लेखन, पत्रकारिता, जनांदोलन, जनहित की पैरवी जैसे कामों की वजह से प्रसिद्ध, गोवा के क्लॉड और नोर्मा अल्वारिस किताबों की अपनी दुकान ‘अदर इंडिया बुक स्टोर’ के कारण भी सामाजिक, गैर-दलीय राजनीतिक और एनजीओ बिरादरी में पहचाने जाते हैं। पिछले दिनों उनकी इस दुकान ने आखिरी बार अपने शटर्स गिरा दिए हैं। आखिर ‘तीसरी दुनिया’ की इस बेहद जरूरी किताब की दुकान को क्यों बंद करना पडा? बता रहे हैं, पत्रकार फ्रेडरिक नरोन्हा।
एक छोटी ‘अमेजन डॉट कॉम’ की तरह चलने वाली किताबों की दुकान की कल्पना करें, तो आप पाएंगे कि लंबे समय तक इसके बारे में सोचा भी नहीं गया था। गोवा की ‘अदर इंडिया बुक स्टोर’ (ओआईबीएस) ने मेल-ऑर्डर तरीके का पहली बार सफल प्रयोग किया था, वर्ष 1994 में जेफ बेजोस के ‘अमेजान’ के प्रयोग से एक दशक पूर्व। पर अब किताबों की यह प्रतिष्ठित दुकान ‘ओआईबीएस’ बंद हो गई है। वह आज की किताबों की बिक्री, प्रकाशन और वितरण के दबावों और मौजूदा महामारी से बच नहीं पाई। दरअसल, बहुत अधिक छूट और डिजिटल संस्करणों के आने से यह बुरी तरह प्रभावित हो गई थी।
‘ओआईबीएस’ भारतीय शहरों और कस्बों की किताबों की दुकानों की उस एक लंबी सूची में से एक थी, जो हाल के दिनों में बंद हो गई हैं। यह एक ऐसे देश और समाज में हुआ है जहां पहले से ही किताबों की दुकानें कम थीं। पुणे (‘लोकप्रिय,’ ‘मैनीज़,’ ‘ट्विस्ट ‘एन टेल्स’), मुंबई (‘स्ट्रैंड’), श्रीनगर (‘लैंडमार्क’), नई दिल्ली (‘फुल सर्कल’) और हैदराबाद (‘वाल्डन’) में किताबों की दुकानें बंद हो गयी हैं। संभव है, देश की अन्य छोटी और अपरिचित जगहों में भी किताबों की दुकानें धीरे-धीरे अब बंद हो रही हों। अकेले गोवा में भी ये दुकानें संघर्ष कर रही हैं। अंजुना-बीच के पास मुख्य सड़क के किनारे आकर्षक और एक अनूठी किताब की दुकान ‘पीपल ट्री’ (जो दिल्ली और गोवा दोनों जगह है) हाल ही में बंद हुई है।
लेकिन ‘ओआइबीएस’ का बन्द होना एक अलग कहानी है। इसकी शुरुआत 1980 के दशक के मध्य में एक खास नजरिए के साथ हुई थी। किताबों, किताबों की बिक्री व पाठकों की किताबों में रुचि पैदा करने के लिए इसका एक अनूठा दृष्टिकोण था। पहले इसे ‘थर्ड वर्ल्ड बुकस्टोर सोसायटी’ के रूप में जाना जाता था और इसका लक्ष्य एशियाई और अफ्रीकी साहित्य का “उत्सव मनाना और इसे बढ़ावा देना” था।
इसकी अवधारणा-कल्पना के साथ इसकी स्थापना का काम नोर्मा अल्वारिस और उनके पति व पर्यावरणविद् डॉ. क्लॉड अल्वारिस ने किया था। जन-आंदोलनों की दुनिया में ये दोनों ही पहचाने नाम हैं। नोर्मा एक नामचीन ‘ग्रीन’ वकील हैं और क्लॉड ने एक स्वतंत्र पत्रकार के रूप में अपने करियर की शुरुआत करते हुए पर्यावरण संबंधी आंदोलनकारी के रूप में राष्ट्रव्यापी प्रभाव डाला। वे ‘बाहरी’ वातावरण से अप्रभावित रहने वाले उन युवाओं में से थे, जो 1970 के दशक में भारत के बड़े शहरों में मचने वाली ‘चूहा-दौड़’ से निकलकर वापस गोवा लौटे थे।
मामले को अधिक गहराई से समझने के लिए इस छोटी सी किताब की दुकान के दृष्टिकोण और प्रभाव को देखने की जरूरत है। गोवा एक छोटा सा राज्य है, जहां किताबें पढ़ने की सीमित सुविधा है। अकेले इसी कारण से, ‘ओआईबीएस’ का फोकस मेल-ऑर्डर पर रहा था। यह समझा गया था कि उन दिनों कई भारतीय शहरों में किताबों की दुकानों की कमी होगी। साथ ही, भारत में ढेर सारी वैकल्पिक जानकारियां आ रही थीं, लेकिन उन तक पहुँचना आसान नहीं था। किताबों की इस दुकान ने उस सारी सामग्री को एक जगह लाने, इसे सार्वजनिक करने और डाक के माध्यम से इसे देश भर में वितरित करने में मदद की।
शुरुआत के दिनों में किताबों की यह दुकान वैकल्पिक और ‘गैर-सरकारी संगठनों’ (एनजीओ) से जुड़े साहित्य और एशिया, अफ्रीका की सामग्री पर केंद्रित थी। “हम जानते थे कि हमारे पास साहित्य का खजाना है, हमारे पास इतने सारे लेखक हैं और भारत उनके बारे में कुछ नहीं जानता। हम किताबों के लिए एशिया और अफ्रीका के देशों में भी पहुँचे” – नोर्मा का कहना था।
वे किताबों की दुकानों को खंगालने के लिए युगांडा, तंजानिया और केन्या तक गए। उनका कोई एकल स्रोत नहीं था और उनके पास कोई मास्टर कैटलॉग भी नहीं था। उन्हें किताबों के ‘टाइटल’ की पहचान करनी पड़ी। उन्हें यह भी निर्णय लेना पडा कि उन किताबों में पाठकों को रुचि होगी भी या नहीं। अफ्रीकी किताबों की दुकानें चाहती थीं कि भारतीय खरीदार लंदन से अपनी किताबें खरीदें। उन किताबों की कीमतें पाउंड-स्टर्लिंग में तय की गई थीं। इसलिए ‘ओआईबीएस’ ने पुस्तकों को अधिक किफायती दरों पर बेचने और इसके और तरीके खोजने की बातचीत की।
‘ओआईबीएस’ एक ऐसी संस्था बन गई जो कई दशकों तक चली। यह न केवल गोवा के लिए, बल्कि पूरे भारत में एक विशाल पाठक व ग्राहक वर्गों के लिए थी। यहां तक कि अन्य देशों के लोगों के बीच भी यह लोकप्रिय थी जिन्होंने इसके बारे में अलग-अलग स्रोतों से सुना था। दरअसल, इस संस्था के बारे काफी बातें हर जगह सुनी जा सकती थीं। कुछ ही समय में, इसने गोवा को लेकर पुस्तकों का संभवत: पहला संपूर्ण संग्रह स्थापित किया। इनमें कई स्व-प्रकाशित थे। एक बार फिर पुस्तकों के शीर्षकों की एक निश्चित सूची बनाना और उसे एक साथ रखना कठिन बन गया।
किताबों की दुकान उत्तरी-गोवा के मुख्य व्यावसायिक शहर मापुसा में स्थित थी। ये शहर किताबों या अन्य बौद्धिक चीजों की बजाए अपने खास मसालों और रंग-बिरंगे शुक्रवार-बाजार के लिए ज्यादा जाना जाता है। इसके बावजूद ‘लोनली प्लैनेट’ पत्रिका की ‘ट्रैवल गाइड’ में इस दुकान का उल्लेख हुआ है। ‘ओआईबीएस’ कई विदेशी पर्यटकों को भी आकर्षित करता था जो शहर के शुक्रवार-बाजार का दौरा करने के बाद यहां रुकते थे।
‘ओआईबीएस’ एक गैर-लाभकारी संस्था थी, लेकिन इसके बाद भी इसने अच्छा कारोबार किया। अपने सर्वोच्च लाभ वाले दिनों में इसने 25 रुपए तक कमाए। निश्चित तौर पर यह राशि उन दिनों एक महत्वपूर्ण राशि थी। ‘लोनली प्लैनेट’ ने इसे गोवा में “सर्वश्रेष्ठ किताबों की दुकान” बताया था। उसने बताया था कि इस दुकान में यूरोप या अमेरिका का कोई प्रकाशन नहीं है, यहाँ केवल एशिया, अफ्रीका या लैटिन अमेरिका के प्रकाशन उपलब्ध हैं।
1990 के दशक के उत्तरार्ध में ‘ओआईबीएस’ के प्रबंधक जेरी रोड्रिग्स ने बताया था कि उन्हें किताब बिक्री की इस वैकल्पिक अवधारणा को आगे बढाने और ‘मुख्यधारा के आउटलेट के साथ भी प्रतिस्पर्धा करने में सक्षम’ होने पर गर्व है। शुरुआती दिनों में इसका उद्देश्य एशिया के अन्य हिस्सों, विशेष रूप से मलेशिया और फिलीपींस में प्रकाशित पुस्तकों और पत्रिकाओं को बढ़ावा देना था।
ऐसी दुनिया में जहां यूरो केंद्रित विचारों का प्रभुत्व है, ‘ओआईबीएस’ ने एशिया और अफ्रीका के वैकल्पिक भारतीय विचारों और लेखन पर अपना ध्यान केंद्रित किया। इसके चयन में मेक्सिको से साहित्य, भूटान से बच्चों की कहानियां, मलेशियाई वकील के दौरे का विश्लेषण और हिंदुत्व की राजनीति या लंका का संघर्ष समझने के लिए कुछ प्राथमिक स्तर की पुस्तकें शामिल थीं।
इस संस्था ने अपने प्रकाशनों को पूरे भारत में फैलाने की कोशिश की थी। इसकी खासियत थी – किताबें ‘आपके दरवाजे पर’ पहुंचेंगी। मौसम की कठिनाईयों को झेलते हुए हजारों किलोमीटर की ट्रेन यात्रा के बाद भी ग्राहकों को किताबें अच्छी तरह से पैक मिलती थीं।
धीरे-धीरे एनजीओ से लेकर विश्वविद्यालयों और कॉलेजों तक इसके ग्राहक बढ़ते गए। ‘ओआईबीएस’ जिन किताबों को प्रसारित कर रहा था, उन्हें किताबों की बडी दुकानों ने भी लेना शुरू कर दिया था। उनकी बेहतरीन पहल उनके द्वारा दी जाने वाली पुस्तकों और गोवा की पुस्तकों की एक सावधानीपूर्वक तैयार की गई सूची थी। ये कैटलॉग संग्रहणीय के साथ-साथ पुस्तक खरीदारों के लिए जानकारी का स्रोत भी बन गए। ऐसी ही एक सूची में एक हजार ‘टाइटल’ को सूचीबद्ध किया गया था। यही वजह थी कि मेघालय, यहां तक कि अंडमान द्वीप समूह से भी ऑर्डर आए।
बुकशॉप के पार्टनर, ‘अदर इंडिया प्रेस’ ने ‘ऑर्गेनिक फार्मिंग सोर्स बुक’ जैसे कुछ मूल्यवान कार्यों को प्रकाशित किया। यह 344-पृष्ठ का एक वृहद् ग्रंथ है जिसमें संपूर्ण भारत में जैविक खेती से जुड़े नवीन और नवाचार कार्यों और किसानों के काम पर प्रकाश डालता है। पूर्व केंद्रीय मंत्री मेनका गांधी की पशु अधिकारों से जुड़ी पुस्तक ‘हेड्स एंड टेल्स’, 13 संस्करणों तक प्रकाशित हुई।
प्राकृतिक खेती के जापानी गुरु मासानोबु फुकुओका द्वारा एक दर्जन से अधिक संस्करणों के साथ आई पुस्तक ‘वन स्ट्रॉ रिवोल्यूशन’ ‘ओआईबीएस’ की बेस्टसेलर थी। ‘मछली, करी और चावल’ गोवा पर व्यापक रूप से पढी जाने वाली पर्यावरण रिपोर्ट थी। धर्मपाल पर किए गए इसके कार्यों ने भारत में होने वाली चर्चाओं को बदलकर रख दिया।
अफसोस की बात है कि पिछले डेढ़ दशक से यह बंद पड़ा हुआ था। अब पुस्तक व्यवसाय बदल गया था। तकनीक की वजह से अब लोग अधिक पढ़ रहे थे और कम खरीद रहे थे। अब किताबों के पार्सल डाक से भेजने से काम नहीं चलता। ऑनलाइन रहने वाले पाठकों का सामना करने के लिए अब यह एक ‘स्टैंडअलोन’ व्यवसाय अधिक हो गया था, जहां केवल पैसा बर्बाद नहीं किया जाता।
नोर्मा कहती हैं: ‘हमें कोई नहीं मिला जो उसी परंपरा में, जैसे इसे चलाया गया था, इसे आगे बढ़ाता। हमारे मैनेजर ने चार-पांच साल पहले छोड़ दिया था। 25 साल से हमारे दो साथी इसे चलाते रहे, लेकिन कोविड ने इसे भी झटका दिया। बिक्री गिर गई। लोगों की किताबें खरीदने में बिल्कुल भी दिलचस्पी नहीं थी। यह एक समग्र संकट है।’ (सप्रेस)
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