हाल के केन्द्रीय बजट में राज्यों के खाते में आवंटित शिक्षा-बजट की राशि बहुत कम करके केन्द्र सरकार आखिर क्या करना चाहती है? कोरोना महामारी के बाद करीब सालभर में पहली बार खुल रहे गांव-खेडे के स्कूलों को अपने रख-रखाब के लिए ही सामान्य से अधिक राशि की दरकार होगी। ऐसे में राज्यों के पहले से संसाधनहीन स्कूल कैसे जीवित रह पाएंगे?
इस वर्ष केन्द्र सरकार द्वारा वर्ष 2021—22 के शिक्षा बजट में कोई बढ़ोतरी नहीं की गई, बल्कि पिछले वर्ष की तुलना में उसमें 6000 करोड़ की कमी कर दी गई। यह अपने आप में अभूतपूर्व है। आमतौर पर शिक्षा के बजट में थोड़ा बहुत इज़ाफा किया जाता रहा है, जबकि हर वर्ष उसकी माँग उससे बहुत अधिक होती है। हम तोते की तरह ‘सकल घरेलू उत्पाद’ (‘जीडीपी’) का 6 प्रतिशत खर्च करने की बात करते हैं पर वहीं-के-वहीं खड़े दिखते हैं। बजट के मामले में इस वर्ष विचित्र स्थिति दिखाई दे रही है। क्योंकि शिक्षा बजट को कम कर हम उलटे चल रहे हैं। यह आश्चर्यजनक इसलिए भी है क्योंकि संपूर्ण बजट में जहां 14 प्रतिशत की बढ़ोतरी की गई है, वहीं शिक्षा के बजट में 6 प्रतिशत की कमी की गई है। यानी लक्ष्य प्राप्त ना कर पाना एक बात होती है, किन्तु लक्ष्य को ही खत्म कर देना एक अलग तरह का दृष्टिकोण पेश करता है।
यदि हम स्कूली शिक्षा बजट के आँकड़े ध्यान से देखें तो एक और विडम्बना सामने आती है।
शिक्षा तंत्र | बजट (अनुमानित) 20-21 | बजट (अनुमानित) 21-22 | करोड़ |
केन्द्रीय विद्यालय | 5517 | 6800 | 23% बढ़ा है |
नवोदय विद्यालय | 3300 | 3800 | 15% बढ़ा है |
समग्रशिक्षाअभियान | 38751 | 31050 | 19% कम हुआ है (7701 करोड़) |
स्रोत: CBGA, दिल्ली |
इस बजट में केन्द्रीय विद्यालयों एवं नवोदय विद्यालयों का बजट बढ़ाया गया और समग्र शिक्षा अभियान का बजट घटा दिया गया है। यानी जो स्कूल केन्द्र सरकार के सीधे नियंत्रण में है, उन पर कहीं अधिक खर्च किया जाएगा, जबकि राज्य सरकारों द्वारा चलाये जाने वाले स्कूलों के अनुदान में कटौती की गई है। गौरतलब है कि केन्द्र के पास लगभग 2000 केन्द्रीय व नवोदय विद्यालय हैं और राज्य सरकारें 11 लाख स्कूल संचालित करती हैं। बजट में कटौती की पुष्टि इस बात से भी होती है कि दो वर्ष पहले, 2019-20, का ‘समग्र शिक्षा अभियान’ का वास्तविक खर्च 32,377 करोड़ इस अनुमानित बजट से अधिक था।
हालांकि इस बारे में यह तर्क दिया जा सकता है कि राज्य सरकारें अपने बजट से उन पर खर्च करती हैं तो केंद्र सरकार के अनुदान की क्या ज़रूरत है? किन्तु इस बात को ध्यान में रखने की जरूरत है कि केन्द्र सरकार के अनुदान से प्राप्त राशि का उपयेाग राज्य सरकारों द्वारा स्कूलों की गुणवत्ता बढ़ाने के लिए किया जाता है। इस अनुदान में राज्य सरकारों का हिस्सा 40 प्रतिशत होता है और कुछ राज्यों में 10 प्रतिशत। इसी अनुदान के कारण ही राज्यों ने ‘शिक्षा का अधिकार अधिनियम’ के प्रावधानों को पूरा करने के लिए कदम उठाएँ। इस समय राज्यों के पास वित्तीय संसाधनों की कमी है और बजट की कटौती के बाद यह ‘समग्र शिक्षा अभियान’ सिमटता हुआ नज़र आएगा। यानी राज्य सरकारें शिक्षा पर कम खर्च करेंगी।
दूसरी ओर हम शिक्षा में गुणवत्ता बढ़ाने की बातें ज़ोर-शोर से कह रहे हैं, जबकि वास्तविक स्थिति इसके विपरीत है। बात साफ है, भारत सरकार केन्द्रीय विद्यालयों और नवोदय विद्यालयों पर तो खर्च कर रही है, जबकि आम जनता के स्कूलों को राज्यों के हाल पर छोड़ देने का इरादा है। हम भूल गए हैं कि केन्द्र सरकार का बजट संपूर्ण देश के लिए होता है, न कि सिर्फ केन्द्र सरकार द्वारा संचालित स्कूलों के लिए। यहां प्रस्तुत तालिका से स्पष्ट है कि राज्य सरकारों के लिए अनुदान 7701 करोड़ रुपए घटा दिया गया है। इसके बहुत गंभीर परिणाम होंगे और उसकी गंभीरता को देखते हुए संसद में बहस की जरूरत है। पूरे देश में स्कूल शिक्षा व्यवस्था को बेहतर बनाने के लिए ‘समग्र शिक्षा अभियान’ के बजट को बढ़ाया जाना चाहिए।
यह स्पष्ट है कि कोविड महामारी की स्थिति से उबरने के लिए इस वर्ष राज्य सरकारों को विशेष सहायता की ज़रूरत है। स्कूल में बच्चों को वापस लाने के अभियान, विशेष कोचिंग, शाला भवनों की मरम्मत आदि जरूरतें सामने आ रही हैं। खासकर पानी की व्यवस्था और शौचालयों को दुरूस्त करने के लिए वित्तीय अनुदान की अपेक्षा की गई थी। उक्त तैयारियों और प्रबंधन के बाद ही पालक अपने बच्चों को स्कूल भेजेंगे और सुरक्षित महसूस करेंगे। अत: इस वर्ष ‘समग्र शिक्षा अभियान’ के तहत विशेष प्रावधान उपलब्ध कराने की जरूरत थी, ताकि राज्य सरकारें इन परिस्थितियों से जूझ सकें। बजट का कम होना राज्य सरकारों के लिए बहुत मुश्किल घड़ी है। वैश्विक संस्थाओं ‘यूनेस्को’ एवं ‘ऑक्सफैम’ ने अलग-अलग अनुमान लगाया है कि भारत में वर्ष 2020-21 में 27 से 32 करोड़ बच्चों की पढ़ाई प्रभावित रही है। डिजिटल व्यवस्था बहुत सीमित रही है। इस स्थिति में आप अनुमान लगा सकते हैं कि यदि राज्य सरकार इस समय ज़रूरी खर्च करने के लिए अपने हाथ बंधे महसूस करती है तो लाखों बच्चे स्कूल छोड़ देंगे। पिछले दशक की मेहनत पर एक-दो वर्ष में ही पानी फिर सकता है। केन्द्र सरकार का यह दायित्व है कि विशेष महामारी की परिस्थिति में राज्य सरकारों की मदद करे, ताकि सभी बच्चों को स्कूल लाया जा सके।
राज्य सरकारों की स्थिति भी अलग-अलग है। जिन राज्यों की वित्तीय स्थिति कमज़ोर है उन्हें ‘शिक्षा अधिकार कानून’ के प्रावधानों को जमीनी स्तर पर लागू करने के लिए अनुदान की आवश्यकता है। इन राज्यों में शिक्षकों की कमी है, साथ ही स्कूल में जरूरी सुविधाओं और संसाधनों की कमी से भी ये स्कूल जूझ रहे हैं। इस दशा में इस बार का केन्द्रीय बजट राज्यों की शिक्षा व्यवस्था को अधिक चोट पहुंचाएगा। वहां कई बच्चे स्कूल से वंचित हो जाएंगे। कोविड महामारी के दौर में यह बजट ‘गरीबी में गीला आटा’ मुहावरे को चरितार्थ करता है।
हमें यह स्वीकार करना होगा कि ‘शिक्षा का अधिकार’ एक संवैधानिक अधिकार है, न कि केन्द्र सरकार द्वारा चलाई गई योजना। यदि इसके लिए वित्तीय संसाधन आवंटित नहीं किए जाते हैं तो यह इस अधिकार का उल्लंघन है। शिक्षा के अधिकार को कानूनी रूप देने का यह मकसद था कि सरकारें इसे योजनाओं की तरह न देखें। इस कानून के अनुसार प्रत्येक बच्चे को नि:शुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा उपलब्ध करवाना सरकार की जिम्मेदारी है, किन्तु केन्द्र सरकार का बजट नैतिक और न्यायिक दृष्टि से खरा नहीं उतरता। (सप्रेस)
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