डॉ.कुमारप्पा अहिंसक अर्थव्यवस्था के जबरदस्त पैरोकार थे। गांधीजी के ग्रामोद्योग व ग्रामीण अर्थव्यवस्था के विचारों को उन्होंने सबसे अच्छे ढंग से संप्रेषित किया। आजादी बाद भी उन्होंने सरकार को इस दिशा में कार्य करने की सलाह दी थी।
गांधी जी के आन्दोलन में देश भर से बड़ी संख्या में लोगों की भागीदारी रही। इनमें अनेक विशिष्ट लोग भी थे। इन्हीं में से एक थे डॉ जे. सी. कुमारप्पा। वह ग्रामोद्योग, ग्राम उत्थान, ग्राम अर्थव्यवस्था, अर्थशास्त्र के विशेशज्ञ, तत्वज्ञ, स्थायी अर्थव्यवस्था का विचार, योजना प्रस्तुत करने वाले, गांव की मजबूती में देश की मजबूती देखने वाले, आर्थिक मुद्दों पर खुलकर सार्थक चर्चा करने वाले, गांधी विचार के ज्ञाता व प्रयोगधर्मी थे।
डॉ जे. सी. कुमारप्पा का जन्म 4 जनवरी 1892 को तंजावुर,तमिलनाडु में एक समृद्ध परिवार में हुआ। कॉलेज तक की पढ़ाई मद्रास, आज के चेन्नै में हुई। उच्च शिक्षा के लिए वे लंदन गए और वहां से लेखा परीक्षक की उपाधि प्राप्त की। लंदन में ही एक अंग्रेज कम्पनी में काम करना शुरू किया। मगर परिवार के आग्रह पर उन्हें अपने देश वापिस लौटना पड़ा। उनका पूरा नाम जोसफ चेल्लदुरै करनीलियस था। करनीलियस नाम ईसाई बनने पर परिवार को मिला था, जिसे उन्होंने अपने दादा के नाम पर बाद में कुमारप्पा कर लिया।
भारत लौटने पर डॉ जे. सी. कुमारप्पा ने बम्बई की एक बड़ी फर्म में काम करना शुरू किया। कुछ समय बाद डावर भाईयों के साथ मिलकर अपनी खुद की करनीलियस एंड डावर नाम की कंपनी बनाई। ज्ञान, जानकारी, मिलनसार स्वभाव, व्यवहार के कारण उनका काम खूब आगे बढा। बड़े भाई के निमंत्रण पर डॉ कुमारप्पा अमेरिका गए और विश्वविद्यालय से व्यापार प्रबंधन में बी एस सी की पढाई की। अपने अध्ययन के दौरान उन्होंने एक विशेष लेख लिखा इसी लेख के कारण ही गांधी जी से उनका संपर्क व संवाद बना। इस लेख में मुख्य स्थापित किया गया था कि भारत की जनता की गरीबी का मुख्य कारण ब्रिटिश सरकार की शोषक नीति ही है। लेख में पूरे प्रमाणों के साथ यह सिद्ध किया गया था। गांधी जी इस लेख से बहुत प्रभावित हुए व इसे सारगर्भित माना और यंग इंडिया में प्रकाशित कर, अपने साथ काम करने के लिए डॉ कुमारप्पा को न्यौता दिया।
डॉ कुमारप्पा साबरमती आश्रम पहुंचे और गांधी जी के साथ काम शुरु कर दिया। उन्होंने गुजरात विद्यापीठ में अर्थशास्त्र, ग्रामीण अर्थशास्त्र पढ़ाना शुरू किया। उन्हें गुजराती भाषा का ज्ञान नहीं था और छात्रों को अंग्रेजी का इसलिए कठिनाई होती थी। उनका मानना था कि मात्र किताबी ज्ञान से शिक्षा पूरी नहीं होती, इसके लिए प्रत्यक्ष काम व असली हालातों को जानना जरूरी है। प्रत्यक्ष काम के लिए मातर तालुका के गांवों का सामाजिक और आर्थिक सर्वेक्षण कर तालुका के विकास की विस्तृत योजना बनाई। इस सर्वेक्षण का संदर्भ आज भी स्थान स्थान पर लिया जाता है। इसे एक मौलिक, प्रामाणिक सर्वेक्षण माना जाता है।
सत्याग्रह के समय गांधी जी को कभी भी गिरफ्तार किया जा सकता था इसलिए गांधी जी ने सोचा यंग इंडिया का काम चलता रहे, वह प्रकाशित होता रहे इसके लिए कुमारप्पा जी का नाम भी जिम्मेवारी उठाने वालों में शामिल था। कुमारप्पा जी ने ब्रिटिश सरकार,अधिकारी व कर्मचारियों के अन्याय, अत्याचार एवं जुल्म की कड़ी आलोचना की। इससे सरकार का गुस्सा बढ़ा और उसने छापाखाना को ताला लगा दिया। इसके बावजूद भी उन्होंने टाइप कराकर पत्रिका का अंक समय पर निकाल दिया। सरकार ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। अदालत में उन्होंने तीखा जोरदार बयान दिया, जिसे जेल से बाहर आकर गांधी जी ने पढ़ा और सराहा और कहा इस बयान के बाद तो उनको सजा मिलनी ही थी।
सन् 1934 में गांधी जी की अध्यक्षता में अखिल भारत ग्रामोद्योग संघ की स्थापना की गई। इसका मंत्री कुमारप्पा जी को बनाया गया। ग्रामोद्योग उनका प्रिय, रुचिकर विशय था। उनके अनुसार ग्रामोद्योग का अर्थ है गांव का कच्चा माल गांव में ही प्रयोग हो, कच्चा माल गांव से बाहर नहीं जाए। गांव गांव में उद्योग धंधे चलें, काश्तकार पहले की तरह गांव में ही काम करें। इसी से गांव का विकास होगा,रोजगार के अवसर बढेंगे, गांव में ही रोजगार उपलब्ध होगा और गांव की गरीबी मिटेगी। गांव सशक्त व मजबूत बनेगा। गांव गांव में उत्पादन बढेगा। गांव समृद्ध बनेगें। गांव की ग्राम स्वराज की ओर बढ़ने की संभावना होगी। गांव खुशहाल बनेगा, केन्द्रीयकरण के कष्ट से बचाव होगा। इसके लिए आवश्यक था नए औजार बनाना, उद्योगों के साधनों का विकास करना,कार्यकर्ताओं का प्रशिक्षण करना। गांव गांव तक यह संवाद, संपर्क, संदेश, संकल्प पहुंचाना। वर्धा में मगनवाड़ी में केन्द्र स्थापित किया गया। ग्रामोद्योग संघ का केन्द्रीय कार्यालय भी यहां बनाया गया। कार्यकर्ता प्रशिक्षण, अनुसंधान, प्रयोग, उत्पादन की योजना बनाई गई। वर्धा ग्राम आंदोलन का यह एक प्रमुख स्थल बना। ग्रामोद्योग का एक संग्रहालय बनाया गया जिसमें औजार, ग्रामोद्योग के नमूने, जानकारी, विवरण आदि का संग्रह रखा गया। मगन संग्रहालय आज भी वर्धा में आप देख सकते हैं। ग्राम उद्योग पत्रिका भी प्रारंभ की जो लम्बे समय तक प्रकाशित हुई।
दुनिया के सामने ज्यादातर औद्योगिक विकास का पाश्चात्य नमूना ही पेश किया गया है जिसमें लाभ,लोभ,लूट व शोषण की व्यापक संभावना है। जबकि गांधी अर्थशास्त्र जनउपयोगिता को प्रमुख मानता है। इसी पर जोर देता है, लाभ या लोभ पर नहीं। समाज की आवश्यकता की पूर्ति अर्थशास्त्र का मुख्य मुद्दा बनना चाहिए। उदाहरण के लिए चोरी, डकैती, लूट या जेबकतरे के काम को कितने भी कुशल ढंग से, सफाई से किया जाए, उसे आर्थिक प्रक्रिया का हिस्सा, अंग नहीं माना जा सकता है। आर्थिक प्रक्रिया में सेवा, समाजकल्याण, जनहित का होना परम आवश्यक है, इसके बिना आर्थिक प्रक्रिया नुकसान, सत्यानाश, बर्बाद करेगी। इनकी पुस्तकें स्थाई अर्थ शास्त्र एवं ग्राम आंदोलन क्यों? की सहायता से इन बातों को विस्तार से समझा जा सकता है। ईशा मसीह के उपदेश व अनुकरण पुस्तक भी जेल में ही लिखी गई थी। इनकी पुस्तकें पढ़कर गांधी जी ने इनको ग्रामोद्योग तत्व शास्त्रज्ञ एवं देव तत्व शास्त्री की पदवी से नवाजा। गांधी जी गुजरात विद्यापीठ के कुलाधिपति भी थे।
वर्ष 1937 में अनेक प्रांतों में कांग्रेस की सरकार बनी तो कुमारप्पा जी की अध्यक्षता में ग्राम विकास की योजनाएं बनाई गई। यह काम उन्होंने बहुत ही कम समय में सुंदर ढ़ंग से पूरा करके सरकार को सौंप दिया। आजादी के बाद भी उन्होंने राष्ट्रीय योजना आयोग, भूमिसुधार समिति, भूकंप निवारण समिति आदि के माध्यम से महत्वपूर्ण योगदान दिया। अहिंसक समाज की कल्पना का चित्र उनके समक्ष पूरी तरह से साफ था। शोषण रहित अर्थशास्त्र का चिन्तन, मनन व अध्ययन कुमारप्पा जी की विशेशता थी। वे मानते थे कि सारा विश्व शोषणमय समाज रचना करके विनाश की ओर बढ़ रहा है। भारत को इसका जवाब देना चाहिए। केन्द्रीयकरण की कमियों के बारे में तथा विकेन्द्रीयकरण के पक्ष में उन्होंने विस्तार से चर्चा की। वे मानते थे लोकशक्ति, ग्रामराज ही सशक्त एवं उपयोगी रास्ता है। वे सत्ता के बजाय लोकपक्ष को ज्यादा तवज्जो देते थे। उनका मानना था कि लोगों की शक्ति व गांव की ताकत बढेगी तो ही सच्चा, सही विकास होगा, हम ठीक रास्ते पर जाएंगे। उन पर सत्ता में शामिल होने का खूब दबाव पड़ा मगर वे टस से मस नहीं हुए और अपनी राह पर चलते रहे। उन्होंने गांधी की राह को चुना, सत्ता को नहीं।
युद्ध विरोध एवं विश्व शांति उनकी रुचि के विषय थे। इसके लिए अनेक विदेश यात्राएं की एवं सम्मेलनों में भाग लिया। आजादी के बाद उन्होंने अपना अधिकांश समय गांव के उत्थान हेतु ग्रामीण क्षेत्रों में ही लगाया। तमिलनाडु के मदुरै जिले के कल्लुपट्टी गांव में गांधी निकेतन आश्रम में एक कुटी बनाकर रहे। अंतिम वर्षों में उनकी तबियत ने बहुत साथ नहीं दिया। आज की समस्याओं को समझने व सुलझाने के लिए कुमारप्पा जी के योगदान, काम, विचार को अपनाने की जरूरत महसूस होती है। (सप्रेस)
श्री रमेश चंद्र शर्मा गांधी शांति प्रतिष्ठान केंद्रों के समन्वयक रहे है।