अमन नम्र
स्व. जयप्रकाश नारायण द्वारा स्थापित ‘गांधी विद्या संस्थान’ समेत ‘सर्व सेवा संघ’ के राजघाट, वाराणसी परिसर पर सरकार द्वारा बलात कब्जा किया जाना हर तरह से निंदनीय है। देश भर में इस सरकारी कारनामे के विरोध में तीखी आवाजें उठ रही हैं, लेकिन कुछ वरिष्ठ लेखक-पत्रकार समूची गांधी-बिरादरी’ के कामकाज पर सवाल भी उठा रहे हैं। इनमें से एक अमन ‘नम्र’ हैं जो वरिष्ठ लेखक-पत्रकार होने और राजघाट परिसर में अपना बचपन गुजारने के अलावा गांधी-बिरादरी से निकटता से जुडे हैं। इस घटना पर अमन ‘नम्र’ का यह लेख।
सर्व सेवा संघ, वाराणसी पर सरकारी कब्जा गांधी और सर्वोदयी विचारों को दफनाने की मुहिम का एक नया पड़ाव है। अगर न्यायालय से राहत नहीं मिली या कोई और चमत्कार नहीं हुआ तो 30 जून को सर्व सेवा संघ के वाराणसी स्थित तमाम भवन ध्वस्त कर दिए जाएंगे। शायद इस खबर पर हैरान, परेशान होना चाहिए, पर चाहकर भी ऐसा हो नहीं पा रहा है। पता नहीं क्यों, ऐसा लग रहा है कि इस सर्व सेवा संघ की ‘आत्मा’ तो बहुत पहले ही इसे छोड़कर जा चुकी थी।
चिंता की बात तो यह है कि जहां कुछ गांधीवादी, सर्वोदयी लोग अभी भी इसे बचाने की लगभग हार चुकी लड़ाई लड़ने की जद्दोजहद कर रहे हैं, वहीं कुछ गांधी और सर्वोदय जीवी ऐसे भी हैं जो इस ‘विध्वंस’ के बदले मुआवजे की मांग कर रहे हैं। यानी, गांधी और सर्वोदयी विचारों पर बनी संस्था को खत्म करने के बदले सरकार कम-से-कम मुआवजा तो दे दे।
यह अमृतकाल का स्वयोंदय है। जी हां, स्वयं का उदय। गांधी, विनोबा, जेपी जिस सर्वोदय यानी सर्व के उदय की बात करते थे और जिनके हितों के संघर्ष करते-करते विदा हो गए, उनके बहुत से अनुयायी अब सर्वोदय से स्वयोंदय की ओर बढ़ चुके हैं।
इसी संदर्भ में आज यह भी सोचने का सही अवसर है कि आखिर ऐसा क्यों हुआ। इसे समझने के लिए एक छोटा – सा सवाल पूछा जा सकता है। नोकिया, कोडेक और सर्व सेवा संघ में क्या समानता है? आप कहेंगे कि ये कैसा सवाल हुआ भला? लेकिन सच मानिए यह कोई मजाक नहीं, बेहद गंभीर प्रश्न है। मैं एक बार फिर दोहराता हूं, नोकिया, कोडेक और सर्व सेवा संघ में क्या समानता है? आइए देखते हैं।
नोकिया को आप सभी जानते ही होंगे, जब दुनिया भर में नया-नया मोबाइल लॉन्च हुआ था तो नोकिया मोबाइल का पर्यायवाची-सा बन गया था। मोबाइल खरीदने के लिए नोकिया कहना भर काफी था, पर आज मोबाइल के ग्लोबल मार्केट में यह कहां है। इसी तरह कोडेक को देखिए, फोटोग्राफी के शौकीन हों या नौसिखिए, फोटो खींचने के लिए कोडक सर्वमान्य ब्रांड और नाम था। आज किसी नई पीढ़ी के साथी से कोडक के बारे में पूछेंगे तो शायद उसे गूगल सर्च करना पड़ जाए। तो क्या सर्व सेवा संघ के बारे में पूछने पर भी उसे गूगल सर्च करना पड़ेगा। सौ फीसदी गारंटी है कि हां।
बस यही समानता है, नोकिया, कोडक और सर्व सेवा संघ में। जिस तरह इन दो बड़े ब्रांड वाली कंपनियों ने खुद को समय के साथ नहीं बदला, न उनके आगे बढ़ने की कोई दिशा थी, ना ही प्रेरणा। उनका अपने उपयोगकर्ताओं के साथ संवाद भी नहीं बन पाया और ना ही वे अपनी साख बना या बचा पाए। क्या यही हाल सर्व सेवा संघ का नहीं हुआ है।
आज की छोड़िए, 1977 में जनता पार्टी की गठबंधन सरकार के बनने के बाद से सर्व सेवा संघ का देश की राजनीति, अर्थनीति या सामाजिक अथवा बौद्धिक विकास में कितना सक्रिय योगदान रहा। देश के बढ़ने और गढ़ने में सर्वोदयी या गांधीवादी विचारकों, चिंतकों की हिस्सेदारी सेमिनार, सम्मेलन या लेख और भाषणों से आगे नहीं बढ़ पाई।
जेपी के संपूर्ण क्रांति आंदोलन में ही सर्व सेवा संघ ने अपने जीवन काल की सबसे सक्रिय भूमिका निभाई थी। शायद उसी दौर में कमाई गई साख, सम्मान, लोकप्रियता के बल पर इस सर्वोदयी संगठन से जुड़े लोग पूरी जिंदगी बिताना चाहते थे। पर ऐसा नहीं होता है। गांधी के बाद जेपी और कुछ लोगों को लगा कि जेपी के बाद वीपी, यानी विश्वनाथ प्रताप सिंह देश की राजनीति में गांधीवादी मूल्यों को आगे बढ़ाने का काम करेंगे। वीपी सिंह ने शिक्षा नीति के बड़े बदलाव के लिए आचार्य राममूर्ति को शिक्षा समीक्षा समिति का अध्यक्ष बनाकर शायद इसकी कोशिश की भी थी, पर यह असफल रही। देश की बागडोर अंतत: कांग्रेस और भाजपा के ऐसे नेताओं के हाथ में ही बारी-बारी से आती-जाती रही जिनके लिए गांधीवादी मूल्य और सर्वोदयी विचार कोई मायने नहीं रखते थे।
कांग्रेस तो फिर भी अपनी वैचारिक पृष्ठभूमि और गांधी, नेहरू, विनोबा की विरासत के चलते इन संस्थाओं में दखल देने से बचती रही। लेकिन सर्व सेवा संघ हो या साबरमती आश्रम या फिर सेवाग्राम, इन सभी ने मान लिया कि वे अजर, अमर हैं। वे देश की ऐसी धरोहर हैं कि चॉकलेट के विज्ञापन ‘कभी-कभी कुछ नहीं करना बेहतर होता है‘ को ही अपना मूल मंत्र मान बैठे। उनके कुछ न करने से देश की बागडोर उन हाथों में गई, जिनकी विचारधारा गांधी के हत्यारों से मेल खाती थी।
जाहिर है कि गांधी के विचारों से नफरत करने वाली सत्ता गांधी के अस्तित्व को बचाने के लिए भला कुछ भी क्यों करेगी। और कुछ भी न करके गांधीवादी, सर्वोदयी नेताओं ने सत्ता का काम और भी आसान कर दिया। अगर खुदा न खास्ता, गांधीवादी या सर्वोदयी संस्थाएं, कार्यकर्ता या नेता सामाजिक या राजनीतिक तौर पर मुखर या सक्रिय होते और देश के तमाम जन मुद्दों पर खुलकर जनता के साथ खड़े होते तो शायद वर्तमान सत्ता को उनके खिलाफ कुछ करने के लिए दो बार सोचना पड़ता। लेकिन उनका कुछ न करना, सत्ता के लिए कुछ करने का मजबूत आधार बन गया।
बहरहाल, पहले गांधी जी का अहमदाबाद स्थित साबरमती आश्रम और अब बनारस का सर्व सेवा संघ सरकार की अलिखित, अघोषित गांधी विचार मिटाओ नीति की भेंट चढ़ गया है। इसे बचाने की कोशिश का ज्यादा कुछ फायदा होगा, ऐसा लगता नहीं है। ज्यादा से ज्यादा शायद कोर्ट से कुछ दिनों की राहत मिल जाए। पर आज नहीं तो कल, इन संस्थाओं को मिटना ही है। अगर इस बारे में गांधी जी के प्रपौत्र तुषार गांधी के विचार सुनें तो चीजें और साफ नजर आएंगी। वे कहते हैं- आंतरिक राजनीति ओर आंतरिक सत्ता संघर्षो में सारी संस्थाएं बंटी हुई हैं। कई गांधीवादी संस्थाओं में संघियों की घुसपैठ हो गई है और उनका ही कब्जा भी हो गया है। कुछ कथित गांधीवादी हैं जो संस्थाओं पर कब्जा करके बैठे हुए हैं, वे बिल्कुल बेध्यान होकर, केवल अपनी सत्ता, अपनी कुर्सी टिकाए रखने की होड़ में पड़े हुए हैं।
ऐसे में यही सच है वे लोग उन सवालों पर बिल्कुल सक्रिय नहीं हैं जो भारत और भारत के लोगों से जुड़े हैं। अगर सर्व सेवा संघ की ही बात करें तो भूदान आंदोलन के बाद भूदान में मिली जमीनों का उन्हें कस्टोडियन बनाया गया था। आज किसानों की समस्या इतनी गहरी और बड़ी है कि किसानों के अस्तित्व पर बात आ गई है। दो साल किसानों का आंदोलन चला, आज भी किसान असंतुष्ट है। उस आंदोलन में सर्व सेवा संघ के लोग कहीं भी नहीं दिखे। आप साबरमती आश्रम की ही बात करें। संघी सरकार के लिए कितना आसान हो गया है साबरमती आश्रम को कैप्चर करना। कुछ ही सालों में ये साबरमती आश्रम की तस्वीर ऐसी बदल देंगे कि उसमें बापू कहीं दिखाई भी नहीं देंगे। या जो गांधी उन्हें अनुकूल लगता है, उसे ही दिखाएंगे। (सप्रेस)
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