आज की राजनीतिक जमातों, उनकी उठा-पटक और सत्ता पर चढने-उतरने की उनकी कवायद के बरक्स गांधी को रखकर देखें तो क्या नतीजे निकलते हैं? क्या गांधी ने इस तरह की राजनीतिक विरासत की कल्पना भी की थी? हाल में किसानों की कथित हालत सुधारने के लिए सत्ताधारी पार्टी द्वारा पारित किए गए और विपक्षियों द्वारा गरियाए गए तीनों कानूनों पर, यदि गांधी होते तो क्या कहते या करते? या राज्यसभा में इन्हीं कानूनों को पारित करवाने के लिए उपाध्यक्ष की सदारत में जिस तरह के धतकरम हुए उसे गांधी के नजरिए से क्या कहा या माना जा सकता है?
दो अक्टूबर को जन्मतिथि और 30 जनवरी को पुण्यतिथि मनाने के कर्मकांड के अलावा गांधी को लेकर हम और क्या करते हैं? या क्या नहीं करते? डॉ. रामनोहर लोहिया ने ‘मठी,’ ‘सरकारी’ और ‘कुजात’ गांधीवादियों का विभाजन करके खुद को कुजातों में शामिल तो कर लिया था, लेकिन कुजात होने का कोई स्पष्ट मतलब नहीं बताया। नतीजे में उनके अधिकांश चेले-चपाटी वह सब करते-कहते रहे जो गांधी को सिरे से नापंसद था। डॉ. लोहिया के इस विभाजन को ही मानें तो ये तीनों प्रकार के गांधीवादी अपनी-अपनी जरूरत, समझ और श्रद्धा के मुताबिक साल-दर-साल गांधी को याद करने के कर्मकांड से संतुष्ट हो लेते हैं, लेकिन कोई ऐसा कभी नहीं करता जिससे गांधी की बात कारगर होती दिखे। गांधी के ‘शिष्यों’ में एक और विभाजन विनोबा भावे की अगुआई वाला ‘आध्यात्मिक’ जमावड़ा और पं. जवाहरलाल नेहरू की सदारत वाली ‘राजनीतिक’ घेराबंदी को माना जाता है, लेकिन क्या सचमुच इतने भर से हम उस गांधी को समझकर अपने जीवन में उतार सकते हैं जिसके लिए उसका ‘जीवन ही संदेश’ था?
मसलन – यदि आज की राजनीतिक जमातों, उनकी उठा-पटक और सत्ता पर चढने-उतरने की उनकी कवायद के बरक्स गांधी को रखकर देखें तो क्या नतीजे निकलते हैं? क्या गांधी ने इस तरह की राजनीतिक विरासत की कल्पना भी की थी? हाल में किसानों की कथित हालत सुधारने के लिए सत्ताधारी पार्टी द्वारा पारित किए गए और विपक्षियों द्वारा गरियाए गए तीनों कानूनों पर, यदि गांधी होते तो क्या कहते या करते? या राज्यसभा में इन्हीं कानूनों को पारित करवाने के लिए उपाध्यक्ष की सदारत में जिस तरह के धतकरम हुए उसे गांधी के नजरिए से क्या कहा या माना जा सकता है? या चुनाव की मार्फत सत्ता पर काबिज होने वाली कोई पार्टी जिम्मेदार लोकतांत्रिक संस्थाओं को एक-एक कर निष्प्रभावी करने में लगी हो तो गांधी के मुताबिक क्या करना चाहिए? केन्द्र और राज्यों में इस तरह का बेरहम बहुमत पाने वालों को गांधी के अनुसार किस तरीके से रोका जा सकता है?
गहराई से देखें तो गांधी इन तमाम सवालों को ठेठ दूसरे छोर से पकड़ते दिखाई देंगे। वे मौजूदा धज के लोकतंत्र को खारिज करते हुए हमारे समाज की लघुतम प्रशासनिक इकाई गांव और ग्राम-स्वराज्य को तरजीह देते हुए दिखेंगे। सन् 1909 में जलपोत यात्रा के दौरान लिखी अपनी पुस्तिका ‘हिन्द स्वराज’ के अलावा आजादी के बाद अपने जीवन के पांच-साढे पांच महीनों में गांधी लोकतंत्र के मौजूदा ढांचे पर सवाल उठाते रहे हैं। उनके मुताबिक – “ग्राम-स्वराज की मेरी कल्पना यह है कि वह एक ऐसा पूर्ण प्रजातंत्र होगा, जो अपनी अहम जरूरतों के लिए अपने पड़ोसियों पर भी निर्भर नहीं रहेगा; और फिर भी बहुतेरी दूसरी जरूरतों के लिए – जिनमें दूसरों का सहयोग अनिवार्य होगा – वह परस्पर सहयोग से काम लेगा। इस तरह हर एक गांव का पहला काम यह होगा कि वह अपनी जरूरत का तमाम अनाज और कपड़े खुद पैदा कर ले।…जहां तक हो सकेगा, गांव के सारे काम सहयोग के आधार पर किए जाएंगे।…सत्याग्रह और असहयोग की कार्य-पद्धति के साथ अहिंसा की सत्ता ही ग्रामीण समाज का शासन-बल होगी।
….शासन चलाने के लिए हर साल गांव के पांच आदमियों की एक पंचायत चुनी जाएगी। इसके लिए नियमानुसार एक खास निर्धारित योग्यता वाले गांव के बालिग स्त्री-पुरूषों को अधिकार होगा कि वे अपने पंच चुन लें। इन पंचायतों को सब प्रकार की आवश्यक सत्ता और अधिकार रहेंगे। चूंकि इस ग्राम-स्वराज्य में आज के प्रचलित अर्थों में सजा या दंड का कोई रिवाज नहीं रहेगा, इसलिए यह पंचायत अपने एक साल के कार्यकाल में स्वयं ही धारासभा, न्यायसभा और कार्यकारिणी सभा का सारा काम संयुक्त रूप से करेगी। इस ग्राम-शासन में व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर आधार रखने वाला संपूर्ण प्रजातंत्र काम करेगा। व्यक्ति ही अपनी इस सरकार का निर्माता भी होगा। उसकी सरकार और वह दोनों अहिंसा के नियम के वश में होकर चलेंगे। अपने गांव के साथ वह सारी दुनिया की शक्ति का मुकाबला कर सकेगा।”
व्यक्ति और उसकी राजनीतिक अभिव्यक्ति की लघुतम इकाई पंचायत को गांधी के मुताबिक आज की विधानसभाओं, संसद के मुकाबले रखें तो इतनी बात तो समझी ही जा सकती है कि कोई भी लोकतंत्र, उसके नागरिकों की भागीदारी के बिना फिजूल है और यह भागीदारी छोटे, उपयुक्त और नियंत्रित ढांचों में ही संभव है। जाहिर है, हमारे भारी विविधतापूर्ण और विशाल देश के आज के राजनीतिक ताने-बाने में पंचायत या ग्रामसभाएं ही नागरिकों की भागीदारी के लिए सर्वाधिक उपयुक्त ढांचा हो सकती हैं। विडंबना यह है कि हमारी तमाम राजनीतिक जमातें, ‘महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना’ (मनरेगा) जैसी कतिपय योजनाओं में भारी रकम आने के बावजूद, पंचायत के स्तर पर अपेक्षित सक्रियता नहीं दिखातीं। ‘मनरेगा’ के मजदूरों का अब तक कोई कारगर संगठन न बन पाना इस राजनीतिक निष्क्रियता की ही एक बानगी है। उन्हें आमतौर पर विधानसभाएं और संसद ज्यादा लुभाती हैं। लोकतंत्र में आम नागरिकों की लगभग शून्य भागीदारी गांधी के लिए बेचैनी की बात थी।
अपनी मृत्यु के करीब सवा दो महीने पहले, 26 नवंबर, 1947 की प्रार्थना-सभा में महात्मा गांधी ने कहा था – ‘हमारे दुर्भाग्य से हमारा एक भी मंत्री किसान नहीं है। सरदार (पटेल) जन्म से तो किसान हैं, खेती के बारे में समझ रखते हैं, मगर उनका पेशा बैरिस्टरी का था। जवाहरलालजी विद्वान हैं, बड़े लेखक हैं, मगर वे खेती के बारे में क्या समझें ! हमारे देश में 80 फीसदी से ज्यादा जनता किसान है। सच्चे प्रजातंत्र में हमारे यहां राज किसानों का होना चाहिए। उन्हें बैरिस्टर बनने की जरूरत नहीं। अच्छे किसान बनना, उपज बढ़ाना, ज़मीन को कैसे ताज़ी रखना, यह सब जानना उनका काम है। ऐसे योग्य किसान होंगे तो मैं जवाहरलालजी से कहूंगा कि आप उनके सेक्रेटरी बन जाइये। हमारा किसान-मंत्री महलों में नहीं रहेगा, वह तो मिट्टी के घर में रहेगा, दिनभर खेतों में काम करेगा, तभी योग्य किसानों का राज हो सकता है।’
गांधी की इस और इसी तर्ज की अनेक बातों को ‘थोथा आदर्शवाद’ कहकर टाल जाने वाले राजनेता किसी राजनीतिक दल को जरूरत से ज्यादा बहुमत प्राप्त कर उसका दुरुपयोग करने से कैसे रोक सकेंगे? अनेक उदाहरण हैं जब संसद, विधानसभाओं के चुनावों में भारी मशक्कत करने के बावजूद ऐसे बहुमत प्राप्त दलों को टस-से-मस नहीं किया जा सका है। ‘पैसा या शराब चल जाने’ जैसे अनेक प्रचलित वास्तविक कारणों के अलावा यह इसलिए भी नहीं हो पाता है क्योंकि आम नागरिकों की चुनावी प्रक्रिया में कोई प्रभावी भागीदारी नहीं होती। क्या यह ताकत पंचायत स्तर पर नहीं बनाई-बढाई जा सकती? राजनीतिक दलों के अलावा कई गैर-दलीय राजनीतिक संगठन, नागरिक समूह और एनजीओ ‘ग्राम-स्तर’ पर काम करने का दावा करते हैं, लेकिन उन्हें ग्राम-स्तर पर ही राजनीतिक प्रशिक्षण की कोई सूझ क्यों नहीं सूझती? क्या सेवा, राहत और विकास के कामकाज में लगे ये लोग ग्राम-स्तर पर कोई कारगर राजनीतिक ताकत खड़ी नहीं कर सकते? संसार के सबसे बडे समाज-रूपी एनजीओ चलाने वाले महात्मा मोहनदास करमचंद गांधी तो बार-बार यही कहते रहे हैं।
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