खेती के जिस व्यवसाय में देश की तीन चौथाई आबादी लगी हो उसका हाल में जारी ‘राष्ट्रीय शिक्षा नीति’ में अपेक्षित जिक्र भी न होना विचित्र है। क्या भूख, उत्पादन और ‘जीडीपी’ जनित अर्थव्यवस्था को साधे रखने तथा सर्वाधिक रोजगार देने वाली खेती शिक्षा सरीखे बुनियादी विषय में कोई अहमियत नहीं रखती?
खुशहाल किसान की छवि में हम सर पर साफा बांधे, हाथों में हंसिया लिये, कानों में बाली पहने, मूछों पर ताव देते पुरुष को लहलहाते खेतों की तरफ देखते हुए कल्पित करते हैं। फ़िल्मी संकल्पना में भी खेत और किसान की खुशहाली सरसों के खेतों और बैसाखी के मेलों से ही की जाती है। अख़बार पढ़ते हैं तो ऐसा लगता है जैसे किसान बीसवीं सदी का वही मजबूर नायक है जो सूदखोरों, बिचौलियों और बाढ़ – सूखे से त्रस्त है। इसी नायक की बढ़ती आत्महत्याओं की दर हमें यह सोचने का सहस ही नहीं देती कि कृषि बतौर पेशा या करियर 21वीं सदी के युवा का भी चयन हो सकता है।
आधुनिक किसान की प्रतिछवि में अभी भी एक ठेठ-सा गंवईपन देखने के हम आदी है। ऐसे में पढ़-लिखकर खेती करना ऐसा लगता है कि डिग्रियों को जोत दिया गया है। यह बात इस सर्वेक्षण के सहारे भी पुष्ट होती है कि कृषि विश्वविद्यालयों में पढ़ने के लिए आने वाले 52 प्रतिशत छात्र ग्रामीण पृष्ठभूमि से होते हैं। जिस देश की 80 प्रतिशत आबादी अभी भी कृषि या उससे जुड़े व्यवसायों से जीवन-यापन करती हो, उस देश की ‘राष्ट्रीय शिक्षा नीति’ में इस पर एक पूरे अध्याय की उम्मीद की जाती है, पर शिक्षा शायद अभी भी उस औपनिवेशिक मनोदशा से नहीं उभर पायी है जिसका उद्देश्य ही पढ़-लिखकर ‘बाबू’ बनना है। कौशल-परक शिक्षा में भी ‘खेती’ बतौर कौशल शायद ही स्थान पाये, क्योंकि ‘कुशल’ होने का सम्बन्ध एक निश्चित और मानकीकृत उत्पादन की क्षमता से ही होगा और भारतीय कृषि मंत्री जब यह बयान देते हो कि भारत में असल कृषि मंत्री तो ‘मानसून’ होता है तो खेती ‘कौशल’ कैसे बनेगी!
जमीन के मालिकाने, रैय्यतवाड़ी, बीज, सिंचाई, कटाई के संघर्षों के बाद फसल का सुरक्षित मंडी पहुंचना और उसका उचित मूल्य पर बिकना दिवास्वप्न सा रहता है। खेती की शिक्षा पौधों की उपज भर का ज्ञान नहीं है, बल्कि यह एक समाज विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में वैज्ञानिक दृष्टिकोण का हस्तक्षेप है। भुखमरी और अकाल से निपटने और सब तक भोजन और पौष्टिकता पहुंचाने की कवायद है। इस कृषि शिक्षा की तुलना में कहीं अधिक चिंता हम चिकित्सा शिक्षा की करते हैं, यह दीगर बात है कि कुपोषण और भूख के मसले तो केवल कृषि और उसकी पढ़ाई से ही हल किये जा सकते हैं।
बीसवीं सदी के पहले दशक में औपनिवेशिक शासन ने भी चिंता व्यक्त करते हुए छह कृषि अध्ययन संस्थानों की स्थापना की थी। उन्नीसवीं सदी के अंत में आये भीषण अकाल ने भी खेती की शिक्षा को पेशेवर तरीके से आजमाने का संबल दिया होगा। हालाँकि सन 47 में आज़ाद होने के तेरह साल बाद हमने कृषि शिक्षा की सुध ली। स्वतंत्र भारत में पहला कृषि विश्वविद्यालय पंतनगर में 1960 में खुला, जबकि पहला ‘आईआईटी’ (भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान) 1950 में ही खोल दिया गया था। इस क्रम में हम भारत के उस रुझान को समझ सकते हैं जो आधुनिक भारत में गांवों को कस्बों और कस्बों को शहरों में बदल देने की चाहत और खेती योग्य भूमि पर चमचमाते पंचतारा भवन बना देने को विकास मान लेता है।
खेती में बढ़ती लागत, मांग के अनुरूप फसल की उगाई, बीज की उपलब्धता से लेकर तैयार फसल को मंडी तक पहुंचाने की व्यवस्था, भण्डारण की समस्या और सही समय पर उपज के प्रसंस्करण की अनुपलब्धता, भूमंडलीकरण के दबाव में ‘जीन संवर्धित’ (जीएम) बीजों की खरीद और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की बढ़ती दखल न केवल खेती को एक नुकसान भरा पेशा बनाती है, वरन किसानों को आत्महत्या की तरफ भी धकेलती है। खेती बतौर पेशा पहले से ही युवाओं को लुभावना नहीं लगता और न ही उन्हें इसमें करियर बनाने की असीम संभावनाएं ही नज़र आती हैं। युवा वर्ग उस पेशे के प्रति आकर्षित नहीं होता जिसमें हाथ और इच्छाओं दोनों का कुम्हलाना पहले से ही तय है।
कृषि विज्ञान में हुई अभूतपूर्व प्रगति ने कैसी भी परिस्थिति में उपज के लिए प्रजातियां विकसित कर ली हैं, परन्तु यह सब ज्ञान-विज्ञान अभी तक प्रयोगशाला की चौहद्दी में ही हैं और बड़े पैमाने पर खेती के चलन में नहीं आ सके हैं। प्रयोगशाला और खेत की दूरी पाटने के लिए ही ‘कृषि विज्ञान केंद्रों’ की संकल्पना की गयी है। आज लगभग हर जिले में एक ‘कृषि विज्ञान केंद्र’ है और सूचना तकनीक भी अपने स्तर पर किसानों तक ‘ज्ञान’ पहुंचाने के लिए प्रयासरत है। खेती करने की पारम्परिक समझ में वैज्ञानिक पुट को जोड़ने के प्रयास में ‘राष्ट्रीय शिक्षा नीति’ व्यापक स्तर पर ‘कृषि प्रौद्योगिक पार्कों’ को खोलने की संस्तुति करती है। इस नीति में पहले से मौजूद ‘कृषि विज्ञान केंद्रों’ तथा अशोक दलवाई की अध्यक्षता में बनी किसानों की आय को दोगुना करने वाली समिति की संस्तुतियों की विवेचना न करते हुए एक नए उपक्रम की स्थापना की सिफारिश की है।
प्रयोगशाला-जनित ज्ञान को किसान तक पहुंचाने के प्रयास में कोई मौलिक योगदान ‘राष्ट्रीय शिक्षा नीति’ में नहीं दिखता और खेती की शिक्षा को बड़े चलताऊ नज़रिये से औपचारिकता पूरी करने हेतु एक पैबंद जैसा जोड़ दिया गया है। यह नीति प्राथमिक शिक्षा से लेकर अध्यापक शिक्षा तक के लिए एजेंडा तैयार करते हुए उन पर एक नई पाठ्यचर्या की तैयारी का सुझाव तो देती है, परन्तु कृषि शिक्षा की रूपरेखा के निर्माण और शिक्षण की योजना का उल्लेख नहीं करती। दूसरी तरफ, यह दस्तावेज चिन्हित करता है कि देशभर के तमाम विश्वविद्यालयों में से केवल नौ प्रतिशत में ही कृषि की पढाई होती है और उच्च शिक्षा में पहुंचने वाले समस्त विद्यार्थियों में से एक प्रतिशत से भी कम कृषि को बतौर अध्ययन का विषय चुनते हैं।
देश का कोई-न-कोई भाग हर साल सूखे, बाढ़ अथवा टिड्डियों जैसी समस्या की चपेट में होता है। साल-दर-साल अगली फसल की उम्मीद में किसान मानसून, मंडी और सरकारी सहयोग की अपेक्षा करता है। प्रत्येक वर्ष के राष्ट्रीय बजट में कृषि के लिए घटते आवंटन, तदनन्तर शिक्षा और शोध के लिए सरकारी मद का और भी कम होना कृषि विश्वविद्यालयों और ‘कृषि विज्ञान केंद्रों’ को सांस्थानिक और अकादमिक संकटों को झेलने के लिए मजबूर करता है। इस सन्दर्भ में यह कोई आश्चर्य नहीं है कि आज़ादी के समय ‘सकल घरेलू उत्पाद’ (जीडीपी) में लगभग 58 फीसदी योगदान करने वाला कृषि-क्षेत्र अब केवल 15 फीसदी ही योगदान कर पा रहा है।
औद्योगीकरण, शहरीकरण और खेती के आंतरिक विरोधाभासों ने किसानों को बटाईदार से मालिकान खेतिहर बनने का सपना देखने का साहस भी छीन लिया है और साथ ही अपने बच्चों को भविष्य में खेती करते देखने का भी। ‘राष्ट्रीय शिक्षा नीति’ ने जिन आत्मनिर्भर भारतीय नागरिकों के निर्माण का सपना संजोया है, जो न केवल ज्ञान, कर्म और व्यवहार, वरन विचार एवं बुद्धि के स्तर पर भी भारतीय हों। ऐसे नागरिकों की निर्मिति में कृषि और कृषि शिक्षा के माध्यम से ‘उत्तम खेती, मध्यम बान’ की लोकोक्ति की संकल्पना को साकार किया जा सकता था, परन्तु ‘राष्ट्रीय शिक्षा नीति’ के वृहद्, विस्तृत और भविष्याग्रही दस्तावेज में भी खेती की शिक्षा खेत रही। (सप्रेस)
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