‘भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान’ उर्फ आईआईटी देश में तकनीकी शिक्षा और शोध के सर्वश्रेष्ठ केन्द्र माने जाते हैं और उनसे आधुनिक विज्ञान और समाजशास्त्र के प्रचार-प्रसार की अपेक्षा की जाती है, लेकिन यदि वे ही पोगापंथी को तरजीह देने लगें तो क्या होगा? हाल में ‘आईआईटी – खडगपुर’ ने अपने नववर्ष के कलेंडर में इसे ही साबित कर दिया है।
हाल ही में ‘आईआईटी – खडगपुर’ ने नववर्ष का कैलेण्डर जारी किया है। किसी उत्कृष्ट तकनीकी संस्था से उम्मीद की जाती है कि वो वैज्ञानिक दृष्टिकोण, परंपरागत ज्ञान, नवाचार, मौलिक सृजन और स्थापित जड़ता को झकझोरने वाला वातावरण बनाये। मगर विगत दिनों हर संस्था पर हुक्मरानों ने अपनी संकुचित सोच को थोपने का काम किया है। दुःख के साथ कहना पड़ता है कि ‘आईआईटी – खडगपुर,’ जिसकी नींव में देश के पहले प्रधानमंत्री और शिक्षामंत्री की विराट सोच थी; आज वर्तमान व्यवस्था की विचार पद्धति का ’’बोनसाई’’ बनकर रह गया है।
उनके इस कैलंडर पर गौर करें तो मुख्यतः चार बिन्दु निकलकर आते हैं। पहला यह कि ‘आर्य’ मध्य-एशिया के घास के मैदानों से नहीं आये थे। वे भारत के ही थे। दूसरा, वैदिक संस्कृति और देवी-देवता सिन्धु सभ्यता के समय की मान्यता है। यानि हमारे देवी-देवता भी बाहर से नहीं आये। तीसरा, हमारा इतिहास अध्ययन औपनिवेशी पूर्वाग्रह से ग्रस्त होने के कारण प्रभावित हुआ और हम वास्तविकता से महरुम रहे हैं। चौथा, अब जाकर कहीं भारतीय परंपरागत ज्ञान को सहेजने की कोशिश की जा रही है।
इन चारों बिन्दुओं पर रोशनी डालने से पहले यह भी कहना ही होगा कि 2014 के बाद से ही भारतीय ज्ञान परंपरा के नाम पर ज्योतिषी, रामचरितमानस में कथित तौर से दर्ज एरोनॉटिक्स और समुद्री विज्ञान की पढ़ाई एवं खोज, वास्तु शास्त्र, गणेशजी के जरिये प्लास्टिक सर्जरी जैसी नितांत अविवेकपूर्ण, अवैज्ञानिक कूड़ा परोसने की वकालत जोर-शोर से हो रही है। यह असल में भारतीय ज्ञान परंपरा का अपमान है और उसके प्रगतिशील खुलेपन के साथ अन्याय भी है। भारतीय ज्ञान परंपरा कतई अंधविश्वास और अवैज्ञानिक कर्मकांड का पर्याय नहीं है।
कैलेंडर के पहले बिन्दु के अनुसार ’’आर्य’’ बाहर से नहीं आये। कुछ ही दिन पहले टोनी जोसेफ और डेविड रीच की किताबों और उनके गहरे आनुवांशिक शोध ने तथ्यों के आधार पर साबित किया कि अलग-अलग समय पर भारत में कहां-कहां से मानव समूह आकर बसे। टोनी जोसेफ ने अपनी किताब में मां से बेटी को ही मिलने वाले ‘मैटोकोन्ड्रिया’ की आनुवांशिकी और पिता से बेटे को ही मिलने वाले ‘वाई’ आनुवांशिकी के आधार पर बड़े वैज्ञानिक तरीके से, बिना किसी औपनिवेशी या तहजीबी प्रभुता के पूर्वाग्रह के, यह साबित किया कि कैसे अलग-अलग क्षेत्र, काल में आये मानव समूह भारत में तकरीबन सत्तर हजार साल पहले अफ्रीका से आकर बसे पहले समूह से मिले।
इसी आनुवांशिकी के आधार पर आर्यों का मध्य-एशिया से आगमन साबित हुआ है। यह भी कि कैसे उत्तर भारत के कुछ समुदायों के पुरुष में मध्य-एशियाई आनुवांशिक अनुपात अधिक है। किताब को परे भी कर दें, तब भी आईआईटी से उम्मीद की जाती है कि वे अपने कथानक के लिए ठोस वैज्ञानिक आधार देते, लेकिन ठोस वैज्ञानिकता के सामने कोरे मिथकों का अवलम्ब लेना आईआईटी की वैज्ञनिक परंपरा को ठेस पहुंचाता है।
दूसरा बिन्दु है कि वैदिक देवी-देवता और हमारी मान्यता का आरंभ सिंधु सभ्यता से है। इसके लिए सिंधु के अवशेषों में मिली मुहरों, नाचने वाली लड़की की छवि और सिक्कों में एक योगिनी सी छवि को सबूत के बतौर पेश किया गया है। अव्वल तो सिंधु की समृद्ध नागरिक सभ्यता की मुहरों में दर्ज चिन्हों को पढ़ा नहीं जा सका है, उनकी भाषा का पूर्ण ज्ञान किसी को नहीं है। यह अपने आप में आश्चर्य भी है कि सिंधु के नगरों में मिले लिपि के चिन्हों के हजारों साल बाद अशोक के शिलालेख में ही लेखनी के पुख्ता सबूत मिलते हैं। यह मात्र कयास है कि उनकी भाषा द्रविड़ियाई शाखा की रही होगी। क्या देवी-देवताओं का स्रोत वैदिक ही होना जरुरी है? वे भी अपने पराये होते हैं।
यह मान भी लें कि आर्य बाहर से नहीं आये। तब भी यह तो मानना ही होगा कि सिंधु के लोग ईरानी जागरोस से आये। मगर उसको भी नहीं मानना चाहें, तो भी सबसे पहले अफ्रीका से आये समूहां ने भारत को आबाद किया, यह तो निर्विवाद है, लेकिन शायद यह भी अब बदला जायेगा।
तीसरा बिन्दु कि इतिहास का अध्ययन औपनिवेशी पूर्वाग्रह से ग्रस्त रहा है। यह मानना कतई गलत नहीं कि औपनिवेशी पूर्वाग्रह और उनकी भेद नीति ने हमारे इतिहास को मजहबी बनाया। प्राचीन समय को हिन्दू, मध्यकालीन इतिहास को मुस्लिम और आधुनिक काल को ईसाई कलेवर देने का कुत्सित प्रयास हुआ। अंग्रेज अधिकारियों का एक वर्ग यह मानता था कि देश में कुछ भी पुराना सहेजने लायक नहीं है। एक वर्ग इसके विपरित शोध में जुटा जिसने विस्मृत हो चुके सम्राट अशोक के इतिहास को खोज निकाला।
मगर एक वर्ग भेदनीति से ग्रस्त था। चूंकि मध्यकालीन यूरोप में ‘क्रॉस बनाम क्रिसेंट’ की लम्बी सांप्रदायिक तकरार हुई। इधर भारत में ‘ईस्ट इंडिया कंपनी’ ने ज्यादातर सूबों में मुस्लिम शासकों से सत्ता प्राप्त की थी। मध्यकाल को अंधकारमय करार देना भी उसी पूर्वाग्रह का परिणाम था। एक तरफ ‘मुस्लिम लीग’ की स्थापना के लिए प्रोत्साहित करके राष्ट्रीयता को कमजोर किया गया और दूसरी तरफ मध्य मुस्लिम शासनकाल की यांत्रिकीय तकनीकी, स्थापत्य कला, कारीगरी, सिंचाई एवं कृषि में उन्नयन, लेखनी तथा अध्ययन आदि को पूरी तरह नजरअंदाज किया गया।
परिणामतः एक पूरी पीढ़ी यह पढकर बड़ी हुई कि उस दौर में भारत में कुछ नहीं हुआ। वो युग ‘काला’ था और अंग्रेजों ने आकर हमें ‘तार’ दिया। इसी दौर ने प्राचीन गौरव में जीने वाली एक पीढ़ी भी तैयार की, जिसे यह लगा कि प्राचीन समय का संचित ज्ञान मध्यकाल में डूब गया। तो आईआईटी जब पूर्वाग्रह से निपटने चली है, तो क्यूं न इस पूर्वाग्रह से भी निपटती?
चौथा और आखिरी बिन्दु भारतीयता का है। विगत समय में प्रभुत्व संपन्न वर्ग, भाषा, लिंग, तहजीब को ही भारतीय बनाकर पेश किया गया है। क्या कबीर, बुल्ले शाह, नानक, अक्का महादेवी, बसवण्णा, शंकरदेव, संत सोयराबाई, चोखामेला आदि भारतीय नही है? क्या उनके ज्ञान को सहेजना नहीं है?
क्या मध्यकाल में हुई तकनीकी खोज, निर्माण कला आदि भारतीय नहीं हैं? ंभारतीयता की धारा को तन्वंगी करने का हक किसी को नहीं। भारतीयता संगम है। संगम में मिलने वाली हर नदी, नाले के अस्तित्व का महत्व है। संगम उसी से है। उसे एक ही धारा का दिखाना गलत है, भारतीयता समावेश है। गांधीजी ने जैसे कहा भारतीयता किवाड़ लगाने का नाम नहीं है, किवाड़ खोलकर अभिनंदन करने का नाम है। लेकिन किवाड़ खोलते समय भी अपनी जड़ों को उखड़ने न देना, हमारी तहजीब है। वो जिसने शून्य, खगोल, योग, आयुर्वेद आदि ईज़ाद किया, वो भारतीयता है। ‘आईआईटी – खडगपुर’ के कैलेंडर में उनकी तस्वीर नदारद है। (सप्रेस)
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