूरे कारोबार को समझना होगा। इससे भागने पर यह ज्यादा भयावह लगता है। मृत्यु की वास्तविकता से कहीं ज्यादा उसकी कल्पना भयभीत करती है। (सप्रेस)

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