सुदीप सोहनी

महात्मा गांधी का जीवन उनकी मृत्यु के बाद से ही फिल्मकारों की पसंद का ‘विषय’ रहा है। अनेक ख्यात फिल्मकारों ने गांधी के घटना-प्रधान जीवन पर अपने-अपने लहजे में फिल्में रची हैं।

सुदीप सोहनी

गांधी जैसी महान शख्सियत को किसी भी विशेषण की न तो ज़रूरत है और न किसी विशेषण में ही इतनी जान! जीवन के जिस सूत्र को खोजकर छोटे क़द के इस विराट शख़्स ने दुनिया के इतिहास में अमरत्व पा लिया, उसके लिए सिनेमा की भाषा में ‘लार्जर देन लाइफ’ की उक्ति ही सटीक बैठती है। मोहनदास करमचंद गांधी – नाम जितना सादा, उस नाम का असर उतना ही ज़बर्दस्त। ‘सत्य के प्रयोग’ जिसके लिए आत्मकथा नहीं बल्कि जीवन का ही नाम था, उसके हर पन्ने को पढ़कर विश्वास करना मुश्किल होता है कि सादगी के लिबास में लिपटा यह आदमी किसी दिन भारत के राष्ट्रपिता और दुनिया के मार्गदर्शक के नाम से जाना जाएगा! कल्पनाओं के इसी सच को चकित और चमत्कृत भाव से ग्रहण करने के बाद शायद रिचर्ड एटनबरो ने ‘गांधी’ फ़िल्म की कल्पना की होगी। हालाँकि इस फ़िल्म के असर को लेकर समीक्षकों और सिनेमाई कारगुज़ारों में एकमतता भी नहीं है पर फिर भी जिस अनुशासन, समर्पण और स्वप्न के भाव के साथ इसे बनाने की प्रक्रिया शुरू हुई होगी, वो इस फ़िल्म के हर कोने में महसूस किया जा सकता है। बहरहाल, गांधी और उनके दर्शन को सिनेमा में खोजा जा सकता है और उसकी कुछ पड़ताल हम कर सकते हैं।

सिनेमा हमेशा से चरित्र और नायकों की कथा कहता और उन्हें खोजता रहा है। विश्व के अलग-अलग देशों की भौगोलिक, सामाजिक,राजनीतिक और कलात्मक स्थितियों के मद्देनजर निर्देशकों ने कथाएँ रचीं और सिनेमा को समृद्ध किया। ऐसा भी नहीं कि एटनबरो की फ़िल्म, गांधी पर बनी फिल्मों में पहली थी। अलबत्ता ये ज़रूर है कि इसके पहले की फ़िल्में डॉक्यूमेंट्री शैली में बनी थीं। शुरुआती भारतीय सिनेमा में कई रीलें हैं जब उनकी चलती फिरती तस्वीरें क़ैद की गईं. गांधी पर सबसे पहली डॉक्यूमेंट्री 1953 में अमेरिका में ‘महात्मा गांधी:20th सेंचुरी प्रॉफ़ेट’ के नाम से बनी थी और फिर 1963 में ‘नाइन आवर्स टू रामा’ नाम के उपन्यास पर इसी नाम की ब्रिटिश फ़िल्म में, जिसमें नाथुराम गोडसे के जीवन के उन नौ घंटों की कहानी है जब वो गांधी के क़त्ल के लिए जाता है, गांधी का किरदार पर्दे पर आता है। यह फ़िल्म इंग्लैंड और भारत के कलाकारों को साथ लेकर बनी थी। लगभग इसी दौरान रिचर्ड एटनबरो, गांधी पर अपनी महत्त्वाकांक्षी फ़िल्म का सपना देखते हैं। एटनबरो की इस फ़िल्म के विस्तार से बात करने के कई कारण हैं।

1953 में जब गांधी पर अमेरिकी डॉक्यूमेंट्री बनी, उसी के आसपास जवाहर लाल नेहरू गांधी पर फ़िल्म बनवाना चाहते थे। इसके लिए बाक़ायादा हंगरी के ख्यात निर्माता-निर्देशक गैब्रियल पास्कल से करार भी किया गया। पर पास्कल की मृत्यु के बाद कुछ समय के लिए यह प्रोजेक्ट रुक गया। 60 के दशक में एटनबरो ने गांधी के किरदार में अपना सिनेमाई सपना देखा और फिर शुरू हुआ लुका-छिपी का खेल। भारत के अंतिम वाइसराय लॉर्ड माउण्टबेटन से नज़दीकी के कारण एटनबरो, नेहरू और इन्दिरा गांधी से मिले। फ़िल्म फिर शुरू हुई और 1964 में नेहरू की मृत्यु के बाद फिर बंद हो गई। ‘लॉरेंस ऑफ अरेबिया’, ‘डॉ. ज़िवागो’, ‘द ब्रिज ऑन द रिवर कॉई’ जैसी फिल्मों के निर्देशक डेविड लीन भी गांधी पर फ़िल्म बनाना चाहते थे। एटनबरो ने बेमन से उन्हें अपनी स्क्रिप्ट सुनाई और लीन ने गांधी के किरदार के लिए उनका ही चयन कर लिया। पर एक बार फिर बात नहीं बन पाई। अमेरिका के निर्माताओं वार्नर ब्रदर्स की सहायता से 1976 में एटनबरो ने एक बार फिर से फ़िल्म शुरू की। और उसी समय भारत में आपातकाल लागू हुआ। ‘गांधी’ फिर से रुक गई। फिर अंततः 1980 के अंत में फ़िल्म का निर्माण शुरू हुआ। और इस तरह एटनबरो की गांधी को बनने में लगभग 18 सालों का समय लगा। भारत ही नहीं बल्कि विश्व सिनेमा में इस फ़िल्म के निर्माण को लेकर भारी हलचल थी। कलाकारों का चयन और उसके ऑडिशन्स की भी अपनी-अपनी कहानियाँ हैं। भारतीय मूल के बेन किंग्सले, एटनबरो के गांधी बने। जीवनी आधारित फिल्मों के विशेषज्ञ के रूप में ख्यात लेखक जॉन ब्रिले ने पटकथा लिखने की ज़िम्मेदारी ली। गांधी की मृत्यु के दृश्य से शुरू हुई फ़िल्म 3 लाख लोगों की भीड़ की उपस्थिती वाली शवयात्रा से होती हुई 55 साल पहले गांधी के अफ्रीका में ट्रेन के प्रथम दर्जे के डब्बे में हुए अपमान से होती हुई अपने अंजाम पर पहुँचती है। दर्शकों से लेकर समीक्षकों तक के लिए ये फ़िल्म एक प्रामाणिक फ़िल्म का दर्जा रखती है। किंग्सले का गांधी का किरदार विश्व सिनेमा में अभिनेताओं का सबसे मनपसंद किरदार बन गया।

उसके बाद श्याम बेनेगल, जब्बार पटेल, केतन मेहता, कमल हसन, राजकुमार संतोषी आदि भारतीय निर्देशकों की फिल्मों में रजित कपूर, अन्नू कपूर, मोहन गोखले, नसीरुद्दीन शाह, सुरेन्द्र राजन, दर्शन जरीवाला, दिलीप प्रभावलकर आदि अभिनेताओं ने गांधी के किरदार को अभिनीत किया। इसके अलावा सत्येन बोस की फ़िल्म ‘जागृति’ में कवि प्रदीप का लिखा गीत ‘दे दी हमें आज़ादी बिना खड़ग बिना ढाल, साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल’ गांधी की भारतीय छवि को अमर करता है। बाद की फ़िल्मों में गांधी की छवि को जिस अलग तरह से दिखाया गया उनमें ‘मैंने गांधी को नहीं मारा’, ‘गांधी, माय फादर’, ‘लगे रहो मुन्नाभाई’ जैसी लीक से हटकर बनाई गई फ़िल्में रेखांकित करने योग्य हैं। राजू हीरानी की ‘लगे रहो मुन्नाभाई’ ने गांधी की छवि को फैशन के रूप में तब्दील कर दिया जब ‘गांधीगिरी’ ने देश को और ख़ासकर युवाओं को गांधी की गिरफ़्त में ले लिया। इस फ़िल्म का असर शायद गांधी पर बनी अब तक की फ़िल्मों में सबसे ज़्यादा रहा है। वहीं ‘गांधी,माय फादर’ उनके सबसे छोटे बेटे हरिलाल के ज़रिये गांधी को देखने की कोशिश है। फिरोज अब्बास खान निर्देशित यह फ़िल्म अब तक गांधी पर लिखे नाटक, सिनेमा या किसी भी अन्य कहानियों में से उन्हें दिखाता सबसे अलग कोण है। वहीं अगर गांधी की छवि से साम्य को ढूँढने की कोशिश करें तो आशुतोष गोवारीकर की ‘स्वदेस’ में शाहरुख़ खान अभिनीत एन.आर.आई. मोहन भार्गव का किरदार गांधी की ज़िंदगी से मिलता-जुलता है।

महात्मा गांधी की छवि को ज़िंदा करते ये सिनेमाई किरदार भले ही रील में बंद कथानकों का हिस्सा हैं, पर हकीक़त में गांधी की विराटता के फैलाव को समेटते वो ‘टच पॉइंट्स’ हैं जहां से शांति और अहिंसा के साथ ही सच बोलने वाले इस साधारण इंसान की असाधारणता को समझा जा सकता है। रूपहले परदे पर गांधी को रचते जुनूनी लेखक, अभिनेता, निर्देशकों का शुक्रिया इसलिए भी कि गांधी वहाँ केवल किरदार नहीं बल्कि किंवदंती का दर्जा रखते हैं। चैपलीन से लेकर हिटलर तक की ‘फैन फॉलोविंग’ वाले गांधी को आज के दिन याद करने और जानने के लिए सिनेमा से अच्छा कोई बहाना नहीं। आइये, इनमें से कुछ फिल्में देख ली जायेँ। (सप्रेस)

सुदीप सोहनी ख्‍यात फिल्म समीक्षक,  फिल्मकार हैं। 

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