बादल सरोज

हमारे मौजूदा आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक ताने-बाने में, खासकर पिछले दशक में, शिक्षा की जितनी मिट्टी-पलीत हुई है, वैसा सदियों में नहीं हुआ। जाहिर है, इस ‘कमाल’ में देश की सत्ता पर काबिज राजनीतिक जमात की खास भूमिका है। मामला सिर्फ ‘जेएनयू’ या पिछले कुछ समय से निशाने पर लगी ‘अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी’ (एएमयू), ‘जामिया मिल्लिया इस्लामिया’ या ‘हैदराबाद यूनिवर्सिटी’ तक ही महदूद नहीं है, उच्च शिक्षा के सारे केंद्र इस हमले की जद में हैं।

दिल्ली में ‘जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय’ (जेएनयू) के छात्र-छात्राओं पर पुलिस की लठियाई ने देश की इस आला यूनिवर्सिटी में पढने वाले विद्यार्थियों के बुरे हालात सामने ला दिए हैं। छात्रावासों की लगातार बदतर होती हालत, पढने-लिखने की सुविधाओं सहित हर चीज में कटौती और कुलपति द्वारा लोकतांत्रिक तरीके से निर्वाचित छात्रसंघ को मान्यता देने से इनकार आदि मुद्दों को लेकर ‘जेएनयू’ के विद्यार्थी लड़ रहे हैं, पुलिस उन्हें पीट रही है। इसी बीच कुलपति, सरकारी मदद में कटौती का बहाना बनाकर इस विश्वविद्यालय की संपत्तियों की सेल लगाकर लीज के नाम पर उन्हें खुर्द-बुर्द कर रही हैं या सीधे बेच रही हैं। अपने पहले कार्यकाल से ही भाजपा सरकार ‘जेएनयू’ के पीछे पड़ी हुई है, दमन और आतंक, अनेक तरह के फेरबदल और बदलाव थोपने के बाद अब लगता है उन्होंने इसे निबटाने की ही ठान ली है।

मामला सिर्फ ‘जेएनयू’ या पिछले कुछ समय से निशाने पर लगी ‘अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी’ (एएमयू), ‘जामिया मिल्लिया इस्लामिया’ या ‘हैदराबाद यूनिवर्सिटी’ तक ही महदूद नहीं है, उच्च शिक्षा के सारे केंद्र इस हमले की जद में हैं। असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिश्व शर्मा ने मेघालय की ‘यूनिवर्सिटी ऑफ़ साईंस एंड टेक्नोलॉजी’ के खिलाफ युद्ध सा ही छेड़ दिया है। इसके दरवाजे को मक्का जैसा गेट बताते हुए उन्होंने इस पर ‘बाढ़-जिहाद’ तक का आरोप जड़ दिया है। उनकी खोज है कि असम में जो भी बाढ़ आती है वह री-भोई जिले में बनी इस यूनिवर्सिटी की वजह से ही आती है। ‘अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद्,’ ‘भारतीय विश्वविद्यालय संघ’ और ‘भारतीय बार कौंसिल’ द्वारा मान्यता प्राप्त देश के 200 श्रेष्ठ विश्वविद्यालयों में से एक मानी जाने वाली इस यूनिवर्सिटी से उनकी चिढ की मुख्य वजह इसका उस फाउंडेशन द्वारा स्थापित किया जाना है, जिसके अगुआ का नाम महबूबुल हक है।

निशाने पर सिर्फ शिक्षा संस्थान ही नहीं, समूची शिक्षा है। वे ऊपर से प्रहार करके उसे ध्वस्त नहीं करना चाहते, नीचे से भी खोखला कर इसे सीखने की बजाए सीखा-सिखाया भुलाने – अनलर्निंग के अड्डों में बदल देना चाहते हैं। जिस देश के संविधान में नागरिकों के कर्तव्यों में वैज्ञानिक रुझान पैदा करना और बाकियों में ऐसा ही रुझान विकसित करवाना शामिल है, उस देश में वे अज्ञानी और अन्धविश्वासी नागरिकों की खरपतवार उगाना चाहते हैं। नई शिक्षा नीति में माध्यमिक शिक्षा के बाद सोशल स्टडीज को पूरी तरह से हटाकर सिर्फ उन्हीं विषयों को रखकर अपने समाज, इतिहास और विरासत से पूरी तरह अनभिज्ञ रोबोट्स तैयार करने का प्रोजेक्ट वे पहले ही बना चुके हैं – इसे और आगे बढाते हुए अब बाकायदा अंधविश्वासों को पढ़ाने का काम भी शुरू कर दिया गया है।

‘गुजरात प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय’ का उदघाटन करते हुए वहां के महामहिम राज्यपाल ने अपने भाषण में भावी वैज्ञानिकों को पारम्परिक ज्ञान को प्रोत्साहन देने की आड़ में गौमूत्र और गाय के गोबर को अपनी शोध की प्राथमिकताओं में लेने का उपदेश सुनाया। इसके पहले उज्जैन के ‘विक्रम विश्वविद्यालय,’ रायपुर के ‘रविशंकर विश्वविद्यालय,’ वाराणसी के ‘बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय(बीएचयू),’ तिरुपति की ‘केन्द्रीय संस्कृत विद्यापीठ’ और भोपाल के ‘केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय’ में ‘फलित ज्योतिष’ और ‘वास्तु ज्योतिष’ के पाठ्यक्रम शुरू करके अंधविश्वासों का दीक्षांत महोत्सव आरम्भ किया जा चुका था। ‘बीएचयू’ में छात्राओं के लिए ‘आदर्श बहू कैसे बनें’ का तीन महीने का डिप्लोमा कोर्स लाने का अभिनव प्रयोग उससे भी पहले अमल में लाया जा चुका था। अब दिल्ली की आठवीं कक्षा की नैतिक शिक्षा में वर्णाश्रम का महिमागान जोड़ दिया गया है।

‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ (आरएसएस’) से जुडे लेखकों की 88 किताबें मध्यप्रदेश के कोर्स में शामिल करके अब हर स्कूल की नीचे-ऊपर की कक्षाओं में पहुंचा दिया गया है। अज्ञान और कुंठा, नफरत और जुगुप्सा का अज्ञान अब मध्यप्रदेश के स्कूल-कालेजों की पढाई का हिस्सा होगा। प्रदेश के उच्च शिक्षा विभाग ने जिन नयी किताबों को पढाने का आदेश दिया है उनमें से 14 तो अकेले कथित शिक्षाविद दीनानाथ बतरा की लिखी हुई हैं। ये बतरा वही हैं जिन्होंने पूरी शिक्षा प्रणाली को ही कथित भारतीय परम्परा के अनुकूल ढालने और उसे ‘मनु सम्मत’ बनाने के अनेक उपक्रम किये हैं और ऐसा पाठ्यक्रम तैयार किया है जो भारतीय समाज के विकास की अब तक की सारी व्याख्या और विश्लेषण को धिक्कारता है और उसे साम्प्रदायिक और वर्णाश्रमी नजरिए से देखता-दिखाता है। बतरा ने ही पंजाब सरकार से अवतार सिंह ‘पाश’ की प्रसिद्ध कविता “सबसे खतरनाक होता है, मुर्दा शांति से मर जाना“ हटाने को कहा था।

बतरा अकेले नहीं हैं, उनके अलावा जिन लेखकों की किताबें कोर्स में शामिल की गयी हैं उनमें सुरेश सोनी, डी. अतुल्कोथारी, देवेन्द्र राव देशमुख जैसे ‘आएसएस’ के करीबी और संघ की ‘विद्या भारती’ से जुड़े हैं। सारे शिक्षा संस्थानों को तुरंत इन किताबों को खरीदने का आदेश भी दिया है। इससे पहले जून में मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री, जो उच्च शिक्षा मंत्री भी रहे हैं, को अचानक राम और कृष्ण को पाठ्यक्रम का अनिवार्य हिस्सा बनाने की सूझी थी। अभी हाल ही में जिस तुलना की न कोई आवश्यकता थी न तुक, उसे करते हुए उन्होंने कालिदास और शेक्सपीयर पर अपना ज्ञान बघारा है ; उन्होंने कहा है कि शेक्सपीयर कालिदास के मुकाबले कुछ भी नहीं हैं, कालिदास उनसे ज्यादा बड़े हैं। विश्व साहित्य की इन दो महान हस्तियों के बारे में इस तरह की राय देने और तुलना करने का दुस्साहस वे ही कर सकते हैं जिन्होंने इन दोनों में से किसी को भी न पढ़ा हो।

किताबों और ज्ञान की सभ्य समाज में स्वीकृत पद्धतियों पर हमला, वर्ष 1933 में जर्मनी की सत्ता और सरकार पर कब्जा करने के बाद, हिटलर और उसकी नाज़ी पार्टी ने भी किया था। उसने कहा था कि ‘हमने सरकार तो फतह कर ली है, मगर यूनिवर्सिटीज फतह नहीं कर पाए हैं। उन्हें जीतना अभी बाकी है।’ इस एलान के बाद कुछ ही महीनों में हिटलर की जर्मनी में जो हुआ वह सबके सामने हैं। नाज़ी पार्टी ने बाकायदा राष्ट्रव्यापी आव्हान देकर किताबें जलाने के लिए 10 मई 1933 का दिन ‘बुक बर्निंग डे’ के रूप में मुक़र्रर किया था।

इस दिन जर्मनी भर के 34 विश्वविद्यालयों, कस्बों में लाखों किताबें ‘गैर-जर्मन’ बताकर जलाई गयीं। शुरुआत कार्ल मार्क्स और कार्ल काउत्स्की से हुयी, लेकिन सिगमंड फ्रायड, अर्नेस्ट हेमिंग्वे यहाँ तक कि अल्बर्ट आईंस्टीन भी नहीं बख्शे गए। किताबों की इस होली के अवसर पर बर्लिन की एक भीड़ को उकसाते हुए हिटलर के प्रचार मंत्री गोयबल्स ने कहा था कि ‘हम किताबों से नहीं सीखेंगे, हम नए हिसाब से अपने नागरिक गढ़ेंगे और उनका चरित्र बनायेंगे।’ इन किताबों में जर्मन कवि और नाटककार हेनरिक हांइन की किताबें भी थीं जिनने करीब एक शताब्दी पहले चेतावनी दे दी थी कि ‘जो किताबें जलाता है वह इंसान भी जलाएगा।’   

हांइन की भविष्यवाणी सही साबित हुई। किताबें जलाने के साथ हिटलर ने जो आगाज़ किया, उसके बाद के 12 वर्ष मानवता के इतिहास के अब तक के सबसे बर्बर और हत्यारे वर्ष साबित हुए। भारत में यही काम शिक्षा और शिक्षा संस्थानों में पलीता लगाकर किया जा रहा है। यूं यह कुनबा किताबें जलाने का भी काम ‘भंडारकर लाइब्रेरी’ से लेकर ‘हुसैन की गैलरी’ तक कर चुका है। अब इसी काम को दूसरे तरीकों से भी किया जा रहा है। जर्मन कवि के रूपक में ही कहा जाए तो जो आज शिक्षा और शिक्षा संस्थानों की बुनियाद में बारूद बिछा रहे हैं वे कल देश और समाज में जो भी सकारात्मक है उसमें भी डायनामाईट लगायेंगे। 

विश्व की महान लेखिका हेलेन केलर ने हिटलर को एक टेलीग्राम भेज उससे कहा था कि ‘अगर आपको लगता है कि आप विचारों को मार सकते हैं, तो लगता है इतिहास ने आपको कुछ नहीं सिखाया है। तानाशाहों ने पहले भी कई बार ऐसा करने की कोशिश की है, मगर विचारों ने अपनी ताकत से ऊपर उठकर उन तानाशाहों को ही नष्ट कर दिया। आप मेरी किताबें और यूरोप के सबसे अच्छे दिमागों की किताबें जला सकते हैं, लेकिन उनमें मौजूद विचार लाखों चैनलों से होकर गुज़रे हैं, वे रहेंगे और दूसरे दिमागों को तेज करते रहेंगे।’ हिटलर के कुकर्मों और उसकी दुर्बुद्धि की कठोरतम शब्दों में भर्त्सना करते हुए हेलेन ने लिखा था कि ‘यह मत सोचना कि यहूदियों के साथ तुम्हारी बर्बरता यहाँ अनजानी है। तुम्हारे लिए बेहतर होगा कि गले में चक्की का पत्थर लटकाकर समुद्र में डूब जाओ, बजाय सभी लोगों से घृणा और तिरस्कार पाने के।’ (सप्रेस) 

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