एक प्रभावी शिक्षक होने के लिए लगातार जुटे रहने और तैयारी की जरूरत होती है और उसे दैनिक अभ्यास में लाने के लिए उचित परिस्थितियों की जरूरत होती है| लेकिन भारत का ठीक से न काम करने वाला शिक्षक शिक्षा तंत्र हमारे शिक्षकों को अपर्याप्त तैयारी के साथ शालाओं में भेजता है इसलिए वे न तो शैक्षणिक क्षमताओं से लैस होते हैं और न ही प्रभावी रूप से बच्चों को संभाल पाते हैं|
मैंने पिछली बार प्रश्न रखा था- बच्चों को स्कूल में जो सीखना चाहिए वे क्यों सीख नहीं पा रहे हैं ? यह बच्चों से जुड़े कई बुनियादी मुद्दों की जाँच करता है| आईए, इस बार शिक्षकों के बारे में जो कहा जा रहा है कि “कैसे शिक्षक बच्चों के न सीखने का कारण बनते हैं” को जाँचने का प्रयास करते हैं|
पहली, शायद यह कि शिक्षक को जो पढ़ाना है वह बेहद कठिन है| यहाँ हम बुनियादी गणित और भाषा की बात कर रहे हैं तो मुद्दा इतना कठिन नहीं होना चाहिए| फिर भी एक छह साल के बच्चे के लिए इसमें से बहुत कुछ उतना ही जटिल हो सकता है जितना कि हममें से ज्यादातर लोगों के लिए ‘अत्याधुनिक संख्या सिद्धांत’ होगा| दो संबंधित चुनौतियाँ शिक्षण को कठिन बनाती हैं| पहली तो यह कि बच्चे अपने घर और पड़ोस में जो भाषा बोलते हैं वह अक्सर उस भाषा से अलग होती है जिस भाषा में स्कूल में पढ़ाई होती है| दूसरी, शिक्षकों का आमतौर पर यह मानना कि उनका काम सिर्फ पाठ्यपुस्तक को पढ़ाना है, जो कि एक गड़बड़ मान्यता है| बुनियादी गणित और भाषा अपने आप में इतनी कठिन नहीं हैं कि शिक्षक उन्हें पढ़ा न सकें लेकिन ये दूसरी समस्याएँ दिक्कत बढ़ा देती हैं|
दूसरा, शायद शिक्षकों के पास वह क्षमता ही नहीं है जो उनके पास होनी चाहिए| एक शिक्षक की क्षमताओं के कई आयाम होते हैं| इनमें से दो बेहद महत्वपूर्ण हैं- किसी विषय विशेष को कैसे पढ़ाना है, के लिए शैक्षणिक क्षमता; और पाठ्यक्रम के अनुसार सीखने को सुनिश्चित करने बच्चों को प्रभावी ढंग से संभालने की क्षमता| दोनों की क्षमताएँ जटिल और चुनौतीपूर्ण हैं| एक प्रभावी शिक्षक होने के लिए लगातार जुटे रहने और तैयारी की जरूरत होती है और उसे दैनिक अभ्यास में लाने के लिए उचित परिस्थितियों की जरूरत होती है| लेकिन भारत का ठीक से न काम करने वाला शिक्षक शिक्षा तंत्र हमारे शिक्षकों को अपर्याप्त तैयारी के साथ शालाओं में भेजता है इसलिए वे न तो शैक्षणिक क्षमताओं से लैस होते हैं और न ही प्रभावी रूप से बच्चों को संभाल पाते हैं| साथ ही प्रभावी रूप से काम करने के लिए एक सहयोगी वातावरण की आवश्यकता भी होती है| मैं इस बिंदु पर मैं कुछ देर बाद आऊँगा|
तीसरा, शायद शिक्षकों का रवैया ही ठीक नहीं है| लेकिन निस्संदेह रूप से यह सच नहीं है| भारत में लगभग 10 मिलियन शिक्षक हैं, जो कि बड़ी संख्या है| जब तक हमने पढ़ाने के लिए जानबूझकर कर ख़राब रवैये वाले शिक्षकों का चयन न किया हो, उनका रवैया वैसा ही रहेगा जैसा कि हमारे देश की साधारण जनता का है| दूसरी सम्भावना यह हो सकती है कि भारतीयों का औसतन रवैया ही ख़राब है| इनमें से दोनों ही सही नहीं हैं| वास्तविकता में कुछ शिक्षक बेहद सकारात्मक होते हैं, कुछ बेहद नकारात्मक लेकिन इनमें से ज्यादातर औसत तरह के होते हैं जो- इन दोनों चरम सीमाओं के बीच में होते हैं| हमारे देश के लोगों के किसी बड़े समूह की तरह|
चौथा, शायद हमारे शिक्षक उतना प्रेरित नहीं हैं जितना होना चाहिए| “प्रेरणा” जटिल कारकों का कार्य है| इस मामले को मोटे तौर पर “रवैये” की तरह वर्गीकृत किया जाता है जिस पर हम बात कर ही चुके हैं| अब बचता है तो कई कारणों का एक समूह जो किसी व्यक्ति की परिस्थितियों से जुड़ा होता है और उसकी “प्रेरणा” को प्रभावित करता है| इसमें स्कूल का भौतिक वातावरण भी शामिल होता है जैसे कि- शौचालयों की अनुपलब्धता| इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि शिक्षक के साथ शाला में और समुदाय में कैसा व्यवहार किया जाता है ? शिक्षकों के साथ यह व्यवहार, शाला की संस्कृति और पूरे शिक्षा तंत्र में समाया हुआ है जो यह यह निर्धारित करता है कि शिक्षक कितने सहयोगी, सशक्त और मूल्यवान समझे जाते हैं| इस सत्य को परे रखते हुए कि शिक्षक ही शिक्षा तंत्र की धुरी हैं और निशक्त होते हुए भी पूरा समाज, संस्कृति और शिक्षा तंत्र उन्हें शिक्षा की सारी बुराईयों के लिए कसूरवार ठहराता है| तब हम अपने शिक्षकों से “प्रेरित” रहने की उम्मीद कैसे रख सकते हैं? शिक्षकों के साथ अनुचित व्यवहार शाला में शौचालय न होने से भी ज्यादा ख़राब है| और फिर भी शिक्षक जुटे हुए हैं|
पाँचवां- शायद शिक्षकों के पास पर्याप्त संसाधनों की कमी है| यह सच है| न सिर्फ उनके पास अपर्याप्त संसाधन हैं बल्कि जो संसाधन हैं उनकी गुणवत्ता भी ख़राब है| पाठ्यपुस्तकों से लेकर शाला भवन तक यह सूची लंबी है|
छटवाँ शायद वे काम के बोझ से दबे हैं| यह भी कई मायनों में सच है| बहुतेरे शिक्षकों को एक ही समय पर कई कक्षाओं के बच्चों के समूहों को संभालना पड़ता है| अन्य प्रशासनिक काम जो उनका समय मांगते हैं, से वे अपने मूलभूत काम शिक्षण पर कम समय दे पाते हैं| इसके अलावा हमारे स्कूलों में आने वाले ज्यादातर बच्चे वंचित घरों से आते हैं और कई बच्चे काफी गरीब घरों से हैं, इन घरों में बच्चों को किसी तरह की शैक्षणिक मदद नहीं मिल पाती है| और इसकी भरपाई शिक्षकों को ही करनी होती है| यह उन कई बोझों में से है जिन्हें शिक्षकों को ढोना पड़ता है| सार यह कि बिना इन अतिरिक्त जिम्मेदारियों के भी शिक्षक की भूमिका पहले से ही असाधारण रूप से कठिन और चुनौतियों से भरी है, जो निश्चित तौर पर शिक्षकों पर अतिरिक्त कार्यभार डालती है|
इन सभी छह कारणों के बीच जटिल अंतःक्रिया होती है| उदाहरण के लिए शिक्षक बनने की तैयारी अगर ठीक से न हो तो शिक्षक की क्षमता अपर्याप्त होती है, फिर भी उससे शिक्षा का एकमात्र कर्ता-धर्ता होने की उम्मीद की जाती है क्योंकि बच्चों को घर पर किसी तरह की कोई सहायता नहीं मिल पाती है| और जैसे वह प्रतिदिन, साल दर साल बच्चों को पढ़ाने के लिए उनके सामने खड़ी होती है, वह हतोत्साहित महसूस करती है| वह उन समस्याओं के लिए भी जिम्मेवार ठहराई जाती है जिनकी जड़ें शिक्षा तंत्र और सामाजिक मुद्दों से जुड़ी हैं|
हमारे शिक्षक तो बस औसत भारतीय हैं| वे हमारे आसपास रहने वाले लोगों का ही एक समूह हैं जो भलेमानुष हैं अपनी जिम्मेदारियों से नहीं बचते हैं लेकिन जब परिस्थितियाँ उनके खिलाफ होती हैं तो वे संघर्ष करते हैं| हमारे देश में सीखने को लेकर वैसे ही संकट है और यह शिक्षकों की वजह से नहीं है| (मिंट में प्रकाशित आलेख से अनुदित)
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