पचास के दशक में विनोबा भावे की अगुआई में शुरु हुआ ‘भूदान आंदोलन’ अब किस परिस्थिति में है? क्या उसने अपने घोषित उद्देश्यों में कुछ हासिल किया है? आज भूमि वितरण के इस महायज्ञ में क्या जोडा जा सकता है?
स्वतंत्र भारत में हुए अनेक आंदोलनों में से विनोबा भाबे के नेतृत्व वाला ‘भूदान आंदोलन’ सबसे महत्वपूर्ण आंदोलनों में से एक है। इस आंदोलन के माध्यम से विनोबा भारत में क्रांति लाने में सफल रहे। विनोबा की क्रांति भारत की मूल समस्याओं के समाधान में एक बड़ा कदम थी। आर्थिक असमानता को दूर करने में आंदोलन के प्रयास उल्लेखनीय थे।
आजादी के ठीक बाद एक और स्वतंत्रता आंदोलन आया जिसे भारत के लोगों की आर्थिक मुक्ति कहा गया। भारत की राजनीतिक मुक्ति के बाद विनोबा के आर्थिक स्वतंत्रता के प्रयासों और ‘भूदान आंदोलन’ ने भारतीयों के मन में हलचल पैदा कर दी। विनोबा की भूदान यात्रा, भूदान यज्ञ का प्रचार और उसके बाद ग्रामदान, जिलादान, राज्यदान, संपत्तिदान और जीवनदान के आंदोलन ने पूरी दुनिया में सनसनी मचा दी। यह आन्दोलन कुछ ही दिनों में जन आन्दोलन में बदल गया।
यह आंदोलन भारत के पड़ोसी देश पाकिस्तान में भी शुरू हुआ। चीनी भू-राजनीतिक व्यवस्था का अनुसरण करते हुए भारत में भी वैसी ही व्यवस्था लागू करने की सोच रखने वाले विनोबा अंततः तेलंगाना से शुरू होकर भूदान की गंगा को पूरे देश में फैलाने में सफल रहे। भूदान के आह्वान ने जमींदारों से दान में मिली जमीन को भूमिहीनों में बांटकर बिनोबा ने नई राह दिखाई, नए विचार पैदा किए, दुनिया के अरबों लोगों को दान की संस्कृति से परिचित कराया और कई लोगों की आंखें खोलने में मदद की।
पौराणिक युग में जमीन के लिए महाभारत युद्ध से शुरू होकर, हाल के दिनों में कई देशों में जमीन के लिए मानव का संघर्ष बहुत अधिक हुआ है। कहां राजशाही और राजशाही के हाथों से धरती माता को मुक्त कराने की पुकार है और कहां जमींदारों और जागीरदारों के हाथों से धरती को मुक्त कराने का प्रयास है। इन कोशिशों के बीच कितनी जानें गईं और कितना खून बहा, इसका अंदाज़ा लगाना मुश्किल है। यह जमीन देशों के बीच युद्धों का कारण है, परिवारों के बीच संघर्ष का कारण है। उसी प्रकार यह जमीन भाइयों के बीच झगड़े का कारण होती है।
इन अंतहीन संघर्षों, युद्धों तथा हिंसा को समाप्त करने की आवश्यकता है। ‘भूदान आंदोलन’ ने पूरे देश में जो चेतना विकसित की, उसने दुनिया में जो सांस्कृतिक वातावरण तैयार किया, उसका मूल्यांकन करने की जरूरत है। ‘भूदान आंदोलन’ के परिणामस्वरूप, कई बेघर परिवार भूमि प्राप्त करने और अपनी आजीविका में सुधार करने में सक्षम हुए, उनके जीवन में बदलाव संभव हुआ।
इसी प्रकार, जिन लोगों ने भूमि दान करके अपनी उदारता का परिचय दिया, वे समाज के सामूहिक विकास में भाग लेने में सक्षम हुए, लेकिन भूदान की सफलता आर्थिक असमानता को दूर करने के लिए पर्याप्त नहीं थी। सरकारी नीतियों ने अमीरों को और अमीर तथा गरीबों को और गरीब बनाने में मदद की है। इसके कारण अमीर-गरीब के बीच की खाई नहीं मिट सकी, विषमताएं समाप्त नहीं हो सकीं और करुणा से परिपूर्ण समतामूलक समाज संभव नहीं हो सका।
वह दिन था, 18 अप्रैल 1951। आज के तेलंगाना राज्य के पोचमपल्ली गांव में बाबा विनोबा के अनुरोध और प्रोत्साहन से भारत के इतिहास में एक नया अध्याय जुड़ा। उस दिन की घटना ने विश्व में जिस नये आन्दोलन को जन्म दिया, वह था ‘भूदान आन्दोलन।’ जब तेलंगाना की निराश्रित, अत्यंत गरीब जनता, भूख हड़ताल पर बैठी महिलाएं अपराध करने से नहीं हिचकिचाईं, जब संबंधित क्षेत्रों में खून के प्यासे लोगों का खून-खराबा होने लगा, तो संत विनोबा का हृदय टूट गया। उन्होंने तेलंगाना जाकर वहां के विद्रोहियों से बातचीत कर उनकी समस्याओं को समझा और वहां के गरीब लोगों की समस्याओं का स्थायी समाधान खोजने के प्रयास शुरू किये।
इसके परिणामस्वरूप ‘भूदान आन्दोलन’ प्रारम्भ हुआ और स्थानीय जमींदार रामचन्द्र रेड्डी इसके पहले दानी बने। खूनी तेलंगाना से शांति और समृद्धि का जो संदेश विनोबा ने दिया, उसे भारत की जनता ने स्वीकार कर लिया। परिणामस्वरूप, बाबा विनोबा ने भूदान के लिए पूरे देश में भूमि एकत्र की और उसे भूमिहीन, बेघरों में वितरित किया। इस तरह उन्होंने गरीबी, अभाव और दरिद्रता को दूर करने में एक मजबूत योगदान दिया। विनोबा ने भारत के हर परिवार से अपना हिस्सा मांगा। विनोबा ने स्वयं को उस परिवार के सदस्य के रूप में प्रस्तुत किया और भारत की जनता ने भी विनोबा को अपने परिवार के सदस्य के रूप में स्वीकार कर लिया।
भूदान आंदोलन के 73 वर्षों के बाद आज देश और दुनिया के अरबों लोगों के लिए जमीन एक और बड़ी समस्या बनकर उभरी है, जिसने मानव समाज के लिए जीवन-मरण की स्थिति पैदा कर दी है। जमीन में जहर घोलकर लोगों को विभिन्न बीमारियों से मारने, कंपनी पूंजी का विकास करने, कॉरपोरेट को मजबूत करने तथा शासन और शोषण की सारी रस्सियां अपने हाथों में रखने की योजना धीरे-धीरे हमारे देश और दुनिया भर में सफल हो रही है। इस योजना में विश्व के विकसित देशों को प्रथम एवं द्वितीय श्रेणी के देशों तथा तृतीय विश्व के देशों के लोगों की आजीविका को नष्ट करने का षडयंत्र रचा गया है।
तीसरी दुनिया के भौगोलिक क्षेत्रों पर कब्ज़ा करने और वहां कॉर्पोरेट साम्राज्यवाद का नेतृत्व करने की योजनाओं पर काम चल रहा है। ‘तीसरी दुनिया’ की कृषि पद्धतियों को समाप्त करने का प्रयास भी ऐसा ही है। जब रासायनिक कृषि, कंपनी-संचालित कृषि और कॉर्पोरेट कृषि को पारंपरिक खेती, प्राकृतिक खेती और जैविक खेती के नुकसान के लिए बढ़ावा दिया जाता है और जब मानव-आधारित विकास को दफन कर दिया जाता है और पूंजी-आधारित विकास पर जोर दिया जाता है तब इस प्रणाली का विरोध किया जाना चाहिए। रासायनिक खेती, कंपनी संचालित खेती और कॉरपोरेट खेती के खिलाफ एक जोरदार जन आंदोलन की जरूरत है।
इस दिशा में कुछ प्रयास किये जा रहे हैं, लेकिन यह एक सीमित वातावरण तक ही हैं। इसकी व्यापकता आवश्यक है। इसके लिए पारंपरिक, प्राकृतिक और जैविक खेती को आगे बढ़ाना होगा और खेतों और किसानों को कंपनियों या कॉरपोरेट पूंजीवाद के हाथों से मुक्त कराना होगा। इसी उद्देश्य से ‘भू-मुक्ति आंदोलन’ आज आवश्यक हो गया है। जमीन सुरक्षित रहेगी तो जीवन सुरक्षित रहेगा। यदि भूमि से विषैली प्रक्रिया दूर हो जाये तो मानव शरीर स्वस्थ रहेगा। जब जमीन कंपनियों और कारपोरेटों के हाथ से मुक्त होगी तो मानव सभ्यता की मुक्ति का रास्ता खुलेगा। क्या सुखी जीवन, रोगमुक्त शरीर, समस्यामुक्त विश्व के लिए भू-मुक्ति आंदोलन आवश्यक नहीं है? (सप्रेस)
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