बाबा आमटे: पुण्यतिथि (09 फरवरी)
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9 फरवरी 2008 एक ऐसा दिन जब भारत ने निस्वार्थ सेवा के अद्वितीय उदाहरण “बाबा आमटे” को खो दिया। लेकिन क्या बाबा आमटे वाकई चले गए? नहीं! वे आज भी जीवित हैं, हर उस मुस्कान में जो आनंदवन में खिलती है, हर उस उम्मीद में जो निराशा के अंधेरे को चीरकर रोशनी तक पहुंचती है, हर उस हाथ में जो परिश्रम से आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ता है, हर उस कदम में जो संकोच और बाधाओं को लांघकर आत्मसम्मान की राह पर चलता है।
प्रो. आरके जैन “अरिजीत“
बाबा आमटे एक नाम से कहीं बढ़कर हैं, वे एक विचार हैं जो यह सिद्ध करता है कि परोपकार दया नहीं, बल्कि आत्मनिर्भरता का ही दूसरा नाम है। उनका जीवन मात्र समाजसेवा नहीं, बल्कि एक धधकती क्रांति की जीवंत दास्तान है—एक ऐसी क्रांति, जिसने उन्हें समाज के हाशिए पर तिरस्कृत, उपेक्षित और लांछित जीवन जीने वाले वंचितों का निष्ठावान पथिक बना दिया। वे केवल कुष्ठरोगियों के नहीं, बल्कि हर उस आत्मा के मसीहा थे, जिसकी पुकार समाज के कोलाहल में दब गई थी।
मुरलीधर देविदास आमटे—एक ऐसा नाम, जो दुनिया के लिए बाबा आमटे बना। 26 दिसंबर 1914 को महाराष्ट्र के हिंगणघाट में जन्मे, वे एक समृद्ध और प्रतिष्ठित परिवार के लाल थे। उनका बचपन विलासिता से परिपूर्ण था—रेशमी कुर्ते, सुनहरी जरी की टोपियाँ, महंगे राजसी जूते और ऐश्वर्य से भरा जीवन। वे तेज रफ्तार गाड़ियों के दीवाने थे, सिनेमा के शौकीन थे और भव्यता उनकी जीवनशैली का हिस्सा थी। लेकिन नियति ने उनके लिए कुछ और ही तय कर रखा था। किसने सोचा होगा कि यह वैभव में पला-बढ़ा युवक एक दिन अपनी सारी सुख-सुविधाएँ त्याग देगा और समाज के सबसे वंचित, तिरस्कृत और उपेक्षित लोगों का मसीहा बन जाएगा? जिसने कभी विलासिता का स्वाद चखा था, वह स्वयं कष्टों को अपनाकर दूसरों के लिए आशा की किरण बन जाएगा। उनका जीवन सिर्फ एक परिवर्तन नहीं, बल्कि एक युगांतरकारी क्रांति की कहानी है, जिसने करुणा को आत्मनिर्भरता और सेवा को समर्पण में परिवर्तित कर दिया।
उनकी युवावस्था में समाज में व्याप्त अन्याय, शोषण और असमानता ने उनकी आत्मा को गहराई तक झकझोर दिया। नागपुर के मिशनरी स्कूल से एम.ए. और एल.एल.बी. की डिग्री हासिल करने के बाद वे एक कुशल वकील बने, लेकिन न्याय की परिभाषा उन्हें सिर्फ कानून की किताबों में सजीव दिखी, वास्तविक जीवन में वह कहीं खो सा गया था। अदालतों में फैसले लिखे जाते थे, मगर इंसानियत बेबस और लाचार खड़ी थी। फिर एक दिन ऐसा आया जिसने उनकी पूरी सोच बदल दी। जब उन्होंने एक असहाय कुष्ठ रोगी को सड़क के किनारे तड़पते देखा, जिसे समाज घृणा और उपेक्षा की नजरों से देख रहा था, तो उनका हृदय पिघल गया। यह क्षण उनके जीवन की दिशा बदलने वाला था। उन्होंने न केवल उस रोगी की सेवा की, बल्कि उसी क्षण यह प्रण लिया कि अब उनका जीवन उन्हीं के लिए समर्पित होगा, जिन्हें समाज ने तिरस्कृत कर दिया है।
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1949 में महाराष्ट्र के चंद्रपुर जिले की पावन धरा पर बाबा आमटे ने आनंदवन की स्थापना की—एक ऐसा स्थान जो केवल एक चिकित्सा केंद्र नहीं, बल्कि स्वाभिमान, आत्मनिर्भरता और मानवता का जीवंत मंदिर बन गया। यह मात्र ईंट-पत्थरों की संरचना नहीं थी, बल्कि यह एक संघर्षशील आत्माओं की पुनर्जन्म स्थली थी, जहाँ असहायता को सामर्थ्य में, तिरस्कार को सम्मान में और पराजय को विजय में परिवर्तित किया गया। आनंदवन केवल उपचार का स्थल नहीं था, बल्कि एक नई सोच, एक नए युग और एक नई सामाजिक क्रांति का प्रतीक बना। यहाँ न केवल कुष्ठ रोगियों के घावों पर मरहम लगाया गया, बल्कि उनके भीतर स्वाभिमान और आत्मगौरव की ज्योति प्रज्ज्वलित की गई। यह वह भूमि बनी जहाँ अपमान सहने वाले हाथ हुनरमंद बने, जहाँ बेबस निगाहों में आत्मविश्वास लौटा, और जहाँ जीवन से हारे हुए लोग फिर से अपने पैरों पर खड़े हुए। बाबा आमटे का दृढ़ विश्वास था कि दान किसी समस्या का समाधान नहीं, बल्कि व्यक्ति को आत्मनिर्भर बनाना ही सच्ची सेवा है। उनका सिद्धांत स्पष्ट था—किसी को मोहताज बनाना नहीं, बल्कि उसे सशक्त कर उसके भीतर यह विश्वास भरना कि वह अपने भाग्य का स्वयं निर्माता है। यही कारण था कि आनंदवन केवल पुनर्वास का केंद्र नहीं, बल्कि “कर्तव्य और कर्म की प्रयोगशाला” बन गया, जहाँ पीड़ा को प्रेरणा में बदला गया और जीवन को एक नई दिशा दी गई।
बाबा आमटे की सेवा केवल कुष्ठ रोगियों तक सीमित नहीं थी, बल्कि समाज के हर उपेक्षित, शोषित और वंचित वर्ग के उत्थान के लिए उनका संकल्प अडिग था। वे आदिवासियों, दिव्यांगों और उन सभी जरूरतमंदों के हिमायती बने, जिन्हें समाज ने हाशिए पर धकेल दिया था। उनके लिए मानवता की सच्ची सेवा का अर्थ केवल सहानुभूति नहीं, बल्कि स्वाभिमान और आत्मनिर्भरता का पुनर्जागरण था। प्रकृति से उनका गहरा संबंध था। वे मानते थे कि पर्यावरण संरक्षण केवल एक दायित्व नहीं, बल्कि मानव अस्तित्व का आधार है। इसी सोच के साथ उन्होंने नर्मदा बचाओ आंदोलन में सक्रिय भागीदारी निभाई। उनके विचार स्पष्ट थे—विकास का अर्थ प्रकृति का विनाश नहीं, बल्कि समाज और पर्यावरण के बीच संतुलन होना चाहिए। वे एक ऐसे भविष्य की कल्पना करते थे जहाँ आधुनिकता और प्रकृति में संघर्ष नहीं, बल्कि सामंजस्य हो।
1985 में ‘भारत जोड़ो’ आंदोलन की अगुवाई करते हुए, बाबा आमटे ने एक ऐसा अभियान शुरू किया जिसने राष्ट्रीय एकता, सामाजिक समरसता और पर्यावरण संरक्षण का संदेश भारत की हर भूमि, हर गली और हर दिल तक पहुँचाया। उनके लिए सेवा केवल एक कर्तव्य नहीं थी, बल्कि जीवन का परम लक्ष्य, एक ऐसा उद्देश्य जिसे उन्होंने अपनी आत्मा का सच्चा आह्वान माना। महात्मा गांधी के उन्नत सिद्धांतों से अनुप्राणित होकर, उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन न केवल त्याग के लिए, बल्कि समर्पण और अनवरत संघर्ष के लिए भी समर्पित कर दिया। उनकी निस्वार्थ सेवा की ध्वनि देश-विदेश में गूँजी और उन्हें असंख्य पुरस्कारों और सम्मानों (पद्मश्री, पद्म विभूषण, रेमन मैग्सेसे, महाराष्ट्र भूषण, गांधी शांति पुरस्कार, अमेरिका का टेम्पलटन जैसे प्रतिष्ठित सम्मान) से अलंकृत किया गया। लेकिन, उनके लिए वास्तविक मूल्य कोई भी धातु का पदक या मान-सम्मान नहीं था। उनके लिए सबसे प्रिय पुरस्कार वो हँसी थी जो आनंदवन के हर चेहरे पर खिलती थी, वो चमक थी जो आत्मनिर्भरता की आँखों में दिखती थी। उनके हृदय में, ये मुस्कानें और ये चमकें ही उनके सबसे बड़े और अमूल्य पुरस्कार थे, जिन्होंने उनके जीवन को अर्थ दिया और उनके प्रयासों को अमर बना दिया।
बाबा आमटे का जीवन त्याग, तपस्या और करूणा की अमिट गाथा है, जो युग-युगांतर तक मानवता के लिए दीपस्तंभ बना रहेगा। 9 फरवरी 2008 को उनकी देह भले ही पंचतत्व में विलीन हो गई हो, लेकिन उनके विचारों की अमर ज्योति आज भी समाज के हर कोने को आलोकित कर रही है। ‘आधुनिक भारत के संत’ के रूप में विख्यात बाबा आमटे ने यह प्रमाणित किया कि सेवा की वास्तविक परिभाषा दया के दान में नहीं, बल्कि आत्मनिर्भरता के बीज बोने में निहित है। उनका जीवन-संदेश हमें बार-बार स्मरण कराता है कि प्रेम, त्याग और निस्वार्थ समर्पण ही वे दिव्य उपकरण हैं, जिनसे समाज में सार्थक और स्थायी परिवर्तन संभव है।
बाबा आमटे के दिव्य और अनन्य जीवन को कोटि-कोटि नमन करते हुए, हम उन्हें विनम्र भाव से श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। उनका जीवन प्रेरणा का सजीव संग्रह मात्र नहीं, वरन् मानवता के प्रति सेवा और समर्पण का पावन ग्रंथ है। उन्होंने यह सिद्ध किया कि महानता धन, संपदा या प्रतिष्ठा में नहीं, बल्कि निस्वार्थ सेवा, दृढ़ निश्चय और त्याग में निहित होती है। उनका व्यक्तित्व समता, सहिष्णुता और करुणा का दीप्तिमान स्रोत था, जो सदैव प्रेम और समानता का संदेश देता रहेगा। बाबा आमटे ने अपने कर्मों से सिद्ध किया कि संत वही है जो साधना के परे जाकर मानवता का सेवक बन जाता है। उनका जीवन त्याग, संघर्ष और अटल संकल्प का अनुपम दर्शन है। वे एक ऐसा प्रकाशस्तंभ हैं जो युगों तक हमें मार्गदर्शन करता रहेगा। उनकी विदाई न केवल एक युग का अंत है, बल्कि सेवा और मानवता की अनवरत ज्योति भी है, जो आने वाली पीढ़ियों को प्रेरित करती रहेगी। हम उनके पवित्र आदर्शों और महान कर्मों को नमन करते हैं। बाबा आमटे के अमर संदेश को अपने जीवन में उतारना ही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी। उनकी स्मृति हमें यह सत्य सिखाती रहेगी कि जीवन की सार्थकता त्याग, सेवा और दूसरों के जीवन में प्रकाश भरने से आती है।