जैसे-जैसे सत्ता समाज में बसे गांधी को नकारती है, वैसे-वैसे गांधी और-और सामने आते जाते हैं। पिछले सात-आठ सालों में गांधी की ठोस पुनर्वापसी इसी बात का प्रमाण है। इसके उलट, यदि सत्ता गांधी को खारिज करना चाहती है तो उसे गांधी को उसी के हाल पर छोड देना होगा।
हिंदुत्व को मानने वाले लोगों को महात्मा गांधी को अपने हाल पर छोड़ देना चाहिए। उन्हें भी वही करना चाहिए जो आजादी के बाद कांग्रेसियों ने किया। उन्होंने गांधी को वैसे ही छोड़ दिया जैसे हम अंगारे को हाथ से छोड़ देते हैं।
मैं इमर्जेन्सी के बाद की पीढ़ी की हूं और पिछले पच्चीस सालों से गांधी के सर्वोदय की दिशा में चलने और काम करने की कोशिश करती रही हूं। इस अनुभव से मैं दावे के साथ कह सकती हूं कि आज से पच्चीस साल पहले अपने देश में गांधी का नाम जितना नहीं गूंजता था, आज उससे कई गुना ज्यादा गूंज रहा है। तब जनता में गांधी के विचार को समझाने की बड़ी कोशिशें करनी पड़ती थीं, कभी-कभार विरोध भी झेलना पड़ता था – ख़ासकर नौजवानों का! लेकिन आज हाल यह बना है कि वे लोग भी गांधी का नाम लेने लगे हैं जो जाने-अनजाने में गांधी के घोर विरोधी रहे हैं।
जब ‘अन्ना आंदोलन’ में नौजवान जुड़े तो वे अन्ना हजारे में गांधी को देखने लगे थे। वहां उन्हें निराशा मिली, लेकिन फिर भी हमने देखा कि जब ‘नागरिकता का आंदोलन’ हुआ तो फिर गांधी बाहर निकल आए। नौजवान के हाथों में गांधी की तस्वीर आ गई, उनकी बातों में गांधी के नारे और गांधी का नाम आ गया। वे गांधी की ‘आत्मकथा’ पढ़ने लगे, चरखा तक सीखने की मांग करने लगे !! अब, जब ‘किसान आंदोलन’ हो रहा है तब पंजाब के लोगों तक गांधी की पहुंच बन रही है। वहां सत्याग्रह का नाम लिया जा रहा है, अनशन को प्रतिकार का हथियार बनाया जा रहा है।
जब मैं ‘सिंघू बॉर्डर’ पर ‘किसान आंदोलन’ का समर्थन करने अपनी पत्रिका ‘गांधी-मार्ग’ का किसान अंक लेकर पहुंची तो नौजवानों ने घेर लिया और कहने लगे : ‘गांधी-मार्ग’ नहीं, ‘भगत सिंह-मार्ग’ छापिए ! मैंने कहा: लेकिन रास्ता तो आपने गांधी का पकड़ा है ! वे मेरी बात से जरा झेंप-से गए, लेकिन आज जब लखीमपुर में हुई भयंकर हिंसा के बावजूद, उन्होंने हर हद तक संयम का सहारा लिया, वहां हुई हिंसा की मुखालफत करते रहे, तो यह विश्वास उस बूढ़े से ही आया था कि जिसने कहा था बड़े-से-बड़े एटम बम का मुक़ाबला अहिंसा से ही हो सकता है।
सरकार किसानों की मांग नहीं मान रही, तो अनजाने में ही सही, वही इस आंदोलन को धीरे-धीरे गांधी के निकट पहुंचा रही है। यह आंदोलन गांधी के जितने निकट पहुंचेगा, सरकार के लिए उतनी मुश्किल पैदा करेगा। एक समय आएगा, जब वहां पूरा गांधी दिखाई देने लगेगा।
अब रह गए आम्बेडकर को मानने वाले और फिर पूंजी को ही अपना भगवान मानने वाले लोग। दुनियाभर में पूंजीवाद अपनी आख़िरी सांस ले रहा है। दिया जब बुझने लगता है तब ज़ोर से धधकता है, कुछ इसी तरह, लेकिन उसकी बात अभी नहीं, फिर कभी। और आंबेडकर की बात कहूं तो यह कहने में कोई झिझक नहीं है मुझे, कि गांधी का आख़िरी आदमी और आंबेडकर का अछूत या दलित एक ही है। बस, एक समझ की दीवार है कि जिसके गिरते ही यह मंजर सबको समझ में आ जाएगा। हिंदुत्व वाले जातीय श्रेष्ठता के सिद्धांत को थोड़ा और खींचेंगे तो यह दीवार भी भरभरा कर गिर पड़ेगी; और वह दिन ज्यादा दूर नहीं है।
गांधी को मारने के बाद, वे ही लोग गांधी को बार-बार ज़िंदा भी करते रहते हैं और ऐसा करके वे अपने ही गले में फंदा डाल लेते हैं। जितनी बार वे गांधी का नाम लेते हैं, उनका इतिहास उल्टा-सीधा पढ़ते व पढ़ाते हैं, उतनी ही बार समाज नए सिरे से खोजने लगता है कि दरअसल कब, क्या हुआ था और किसने क्या भूमिका निभाई थी; और यह गांधी है कौन और है तो कहां है ! तो जैसे ही समाज सच को खोजता है वैसे ही सच खड़ा होने लगता है। सच सामने आता है तो असत्य खुद ही सूखे पत्ते की तरह झरने लगता है।
सावरकर की माफ़ी का प्रसंग देखिए। यह तो गजब ही हो गया कि सावरकर को गांधी ने माफीनामा लिखने को कहा ! जब खोजबीन चली तो भगत सिंह के लिए लिखी गांधी की ‘मर्सी पिटीशन’ की बात भी आ गई और सावरकर को जेल से छोड़ने की बात कहता उनका लेख भी लोगों को मिल गया। इसलिए कहती हूं कि सैन्यवृत्ति का समाज बनाने का सपना देखने वाले सावरकर की हिंदुत्व की कल्पना को मानने वाले लोगों के लिए अच्छा यही है कि वे गांधी को अपने हाल पर छोड़ दें। झूठ आपको लगातार बौना बनाता जाता है।
यह बात इसलिए भी लिखनी पड़ रही है कि हमारे प्रधानमंत्री और गुजरात सरकार की नजर अब ‘साबरमती आश्रम’ पर पड़ी है। अब तक तो अख़बारों में कहीं से सुनी-सुनाई बातें छप रही थीं, अब गुजरात सरकार की तरफ से बजाप्ता प्रमोशनल वीडियो सोशियल मीडिया पर लॉन्च किया गया है। जब वे सार्वजनिक रूप से अपनी बात देश को बता रहे हैं तब हमें भी अपनी बात कहनी पड़ेगी। एकतरफा बयानबाजी हमेशा ही झूठ को मजबूत करने की रणनीति होती है।
यह कहने की जरूरत आ गई है कि गांधी और प्रधानमंत्री एकदम विपरीत दिशा में चल रहे हैं। गांधी ‘ग्राम-स्वराज्य’ की बात करते थे, प्रधानमंत्री ‘स्मार्ट सिटी’ की बात करते हैं। गांधी स्वेच्छा से स्वीकारी गरीबी का आदर्श सामने रखते थे, प्रधानमंत्री भारत को हवाई जहाज़ का सपना दिखाते हैं। गांधी धार्मिक व जातीय समानता व समरसता को मानते थे, प्रधानमंत्री हिंदुत्व की विचारधारा की जातीय श्रेष्ठता को मानते हैं।
गांधी अल्पसंख्यकों और दलितों के संरक्षण पर खास जोर देते थे, प्रधानमंत्री उन पर हमला करने वालों को सम्मानित करते हैं। गांधी उन शादियों में जाते नहीं थे, जिनके जोड़े में कोई एक दलित या किसी दूसरे धर्म या जाति का न हो, प्रधानमंत्री ऐसे लोगों की प्रतारणा व हत्या तक पर चुप रहते हैं। गांधी महिलाओं को नेतृत्व की भूमिका में रखते थे, प्रधानमंत्री उन्हें 30% जगह देने का भी समर्थन नहीं करते हैं। गांधी का भारत और प्रधानमंत्री की भारतमाता का चेहरा एक-दूसरे से नहीं मिलता।
गांधी सबसे ग़रीब और असहाय आखिरी आदमी को हर राष्ट्र-नीति का आधार मानते थे, प्रधानमंत्री की किसी भी नीति में इस आधार का पता भी नहीं होता। पिछले सात सालों की नीति की एक ही दिशा है : दिहाड़ी पर जीने वालों के हाथ का रोकड़ा कैसे धनवानों की तिजोरी में पहुंचा दिया जाए! नोटबंदी, जीएसटी, देशबंदी, लगातार बढ़ती महंगाई, पेट्रोल-डीज़ल-गैस के आसमान छूते दाम यही तो कर रहे हैं। गांधी पड़ौसी से सौहार्द की बात करते हैं, प्रधानमंत्री जंग की बात करते हैं। कहने को यह भी कहना चाहिए कि ‘मेक इन इंडिया’ और ‘आत्मनिर्भर भारत’ एक साथ संभव नहीं, बुलेट ट्रेन और पर्यावरण का संरक्षण एक साथ संभव नहीं, सैन्य-वृत्ति का हिंदुत्व और देश की अखंडता एक साथ संभव नहीं, लेकिन ऐसी बातें समझने-समझाने का समय नहीं है प्रधानमंत्री के पास।
लब्बोलुआब यह कि जिस भाजपा ने देश का इतिहास बनाने में कभी हाथ बंटाया ही नहीं, वह सत्ता की ताकत से इतिहास बदलने में लगी है। बनाने से बिगाड़ना हमेशा आसान होता है। तीन हज़ार करोड़ रुपयों में, चीन में बनवाई गई सरदार पटैल की मूर्ति सरदार को बिगाड़ना ही है न ! फिर ‘जलियांवाला बाग’ को आपने ऐसा बिगाड़ा कि अब वहां न जालियां हैं, न इतिहास ! अब साबरमती के पीछे मतिशून्य सरकार पड़ी है। उनकी नजर ‘साबरमती आश्रम’ पर इसलिए है कि साबरमती की नजरों से ये नजरें नहीं मिला पाते हैं। इनके लिए साबरमती वह टूरिस्ट सेंटर है जहां ट्रंप जैसों को लाकर रिझाया-नचाया जाए। यह भोंडा प्रदर्शन हम कैसे स्वीकार करें और साबरमती इनके हाथ में कैसे छोड़ दें? इसलिए विनम्रता, लेकिन दृढ़तापूर्वक कहना चाहती हूं कि गांधी को उनके हाल पर ही छोड़ दो ! (सप्रेस)
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