चैतन्य नागर

आजकल शिक्षा, किसी तरह डिग्री हासिलकर नौकरी पाने का उपाय भर होती जा रही है। देश व समाज के लिए बेहतर नागरिक बनाने में शिक्षा संस्थानों की अब कोई रुचि दिखाई नहीं देती। ऐसे में क्या किया जाना चाहिए? प्रस्तुत है, हमारे पूर्व राष्ट्रपति स्व. डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्मदिवस, पांच सितम्बर को मनाए जाने वाले ‘शिक्षक दिवस’ पर इसी विषय पर प्रकाश डालता चैतन्य नागर का लेख

आजादी के पचहत्तरवें साल में कई सवाल अभी भी बवंडर की तरह मन में घुमड़ते रहते हैं। ख़ासकर शिक्षा व्यवस्था से जुड़े सवाल। इन पचहत्तर वर्षों में हमने एक तरफ तो अच्छे-खासे वैज्ञानिक, चिकित्सक और इंजीनियर, मैनेजर तैयार किये, पर दूसरी तरफ, हमारी सामाजिक व्यवस्था, इसके संस्थान, क्या भीतर से उतने ही कमज़ोर और नैतिक अर्थ में दुर्बल और संकीर्ण नहीं बन गए? क्या हम आज भी शिक्षा के जरिये जातिवाद, साम्प्रदायिकता, ऊंच-नीच और इस तरह की कई विषैली कुरीतियों से अपने बच्चों को मुक्त कर पाए हैं?

क्या हमारा शिक्षक इन बुराइयों से स्वयं मुक्त हुआ है? और यदि नहीं हुआ, तो किस तरह वह उस अर्थ में, उस नए भारत के निर्माण में योगदान देगा जिसका सपना गांधी जी और गुरुदेव टैगोर ने देखा था? राजनीतिक लोकतंत्र, नियमित चुनाव वगैरह की गौरव-गाथा तो हम खूब गाते रहते हैं, पर क्या यह लोकतंत्र हमारे सामाजिक जीवन और उसकी विभिन्न इकाइयों का स्पर्श कर पाया है?    

हाल के दिनों में कई पीड़ादायी घटनाएँ हुईं हैं। राजस्थान में एक नन्हे बच्चे को उसके हेड मास्टर ने सिर्फ इसलिए पीटकर मार डाला क्योंकि उसने अपनी प्यास बुझाने के लिए उस मटकी को छू लिया था जो उस बच्चे की ‘नीच जाति’ वालों के लिए नहीं थी। मध्यप्रदेश के सिंगरौली में एक सरकारी स्कूल टीचर ने बारहवीं कक्षा में पढ़ने वाली एक दलित बच्ची को इसलिए बेतरह पीटा क्योंकि वह आगे की बेंच पर बैठ गई थी। एक खबर के अनुसार हापुड जिले के उदयपुर गाँव में एक प्राथमिक स्कूल की दो दलित छात्राओं के यूनिफार्म को शिक्षिकाओं ने उतरवाकर दो अन्य छात्राओं को दे दिया था, ताकि वे अपनी तस्वीर खिंचवा सकें। बाद में छात्राओं के अभिभावकों की शिकायत पर शिक्षिकाओं को निलंबित करने के आदेश जारी हुए।  

अछूत जैसे रुग्ण शब्द से तो सभी परिचित हैं, पर किसी समय में इस देश में ऐसी भी जातियां रही हैं, जिन्हें देखना भी वर्जित था। बीसवीं सदी की शुरुआत में ही केरल को स्वामी विवेकानंद ने ‘जातिवाद का पागलखाना’ कहा था। वहां कुछ लोगों को सिर्फ दिन के बारह बजे बाहर निकलने की अनुमति थी, क्योंकि उस समय उनकी परछाईं दूर तक नहीं फैलती थी। उनकी परछाईं भी किसी ‘ऊंची जाति’ वाले को छू जाए, तो वह अशुद्ध हो जाता था। उन्हें अपनी गर्दन में एक घंटा लटकाकर निकलना पड़ता था और उसे लगातार बजाते रहना पड़ता था, जिससे सवर्ण दूर से ही उनके आने की आहट पा जाएँ और दूर हो जाएँ।

आज भी ये बातें सच हैं, दूर के गावों में हैं, इक्का-दुक्का हैं, ख़बरों में नहीं आतीं, पर उनकी जड़ें बरसों से हमारे सामूहिक मन में बनी हुई हैं। रंग-बिरंगे उत्सवों के नीचे हम इस तरह की बदरंग गंदगियों को बड़ी कुटिलता के साथ छिपा ले जाते हैं। छात्र कई तरह के हादसों का शिकार होता है जिसे आसानी से टाला भी जा सकता है, पर सबसे अधिक फ़िक्र जाति, धर्म के नाम पर शैक्षणिक संस्थानों के भीतर ही उनके साथ भेदभाव किये जाने की घटनाओं को लेकर होती है।

शैक्षणिक संस्थानों की बहुत महती भूमिका है कि वे वर्तमान और भविष्य की ऐसी पीढियां तैयार करें जिनमें जिम्मेदार और कुशल लोग हों, उनके पास ज्ञान और समझ दोनों हो, सकारात्मक दृष्टिकोण और सह-अस्तित्व की गहरी भावना हो। यदि स्कूल और कॉलेज ही हिंसा के केंद्र बन जायेंगे, चाहे वे दूसरों के प्रति हों या स्वयं के प्रति; बिलकुल शुरुआती स्तर पर ही जातिवाद, सम्प्रदाय, नस्लवाद और स्त्री संबंधी विषाक्त बातें शिक्षक छात्रों तक और छात्र एक-दूसरे तक पहुंचा देंगे, तो ऐसे में देश और समाज का भविष्य गहरे अँधेरे में ड़ूब जाएगा।

बचपन में ही यदि इस तरह के अनुभव हों तो वे बच्चों के अचेतन का हिस्सा बन जाते हैं और फिर हिंसा, मारपीट वगैरह उन्हें सामान्य आचरण की तरह प्रतीत होने लगती है। आने वाली पीढ़ियों के लिए शिक्षकों को एक ऐसा आदर्श बनने की जरुरत है, जो इन बीमारियों से ऊपर उठ चुका हो, या कम-से-कम ऊपर उठने का ईमानदार प्रयास कर रहा हो।     

हमारी आबादी का एक तिहाई, दिन का बड़ा हिस्सा स्कूल या कॉलेज में बिताता है। यह समय उनको समझने, समझाने और उनमें आवश्यकता के अनुसार परिवर्तन लाने के लिए सबसे सही है। यही समय है जब शिक्षक बच्चों को बौद्धिक लब्धि (आई.क्यू.) के साथ भावनात्मक लब्धि (ई.क्यू.) के महत्त्व के बारे में बता सकता है। एक लोकतंत्र में रहने वाले लोग अलग-अलग हो सकते हैं, पर वे विभाजित नहीं हैं। विभाजित कौमें सही दिशा में आगे नहीं बढ़ सकतीं।

उनके पास कई तरह की आजादियाँ हैं जिन्हें संविधान परिभाषित करता है। इस तरह की समझ किताबों की पढाई के साथ-साथ भी दी जा सकती है, पर इसके लिए शिक्षकों का प्रशिक्षण उन लोगों के द्वारा जरूरी है जो शिक्षा के इस आयाम को गहराई से समझते हैं, इस दिशा में उन्होंने काम किया है। विकसित देशों ने इन सभी जरूरतों को समझा है और उनमें से कई ने इन मुद्दों पर सजगता के साथ काम भी किया है।       

कई देशों में शैक्षणिक संस्थानों ने ख़ास तौर पर स्टडी मॉडल और प्रशिक्षण कार्यक्रम तैयार किये जिनकी मदद से बच्चों में व्यवहार, सोच एवं दृष्टिकोण में परिवर्तन आ सके। इन कार्यक्रमों को तैयार करने में अभिभावक, नेता, शैक्षणिक संस्थान, राजनीतिक दल और समाज-सेवी संगठन सभी शामिल हुए। सवाल यह है कि क्या हम अपने शैक्षणिक संस्थानों में शिक्षकों और छात्रों में इस तरह का अंदरूनी बदलाव लाने के लिए तैयार हैं? क्या इसके लिए हमारे पास राजनीतिक इच्छाशक्ति है? या हम इस तरह के परिवर्तन इसलिए नहीं लाना चाहते क्योंकि इसके राजनीतिक नुकसान हैं? जाति के नाम पर वोट लूटने की आदत इतनी पुरानी और फायदेमंद है कि उसे ख़त्म करने में राजनीतिक दलों का ही नुकसान है।     

शिक्षकों को यह समझना जरूरी है कि वे सिर्फ ट्रेनर या प्रशिक्षक भर नहीं हैं। सिर्फ किताबी बातें सिखाना उनका काम नहीं है। विद्यार्थियों का भावनात्मक, बौद्धिक और नैतिक स्तर बढाने की भी जरूरत है। साथ ही संस्थान में काम करने वाले अन्य गैर-शिक्षक कर्मियों के साथ भी नियमित रूप से बातचीत की जानी चाहिए। जातिवाद और साम्प्रदायिकता के ज़हर को फैलाने का काम ये भी खूब करते हैं। शिक्षकों के किये-धरे पर पानी फेरना इनके बाएं हाथ का खेल है। बुनियादी रूप से यह प्रक्रिया शिक्षक की समझ और प्रशिक्षण से शुरू होती है।

उनकी इस बात में दिलचस्पी होनी चाहिए कि समाज में गहरे बदलाव आयें। जातिवाद और साम्प्रदायिकता का ज़हर शांत हो। समानता, आजादी, भाईचारे में उनकी वास्तविक रूचि होनी चाहिए। शैक्षणिक संस्थान के बाकी गैर-शिक्षक कर्मियों में यह समझ लाने का काम भी शिक्षक ही कर सकते हैं, यदि वे लगातार सतर्क और सजग रहें। स्कूल-कॉलेजों को इन मूल्यों को सम्प्रेषित करने के लिए लगातार अभिभावकों के संपर्क में रहने की जरुरत है।  

दुर्भाग्य से शिक्षा डिग्रियां बटोरने और नौकरी पाने का एक माध्यम भर बनकर रह गई है। इन चीज़ों की अपनी सीमित भूमिका है, पर ह्रदय के संवर्धन पर ध्यान देना बहुत जरुरी है, जिसके बारे में गांधी जी ने बातें की थीं और व्यावहारिक स्तर पर काम भी किया था। सही शिक्षा को सामाजिक विभाजन दूर करने के प्रयास करने चाहिए। छात्र को नए माहौल, लगातार बदलते हुए जीवन, नाकामयाबी, कामयाबी और विनम्रता, दुश्चिंताओं और अवसाद के साथ जीना सिखाने का काम भी स्कूलों, अभिभावकों और पेशेवर मनोवैज्ञानिक परामर्शदाताओं के आपसी सहयोग पर निर्भर करता है।

शिक्षा संस्थान को कभी भी धर्म, जाति, क्षेत्र और रंग के आधार पर कोई भी भेदभाव नहीं करना है, इसे सरकार, शिक्षा-बोर्ड और संस्थान के प्रबंधन को सुनिश्चित करना होगा। इस तरह की घटनाएँ हो भी जाएँ तो यह सुनिश्चित करना जरूरी है कि बाकी छात्र इन बातों से प्रभावित न हों। इससे निपटने के तुरंत उपाय शुरू किये जाने चाहिए जिनसे उनके दिलो-दिमाग पर पड़े नकारात्मक प्रभावों को मिटाया जा सके। (सप्रेस)

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