शंकर शरण

महात्‍मा गांधी के समूचे जीवन को देखें तो उस पर एक ‘जंतर’ का प्रभाव साफ दिखाई पडता है। सबसे गरीब और कमजोर आदमी को ध्‍यान में रखकर अपने कामकाज और भविष्‍य को तय करने के इस ‘जंतर’ ने गांधीजी के निजी, सार्वजनिक और राजनीतिक जीवन को सदा प्रभावित रखा। क्‍या होता, यदि गांधीजी के इस ‘जंतर’ को उनकी समकालीन और आजादी के बाद की पीढी ने भी समझा और आत्‍मसात किया होता? प्रस्‍तुत है, गांधीजी के इसी ‘जंतर’ की पडताल करता शंकर शरण का यह लेख।–संपादक

गाँधीजी कोई उदभट विद्वान नहीं थे, न सम्मोहित करने वाले वक्ता। न उनके व्यक्तित्व में कोई अन्य ऐसी विशेषता थी, जो उन्हें सामान्य लोगों से अलग करती हो। फिर भी उस साधारण व्यक्ति ने कुछ ऐसा काम किया कि उसे इतिहास में एक अनूठे महापुरुष के रूप में स्थान दिया गया। बीसवीं शती का अंत होने पर कई आकलनों में गाँधीजी को शती के सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति की संज्ञा दी गई। अतः यह प्रश्न सदैव प्रासंगिक रहेगा कि एक राजनीतिज्ञ के रूप में उनकी सबसे बड़ी विशेषता क्या थी?

एक बार गाँधीजी ने कहा था कि उनका जीवन ही उनका संदेश है। तो क्या था, वह संदेश? इसके तरह-तरह के उत्तर दिए जाते रहे हैं, किंतु हमारी समझ में वह उनके उस जंतर में छिपा है, जो उन्होंने अपनी विरासत के रूप में छोड़ा था। उनके अपने ही शब्दों में, “तुम्हें एक ताबीज देता हूँ। जब भी तुम्हें संदेह हो या तुम्हारा अहम तुम पर हावी होने लगे, तो यह कसौटी आजमाओ – जो सबसे गरीब और कमजोर आदमी तुमने देखा हो, उसकी शक्ल याद करो और अपने दिल से पूछो कि जो कदम उठाने का तुम विचार कर रहे हो, वह उस आदमी के लिए कितना उपयोगी होगा। क्या उससे उन करोड़ों लोगों को स्वराज्य मिल सकेगा, जिनके पेट भूखे और आत्मा अतृप्त है? तब तुम देखोगे कि तुम्हारा संदेह मिट रहा है और अहम समाप्त होता जा रहा है।”

यह ‘जंतर’ कभी बैरिस्टर मोहन दास ने ट्रांसवाल (दक्षिण अफ्रीका) में अनायास ही पाया था। बाद में उनके विभिन्न कार्यों और अनुभवों से यह प्रमाणित होकर निखरा। यही ‘जंतर’ गाँधीजी की सबसे बड़ी देन थी। यह और बात है कि उनके इस ‘जंतर’ को देशवासियों ने ही नहीं, उनके सबसे निकट के अनुयायियों ने भी शीघ्र ही भुला दिया। सच तो यह है कि उन अनुयायियों ने संभवतः इस ‘जंतर’ को कभी हृदय से ग्रहण ही नहीं किया था! महात्मा के रूप में उन्हें आदर, श्रद्धा तो दी जाती रही, किंतु उनके सबसे कीमती संदेश, उस ‘जंतर’ को किसी नेता ने नहीं अपनाया। स्वतंत्र भारत के संपूर्ण राजनीतिक नेतृत्व को देखकर यह निस्संदेह कहा जा सकता है। 

उस ‘जंतर’ की प्रभावशीलता कितनी गहरी थी, गाँधीजी का पूरा जीवन इसका प्रमाण है। इस ‘जंतर’ ने एक सामान्य व्यक्ति को महात्मा में परिवर्तित कर दिया। सन् 1915 में जब गाँधीजी दक्षिण अफ्रीका से लौट कर भारत आए, तब तक यह खुरदुरा ‘जंतर’ उनके हाथ लग चुका था। ट्रांसवाल में किए गए उनके सत्याग्रह से उनका नाम पहले ही भारत पहुँच गया था और ‘भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस’ के तत्कालीन नेता गाँधीजी का उपयोग करने को उत्सुक थे। परंतु गाँधीजी ने कोई कदम उठाने से पहले संपूर्ण भारत को स्वयं अपनी आँखों से देखना, समझना आवश्यक समझा, ताकि जिस जनता के नाम पर सामाजिक-राजनीतिक संघर्ष चलना था, उसे वह निकट से जान सकें।

यह एक छोटी सी, किंतु बड़ी गहरी बात थी। एक अर्थ में यह उस ‘जंतर’ का प्रयोग ही था। उस देश-दर्शन के बाद गाँधीजी ने कई मह्त्वपूर्ण निर्णय लिए। प्रथम, एक साधारण किसान की वेश-भूषा अपना ली। दूसरे, अंग्रेजी को त्याग कर हिन्दी को अपने काम की भाषा बनाया। तीसरे, यात्रा के लिए सदैव रेल के सबसे निचले, तीसरे दर्जे का चुनाव किया। चौथा, रहने के लिए साधारण झोपड़ी को अपना स्थान बनाया। इन सभी निर्णयों को जोड़ने वाली कड़ी एक ही थी – देश के सर्वसाधारण से अपने को जोड़ने का प्रयास। यह उस ‘जंतर’ के निर्देश पर गाँधीजी द्वारा भारत में लिए गए ऐसे प्रारंभिक निर्णय थे जिसके जल्द ही चमत्कारिक परिणाम मिले।

कांग्रेस से भी गाँधीजी ने जो सबसे पहला आह्वान किया, वह भी उस ‘जंतर’ से ही प्रेरित था। उन्होंने बंबई, लाहौर, इलाहाबाद जैसे बड़े शहरों में रहने वाले कांग्रेस नेताओं और कार्यकर्ताओं से गाँवों में जाने के लिए कहा। उन्होंने यह स्पष्ट देख लिया था कि शहरों में रहने वाली काँग्रेस भारत के हजारों गाँवों और वहाँ रहने वाली जनता से बहुत दूर थी। उतनी ही दूर, जितने आज दिल्ली के पाँच सितारा होटलों में सेमिनार करने वाले समाजसेवी, ‘एनजीओ’ तथा साऊथ ब्लॉक में बैठने वाले कर्णधार देश की सामान्य जनता से हैं।

जब गाँधीजी भारत में कांग्रेस के पहले अधिवेशन में पहुँचे, तो उन्होंने देखा कि शिविरों के पाखाने गन्दे और उपेक्षित पड़े हैं। पूछने पर कार्यकर्ताओं ने बताया कि उनकी सफाई का काम भंगियों का है, जिन्हें उल्टे तब अछूत भी कहा जाता था। गाँधीजी ने इस तर्क तो तत्क्षण अस्वीकार कर दिया और स्वयं बाल्टी-झाड़ू लेकर सफाई में जुट गए। इस तरह ‘जंतर’ ने दूसरा संदेश दिया, कि सबकी गंदगी उठाने वाला मनुष्य नीच नहीं। वह तुम जैसा है, समान है। साथ ही यह भी कि सेवा या रचनात्मक कार्य दूसरों को उपदेश देकर नहीं, स्वयं नियमित भागीदार होकर, प्रत्यक्ष करो। अन्य लोग उदाहरण से सीखें, तो सीखें।

अर्थात, जो सामाजिक परिवर्तन आवश्यक हैं, उसके लिए नेतृत्वकारी लोगों को स्वयं उस रूप में प्रस्तुत करना होगा। गाँधीजी को यह तर्क अमान्य था कि ‘जब सब बदलेंगे, तो हम भी बदलेंगे।’ उनके अनुसार तो जैसा हम दूसरों को देखना चाहते हैं, वैसा स्वयं होकर दिखाएं। उसका नित्य अभ्यास करें। इसीलिए गांधीजी ने शिक्षित युवकों का आह्वान किया कि वे गाँवों में जाकर, संयमित जीवन अपना कर रचनात्मक कार्यों द्वारा स्वयं को और दूसरों को भी बदलें। इसी तरीके से जनता में नई चेतना और विश्वास का जन्म होगा। तभी नेता और जनता में सहज संबंध विकसित होगा तथा स्वराज्य का आधार तैयार होगा।

गाँधीजी ने कांग्रेस को रचनात्मकता, सेवा और अहिंसात्मक संघर्ष का रास्ता बताने के लिए एक चौदह सूत्री कार्यक्रम दिया। उसमें कुछ प्रमुख कार्य थे  – प्रत्यक्ष जुड़कर अस्पृश्यता को समाप्त करना, सफाई का काम करना, स्त्रियों की सामाजिक स्थिति बदलने का काम, सब धर्मों का आदर, ग्रामीण उद्योगों को प्रोत्साहन, केवल घर के बने खादी के वस्त्र पहनना, रोज सूत कातना आदि। इन सबमें उस ‘जंतर’ का प्रभाव झलकता है जो न केवल राजनीतिक आंदोलन में, बल्कि सामाजिक नव-निर्माण में भी सबसे गरीब आदमी की अनिवार्य तथा सम्मानपूर्ण भागीदारी सुनिश्चित करता था।

गाँधीजी का दृढ़ विश्वास था कि इन कार्यक्रमों में भाग लेने से गाँव-गाँव में भारत के ऊँच और नीच, अमीर और गरीब, हिन्दू और मुसलमान, पुरुष और स्त्री स्वयं को समान धरातल पर महसूस करना सीख सकेंगे। सेवा और रचनात्मक कार्यों के निरंतर अभ्यास से ही स्वशासन का वह आधार तैयार हो सकता है जिससे भारत का कायाकल्प होगा। स्वराज्य गाँधीजी के लिए स्वशासन का ही दूसरा नाम था, जिसमें किसी शासित के ऊपर कोई अलग शासक वर्ग नहीं होगा। स्वशासन को इतने निचले स्तर पर ले जाने की कल्पना थी जिसमें राज्यतंत्र की औपचारिक मशीनरी के लिए अधिक काम नहीं बचता था। बहुत हद तक प्राचीन भारतीय राजनीतिक प्रणालियों का स्वरूप भी ऐसा ही होता था । वही भारत के विश्व-विख्यात ‘ग्राम-समाज’ का आधार रहा था जिसे कार्ल मार्क्स जैसे क्रांतिवादी तो बुरा मानते थे, किंतु जो गाँधीजी की स्वराज्य की कल्पना औऱ भारतीय मानस के अनुकूल था ।  

अन्याय के प्रतिरोध में भी वह ‘जंतर’ ही गाँधीजी का ध्रुवतारा था। नील की खेती करने वाले चम्पारण के किसानों ने जब गाँधीजी से अपने नेतृत्‍व की गुहार की थी, तो अपनी पद्धति के अनुरूप उन्होंने सबसे पहले वहाँ जाकर स्थिति को स्वयं पूरी तरह समझने का निर्णय किया। इस दौरान ब्रिटिश अधिकारियों ने गाँधीजी को जिला छोड़ने का आदेश दिया। गाँधीजी ने आदेश नहीं माना, गिरफ्तार हुए। पूरे जिले में आंदोलन की स्थिति आ गई। तब उन्हें छोड़ दिया गया। अंततः गाँधीजी ने लगभग बीस हजार किसानों की बातें सुनी, उनका बयान दर्ज किया। तब अधिकारियों ने जाँच-समिति बिठाकर किसानों की सबसे गंभीर शिकायतों को दूर किया।

अहिंसात्मक सत्याग्रह भी गाँधीजी के ‘जंतर’ से निकला एक मौलिक उपाय था, जिसका सामान्यतः किसी भी जुल्म के विरुद्ध उपयोग किया जा सकता था। इसका उपयोग केवल शक्तिवान, धनी और सुशिक्षित व्यक्ति ही नहीं, सबसे दुर्बल व्यक्ति भी कर सकता था, लेकिन शर्त थी कि इसे अन्यायी के प्रति द्वेष या किसी प्रकार की हिंसा से मुक्त रहना चाहिए। उनकी दृष्टि में तभी उससे वांछित फल की प्राप्ति संभव है और जिससे कोई अवांछित दुष्प्रभाव नहीं निकलेंगे। गाँधीजी के अपने शब्दों में, “हम अपने नुकसान पहुँचाने वाले को नुक्सान पहुँचाएं, तो इससे दोनों की हानि होती है। अगर हम जुल्म करने वाले के आगे न झुकें, तो वह जुल्म कर ही नहीं सकता। … गुलामी अन्यायपूर्ण आज्ञा मानने में है, (अन्यायी की) लात खाने में नहीं। लात खाने पर भी हम बदले में लात न मारें, यही सच्ची वीरता और मनुष्यता है।” अपवाद और विशिष्ट स्थितियों को छोड़ दें, तो यह संदेश वास्तव में उपयोगी है। यह कोई कायरता का रास्ता नहीं, बल्कि बदले की तुलना में अधिक कठिन है।

भारत में ब्रिटिश राज की मनमानियों के विरुद्ध गाँधीजी ने सत्याग्रह के इसी रास्ते का उपयोग किया था। परिणामस्वरूप 1921 में देश का बहुत बड़ा हिस्सा उठ खड़ा हुआ। लगा कि शांतिपूर्ण सत्याग्रह के दर्शन को सबने समझ लिया है। पर चौरी-चौरा में कांग्रेस का एक जुलूस उग्र हो गया और उसने एक थाने को जलाकर बाइस पुलिसकर्मियों की जान ले ली। इस पर गाँधीजी ने संपूर्ण आंदोलन को वापस ले लिया। उन्होंने स्वीकार किया कि अहिंसात्मक सत्याग्रह के दर्शन को लोगों ने ठीक से समझा नहीं है। चौरी-चौरा की गलती के पश्चाताप के रूप में वे स्वयं उपवास पर बैठे (उनके शब्दों में, “उपवास मुर्झाई चेतना को जाग्रत कर देता है और प्रेमी हृदयों को कार्य में प्रवृत्त करता है।”) उन्होंने कांग्रेस को निर्देश दिया कि आंदोलन को त्यागकर गाँवों में रचनात्मक, सेवा कार्यों में लग जाएं। उनके विचार में अहिंसात्मक सत्याग्रह के सिपाही के लिए रचनात्मक कार्य और सेवा वही काम करते हैं, जो नियमित कवायद, सैनिकों के लिए।

कांग्रेस के कई नेताओं और गाँधीजी के सहयोगियों को यह उचित नहीं लगा कि अहिंसा की शर्त में कहीं किसी के द्वारा चूक हो जाने के कारण पूरे देश में आंदोलन रोक दिया जाए। वे सब मुख्यतः ब्रिटिश शासन से आजादी चाहते थे और इसके लिए रास्ते अपनाने की शर्तबंदियों पर ढीला रुख अपनाना चाहते थे। किंतु गाँधीजी का लक्ष्य उससे अधिक ऊँचा था। वे केवल अंग्रेजों को हटाना नहीं, बल्कि इस तरह से हटाना चाहते थे कि उसके बाद भारत स्वशासन के योग्य बन सके।  वे ‘बिना अंग्रेजों के अंग्रेजी राज्य’ बिलकुल नहीं चाहते थे। क्योंकि उनकी दृष्टि में तो यह ‘बाघ को हटाकर स्वयं बाघ बन जाना’ होता। यद्यपि भारत के दुर्भाग्य से बाद में हुआ ठीक यही।

गाँधीजी के लिए स्वराज्य एक ऐसी नैतिक, अहिंसात्मक स्थिति थी, जो देश के जीवन के हर पक्ष के लिए आवश्यक थी। उसमें उँच-नीच का भेद, हिंदू-मुसलमान के झगड़े, अंग्रेजी भाषा का प्रभुत्व तथा अंग्रेजों से घृणा आदि को भी खत्म होना था। उनके सपनों का भारत ग्रामीण इकाइयों का लोकोन्मुख स्वशासन था, जिसमें वर्गीय-भेद का कोई स्थान न होता। यदि यह न हो सके, तो गाँधीजी की दृष्टि में अंग्रेजों के चले जाने मात्र से भारत जरा भी सुखी नहीं होगा। इसीलिए वे कहते थे कि कांग्रेस यदि सेवा, अहिंसा और रचनात्मक कार्य को अपने स्वभाव में नहीं ढाल लेती, तो अंग्रेजों से मुक्ति लेने भर का कोई विशेष अर्थ नहीं होगा। तब तक स्वराज्य भारत के सबसे दुर्बल, सबसे गरीब व्यक्ति का स्वराज्य नहीं होगा। गाँधीजी सांस्थानिक परिवर्तनों से लोगों, नेताओं के आत्मिक, चारित्रिक परिवर्तन को अधिक आवश्यक मानते थे।

गाँधीजी की ये बातें उनके निकट अनुयायियों और स्वतंत्र भारत के भावी कर्णधारों को मन से स्वीकार्य नहीं हुईं, किंतु यह तो सभी जानते थे कि जनता के हृदय पर गाँधीजी की अदभुत पकड़ थी। उनके आह्वान पर कई बार करोड़ों लोग उठ खड़े होते और बैठ जाते थे। इसे गाँधीजी की निजी चमत्कारिक क्षमता बताया जाता है। जबकि इसका रहस्य वास्तव में यही था कि गाँधीजी अपने प्रत्येक कदम को अपने ‘जंतर’ से मिलाकर देखते थे। उसी के अनुरूप वह आंदोलन का विषय, स्वरूप आदि तय करते थे। सन् 1930 में जब उन्होंने ‘नमक सत्याग्रह’ और ‘दांडी यात्रा’ का निर्णय लिया, तो कांग्रेस के नेता बड़े निराश हुए। नेहरू जी लिखते हैं, “हम चकित थे कि राष्ट्रीय आंदोलन चलाने के कार्यक्रम में यह साधारण नमक कहाँ से फिट होगा?”  पर जब आंदोलन चला तो इसने देश के बच्चे-बच्चे को अनुप्राणित कर दिया। वही नेहरू बाद में स्वीकार करते हैं, “एकाएक नमक रहस्यमय शब्द बन गया, जिसमें भारी शक्ति आ गई। … आंदोलन का जबर्दस्त विस्तार देखकर हम झेंप कर रह गए और पहले संदेह व्यक्त करने के लिए शर्मिंदा भी हुए।” ‘नमक सत्याग्रह’ की शक्ति और कुछ नहीं, सबसे अंतिम आदमी के दृष्टिकोण से तय किया गया आंदोलन ही था। नमक पर टैक्स गरीब आदमी पर लगाया जाने वाला सबसे अन्यायपूर्ण टैक्स था, जिसका विरोध कर पूरे देश को एकबद्ध होकर ‘उठाया’ जा सका। इसी सत्याग्रह में उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रांत (अब बलूचिस्तान, पाकिस्तान) में खान अब्दुल गफ्फार खान ने विशाल संख्या में मुस्लिम जनता का सफलतापूर्वक नेतृत्व किया था। पुलिस के हाथों कठोर कार्रवाई झेल कर भी जुझारू माने जाने वाले पठानों ने प्रतिकार में एक हाथ तक नहीं उठाया था।

यह समझना बड़ी भूल है कि गाँधीजी के विचार, विश्वास और सिद्धांत अव्यवहारिक हैं या अब उनका समय नहीं रहा। सच यह है कि उनके अपने समय में भी गाँधीजी के विचारों को उनके अनेक सहयोगी अव्यवहारिक और विचित्र ही माना करते थे। आश्चर्य तो यह है कि उन विचारों, तरीकों की व्यवहारिकता और जनता द्वारा बार-बार स्वीकृति प्रमाणित होते रहने के बाद भी कांग्रेस के अन्य नेताओं ने गाँधीजी के अहिंसात्मक सत्याग्रह, सेवा और रचनात्मक कार्य के त्रिकोणीय सिद्धांत को हृदय से कभी आत्मसात नहीं किया। उसे वे सब मात्र एक सफल ‘तकनीक’ मान कर बैठ गए थे।

गाँधीजी जीवनपर्यंत अपने सभी कार्य उसी ‘जंतर’ के सहयोग से करते रहे। जब ब्रिटिश सरकार ने अछूतों के लिए अलग ‘निर्वाचक मंडल’ की घोषणा कर हिंदुओं को और भी बाँटने की चाल चली, तो गाँधीजी ने प्राण देकर भी उसका विरोध करने का निश्चय किया। उनकी दृष्टि में यह राजनैतिक आरक्षण भारत की सामाजिक एकता को स्थाई रूप से विखंडित करने वाला था। इस के विरुद्ध उन्होंने आमरण अनशन शुरु किया जो सत्याग्रह का अंतिम उपाय है। एक बार फिर कांग्रेस के अनेक नेता क्षुब्ध हुए कि गाँधीजी अपने उत्सर्ग के लिए भी एक ‘छोटे’ किस्म का मुद्दा चुन रहे हैं। किंतु फिर पूरे देश ने उन्हें गलत और गाँधीजी को सही साबित किया। अछूतों को बराबरी का अधिकार देने के लिए पूरा देश तत्पर हो उठा। सवर्ण ब्राह्मणों ने कई जगह उनके लिए मंदिरों के दरवाजे खोल दिए। जनमत इतना कटिबद्ध था कि अंततः ब्रिटिश सरकार को अपना निर्णय वापस लेना ही पड़ा।

इस प्रकार सत्याग्रह और सेवा का यह रचनात्मक दर्शन व्यवहार में कई बार सफल हुआ। फिर भी अंततः यह कांग्रेस और देश का मार्गदर्शक सिद्धांत नहीं बन सका। एक हद तक इसका कारण मुसलमानों के बीच गाँधीजी की विफलता थी। किंतु एक कारण यह भी था कि स्वयं कांग्रेस के अग्रणी नेता उस दर्शन पर विश्वास नहीं करते थे। इसीलिए अंततः जिन्ना के ‘द्वि-राष्ट्र सिद्धांत’ का प्रतिकार नहीं किया जा सका और मुट्ठी भर इस्लामी नेता मुसलमानों को अपने पीछे ले जाने में सफल हो गए। यह सच है कि गाँधीजी हिंदू-मुस्लिम भेद को पाटने में तथा मुहम्मदी मतावलंबियों को कायल करने में असमर्थ साबित हुए। फिर भी यदि कांग्रेस ने गाँधीजी के दर्शन व सत्याग्रह को एक उपयोगी राजनीतिक तकनीक मात्र न समझा होता, तो संभवतः स्वराज्य किसी और रूप में आता।

कांग्रेस ने गाँधीजी के ‘जंतर’ को नहीं अपनाया, इसीलिए विदेशी शासन से मुक्ति मिलने के बाद भी भारत का पथ वह नहीं हुआ जिसकी सामान्य लोगों ने कल्पना की थी। कांग्रेस देश को उसी राज्य-नियंत्रित, उपभोगवादी और ईसाई-प्रोटेस्टेंट लोकतंत्री ढर्रे पर ले गई, जिसे अमेरिका और यूरोप ने विकसित किया था। इसका सबसे दुर्भाग्यपूर्ण उदाहरण था कि नए भारत का संविधान बनाने में दुनिया भर के देशों (मानव सभ्यता की दृष्टि से लगभग नवजात, अल्प-अनुभव वाले) के संविधानों का अध्ययन करके उनकी भारी नकल की गई, किंतु स्वयं भारत की विकसित सभ्यता की सदियों तक चली सफल धर्म-नीति, विदेशी शासन के पहले के राज्यनीति संबंधी विस्तृत अनुभवों को उसमें कोई स्थान नहीं दिया गया और न ही गाँधीजी की किसी कल्पना को, जो उन्होंने स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात स्पष्ट रूप से बनाकर दी थी। इसके बदले जब स्वतंत्र भारत का तथाकथित निर्माण आरंभ हुआ तो राजकीय क्षेत्र की अर्थव्यवस्था को खूब बढ़ाकर सोवियत साम्यवाद की नकल भी की गई, जो उसी यूरोपीय सभ्यता का ही एक अन्य रूप था।

अतएव 1947 के बाद भारत में प्रशासन, अर्थतंत्र, भाषा, शिक्षा आदि किसी भी क्षेत्र में गाँधीजी का ‘जंतर’ हमारा पथ-प्रदर्शक नहीं बन सका। हम विदेशी शासन से तो मुक्त हुए, किंतु स्वतंत्र नहीं हो सके। हमारे विचार, शासन-व्यवस्था, शिक्षा प्रणाली आदि सभी उन्हीं विदेशी शासकों का अनुकरण करती रही। जैसे कांग्रेस ने ‘राष्ट्रीय आंदोलन’ को एक राजनीतिक आंदोलन मात्र समझा था, उसी तरह भारत के नव-निर्माण को भी उन्होंने एक आर्थिक-प्रशासनिक कार्य ही समझा। उसी शोषणकारी रूप में, जिसके लिए अंग्रेजों ने भारत की संपूर्ण प्रणाली बनाई थी। यह सब पूरी तरह भुलाकर भारतीय नेताओं ने उसी व्यवस्था, कानूनों, परंपराओं और अंग्रेजी औपनिवेशिक वर्चस्व को लगभग यथावत चलाते रहने का निर्णय किया। पश्चिमी शिक्षा से गहरे प्रभावित होने और अपने देश की महान सभ्यतागत विरासत से प्रायः अनजान होने के कारण अचेत रूप से उन्होंने पश्चिमी श्रेष्ठता के उस मिथ्या-प्रचार को आत्मसात कर लिया जो यूरोपीय शासकों ने अपने निहित स्वार्थ पूरे करने के लिए चलाया था। इसी प्रभाव में नए भारत के शासकों ने वही पश्चिमी, प्रोटेस्टेंट धारणा अपना ली कि मनुष्य का केवल शरीर होता है, आत्मा नहीं। हो भी तो उसका कोई विशेष प्रयोजन नहीं। मानो जीवन तो दूसरी बातों से चलता है।

इसीलिए यह मान लिया गया कि प्रत्येक व्यक्ति को अधिक-से-अधिक रूपये, वस्तुएं और सुविधाएं चाहिए। यही जीवन का मूल-मंत्र मान लिया गया। ऐसा मानते हुए नैतिक, आध्यात्मिक भावनाओं और भारत की अनूठी धर्म-चेतना को कोई स्थान नहीं दिया गया। इस प्रकार मात्र भौतिकवादी आधार पर नए भारत की अर्थनीति, राजनीति और शिक्षा-नीति बनाई गई। अतः स्वभाविक है कि आज स्टॉक बाजार, कंप्यूटर तकनीक, मीडिया, शिक्षा आदि सभी तंत्र मानो केवल मनुष्य की ऐंद्रिक तृप्ति के लिए नई-नई चीजें बनाने की गरज पूरी करने में लगे हैं। यहीं पश्चिमी सभ्यता के भौतिकवादी दर्शन का अंत हो जाता है। इसीलिए वह तमाम प्रगति और विकास के बावजूद बढ़ती अनैतिकता, झगड़े, असंतोष, युद्ध, दुराचार तथा असंख्य सामाजिक व्याधियों के सामने निरुत्तर भी हो जाता है। पश्चिमी उदारवाद, सेक्यूलर-प्रोटेस्टेंट लोकतंत्र, सोवियत मार्क्सवाद या अमेरिकी बाजारवाद किसी के पास सामाजिक रुग्णता तथा आत्मिक खोखलेपन का उपचार नहीं है।

आखिर हो भी कैसे? अधिक-से-अधिक की छीना-झपटी के बीच किसी को गाँधीजी की धन की परिभाषा समझने का अवकाश ही नहीं है, “जीवन के अलावा और कोई धन नहीं होता। वही देश सबसे धनी है, जहाँ सबसे अधिक संख्या में भले और प्रसन्न इंसान रहते हों। वह मनुष्य ही सबसे धनी है, जो अपने कार्य को उच्चतम दक्षता और दिशा देने के बाद अधिक-से-अधिक लोगों को तन-मन-धन से अधिकाधिक सहयोग और सद्भाव दे पाता है।” इससे यह नहीं समझना चाहिए कि गाँधीजी भूख को आध्यात्म से संतुष्ट करने की बात कहते थे। उल्टे उन्होंने यही कहा था कि भूखे का भगवान रोटी ही है। इस दृष्टि से देखें तो अमेरिका आज भी भारत से अधिक दरिद्र है। अमेरिका के न्यू ओरलिएंस में कैटरीना तूफान के बाद स्थानीय लोगों की स्थिति की तुलना उड़ीसा के तूफान या गुजरात के भूकंप के बाद स्थानीय भारतीयों की स्थिति से तुलना करके अमरीकियों की तुलनात्मक दरिद्रता को समझा जा सकता है। उस सभ्यता की दरिद्रता जहाँ केवल राज्य है और उसके समक्ष आध्यात्मिक चेतना से हीन, अलग-अलग, असहाय व्यक्ति जिनके पास राज्य के अतिरिक्त किसी ओर देखने का उपाय नहीं है।

यह अनुमान लगाना कठिन नहीं है कि यदि गाँधीजी और जीवित रहते तो क्या रास्ता चुनते। “यदि मैं स्वतंत्रता मिलने के बाद भी जीवित रहा तो संभवतः अपने ही देशवासियों के विरुद्ध अहिंसात्मक संघर्ष करूँगा। …राजनीति में सुधार करना ही मेरा कर्तव्य होगा।” गाँधीजी का ‘जंतर’ इसके अतिरिक्त और कुछ बता भी नहीं सकता था, जब करोड़ों लोग बुरी अवस्था में रह रहे हों। अपने ‘जंतर’ को उन्होंने अपने जीवन पर खतरा देखकर भी नहीं छोड़ा था। भारत को स्वतंत्रता देश के खूनी विभाजन के साथ मिली थी। कुछ हिंदू नेता गाँधीजी के राजनीतिक व्यवहार को मुस्लिम-परस्त और पाकिस्तान-परस्त समझते थे। उन पर एकाध हमला हो भी चुका था। इस स्थिति में गृहमंत्री सरदार पटेल ने गाँधीजी की सुरक्षा की व्यवस्था करनी चाही तो उन्होंने मना कर दिया। उससे गाँधीजी तक सबसे गरीब और दुर्बल के पहुँचने का रास्ता भी बंद हो जाता। गाँधीजी सबसे अंतिम देशवासी से जुड़े रहने पर अपने मृत्युपर्यंत अडिग रहे। उनके ‘जंतर’ के अनुसार यही उचित था। आखिर मृत्यु के सामने तो सबको एक बार देनदार होना ही होता है। तब तनिक और समय तक जीवन-रक्षा के लिए अपने मूल विश्वास के साथ समझौता क्यों? आज गाँधीजी का वह अनमोल ‘जंतर’ कहीं खो गया है, और किसी राजनेता या समाजसेवी को उसकी आवश्यकता भी महसूस नहीं होती…(सप्रेस) 

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