हमारे समाज की चालाकी है कि वह अपना मार्ग-दर्शन और समीक्षा करने वालों का,भगवानजी से लगाकर महापुरुष तक के दर्जे का महिमामंडन करके, किनारे कर देता है। अपने जीवन को अपना संदेश बताने वाले महात्मा गांधी भी इस कारनामे की चपेट में आने से बच नहीं पाए। आज गांधी की पूजा-पत्री करने और आरती गाने वालों की कोई कमी नहीं है, लेकिन उन्हें मानने, वापरने वालों का सर्वथा टोटा है।
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी आए दिन मंचों पर, फिल्मों और नाटकों में, किताबों, चित्रों और नोटों में खूब दिखाई पड़ते हैं, लेकिन वास्तविक जीवन में उनके विचारों को व्यवहार में लाने की कोशिश नहीं के बराबर ही दिखती है। हमने उनको प्रतिमा और पूजा-पाठ तक सीमित कर दिया है। राजनेता बड़े सम्मान से उनका नाम लेते हैं, लेकिन उनकी नैतिकता में इतनी गिरावट आ गई है कि वे गांधी का नाम लेने के हकदार नहीं रह गए हैं। आज अपने देश में हर उस चीज की पूजा हो रही है, जिसे महात्मा गांधी पाप समझते थे। अपने देश में विलासिता, और असहिष्णुता, घृणा, आक्रमकता, अलगाव, उपभोग और आत्म-केन्द्रित लालची जीवन-शैली को बढ़ावा मिल रहा है।
महात्मा गांधी के प्रपौत्र तुषार गांधी कहते हैं कि हमने ऐसी विलासिता पूर्ण जीवन-शैली अपनाई है कि बाकी दुनिया हमें एक आकर्षक बाजार और उपभोक्तावादी समाज के रूप में देखती है। हम एक व्यक्ति और समाज के रूप में कितने असहिष्णु हो गए हैं कि जरा सी बात पर अपराध कर बैठते हैं। हम अपने से भिन्न जीवन-शैली को बर्दाश्त नहीं कर पाते। हम कैसे रहते हैं, क्या खाते हैं, कैसे पहनते हैं, कैसे और किसकी पूजा करते हैं, हम कहां से आते हैं, हम क्या हैं, ये सब बातें झगड़े, दमन और यहां तक कि हत्या की वजह बन जाती हैं।
महात्मा गांधी के चिंतन में गांव था, लेकिन उनका गांव वह नहीं था, जो हमें शहरों के पिछलग्गू के रूप में आज हर जगह दिखता है। आज के नगर, महानगर हमारी मानसिक, शारीरिक और आत्मिक विकृति के नमूने हैं। हम हर बड़े नगर, महानगर में मेट्रो का जंगल पैदा कर रहे हैं। सारा पर्यावरण दम तोड़ रहा है। नदियां सूख रही हैं। जगह-जगह कूड़े-कचरे का अंबार लग रहा है। प्रकृति का जरूरत से ज्यादा दोहन हो रहा है। जंगल खत्म हो रहे हैं। जलवायु परिवर्तन हो रहा है। तापमान बढ़ रहा है। प्रदूषण बढ़ रहा है।
महात्मा गांधी की हत्या के बाद आचार्य विनोबा भावे की पहल पर तमाम गांधी और खादी से जुड़ी संस्थाओं को एक मंच पर लाकर ‘सर्व सेवा संघ’ की स्थापना की गई थी। इस संगठन की सक्रियता को जयप्रकाश नारायण ने बढ़ाया। उनके प्रयासों से गांधी जमात आपातकाल का विरोध करने लायक बनी, जिसकी परिणति केंद्र में सत्ता परिवर्तन के रूप में हुई। इनके आंदोलन ने बरसों से केंद्र की सत्ता पर काबिज कांग्रेस को उखाड़ फेंका। इतने सशक्त और सक्रिय संगठन की स्थिति आज बहुत चिंताजनक है।
गांधी-जमात की सर्वोच्च संस्था ‘सर्व सेवा संघ’ के मौजूदा अध्यक्ष चंदन पाल कहते हैं कि ‘सर्व सेवा संघ’ और अन्य गांधीवादी संगठनों में चिंतन चल रहा है कि वह सर्वोदय आंदोलन को कैसे सक्रिय और प्रभावी बनाए। वर्तमान समय में हम लोगों के दायरे के अंदर और बाहर जो चुनौतियां हैं, उन्हें कैसे सुलझाया जाए। उन्होंने कहा कि हमें यह स्वीकार लेना चाहिए कि आज सर्वोदय संगठन और उसका कामकाज क्षीण होता जा रहा है। विचारों में भी बहुत शिथिलता और ढीलापन आ गया है। एक-के-बाद-एक हम लोग मकड़जाल में फंसते जा रहे हैं। प्रदेशों के ‘सर्वोदय मंडल’ निष्क्रिय दिखाई दे रहे हैं। रचनात्मक कार्यक्रम जन-आंदोलन नहीं बन रहा है। अहिंसक समाज रचना के लिए जो संस्थाएं गठित हुई थीं, वे लक्ष्य की ओर जाने में विफल रह गई हैं।
चंदन पाल कहते हैं कि कई संस्थाएं गांधी जी के जीवन-दर्शन को लेकर उच्च-शिक्षा, मूलतः डिग्री देने का काम करती हैं, लेकिन अभी ‘गांधियन एकेडमिशियन’ से ज्यादा जरूरत ‘गांधियन एक्टिविस्ट’ की है। ‘गांधीयन अकेडमिक’ लोग ‘एक्टिविस्ट’ बन जाएं तो यह और भी अच्छा है। शांति सैनिक का काम घर में बैठकर पुस्तक पढ़ना या सोशल मीडिया पर चर्चा करना ही नहीं है, उनको मैदान में उतरना भी है और चुनौती भी लेना है। सबको साथ लेकर चलना है, यह बोलने और सुनने में बहुत अच्छा लगता है, लेकिन हकीकत अलग है। क्या हम कभी सोचते हैं कि हमारे साथ कितने आदिवासी, दलित, अल्पसंख्यक, युवा, महिला और थर्ड जेंडर हैं।
उन्होंने यह स्वीकार किया कि कुछ संस्थाएं लोगों के बीच में अच्छा काम कर रही हैं, लेकिन हम उन व्यक्तियों तथा संस्थाओं को ‘एनजीओ’ के नाम पर दूर रखना चाहते हैं। ऐसे लोग एवं संस्थाएं वैकल्पिक शिक्षा, स्वास्थ्य, पर्यावरण, कृषि आदि विषयों को लेकर आदिवासी एवं दलितों के बीच काम कर रहे हैं। पानी, नदी, किसानों के अधिकार, मछुआरों की समस्याओं को लेकर भी काम हो रहा है। हमें उनको भी जोड़ना चाहिए। आज जब हम भारत की आजादी का ‘अमृत महोत्सव’ मना रहे हैं, उसी समय कहीं-न-कहीं हमारे अस्तित्व पर भी संकट मंडरा रहा है।
जिस प्रकार मार्क्सवादी, लेनिनवादी, माओवादी, लोहियावादी, अंबेडकरवादी के रूप में हमारा समाज बिखरा हुआ है, वैसे ही गांधीवादियों के बीच में भी कहीं-न-कहीं विनोबावादी तथा जयप्रकाशवादी भावना सक्रिय है। यह हमें कमजोर कर रही है। हमारे सामने आज सबसे बड़ा खतरा हिंदुत्ववादी भावना है, जो समाज को टुकड़ों में बांट रही है। देश में निजीकरण, निवेशीकरण का महोत्सव चल रहा है। इसके पीछे गहरी साजिश है, इस बारे में कोई दो राय नहीं है। यह बात सही है कि ऐसी कार्रवाई से कुछ राजनीतिक ताकतों को फायदा मिल सकता है, लेकिन आम जनता, ग्राम समाज, नगर समाज और देश के लिए यह अत्यंत अशुभ संकेत है।
‘गांधी शांति प्रतिष्ठान’ के अध्यक्ष कुमार प्रशांत कहते हैं कि गांधी हमारे पढ़ने से, साधना से, कर्मकांड से, प्रतीकों से चिपकने से हाथ आता ही नहीं है। उन्हें समझना हो या कि उनके पास पहुंचना है तो उनके साथ चले बिना संभव नहीं है। गांधी की पूजा नहीं, गांधी की दिशा में छोटा-बड़ा सफर ही हमें जिंदा रख सकेगा।
जब गांधी से किसी ने पूछा कि दुनिया के लिए आपका क्या संदेश है तो गांधी ने बस एक छोटा सा वाक्य कह दिया कि “मेरा जीवन ही मेरा संदेश है।” बस यही आखिरी संदेश है। मैं जिस तरह से जिया हूं उसे देखो और उससे तुम्हारे जीने में मदद मिलती हो तो बस वही मेरा संदेश है। कुमार प्रशांत कहते हैं कि अब मैंने उसमें यह भी जोड़ दिया है कि मेरा जीवन भी नहीं, मेरा मरना भी मेरा संदेश है। कैसे जिएं और किन बातों के लिए मरें यह समझना हो और अपने लिए कुछ पाना हो तो गांधी का जीना और मरना आपके लिए भी उनका आखिरी संदेश बन जाएगा।
प्रख्यात लेखक विष्णु प्रभाकर कहते हैं कि गांधीजी आज केवल इसलिए अधिक जाने जाते हैं कि उन्होंने भारत को विदेशी शासन से मुक्त कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, लेकिन हकीकत यह है कि स्वाधीनता उनके लिए इतनी महत्वपूर्ण नहीं थी जितने सत्य, अहिंसा आदि मानवीय मूल्य। उन्होंने सबसे अधिक सत्य और कर्म पर जोर दिया। यह सत्य और कर्म का सिद्धांत कभी भुलाया नहीं जा सकता, पर आज शब्द अपने अर्थ से दूर हट गए हैं। छुआछूत कानूनन समाप्त कर दी गई है, पर वह नए रूप में निरंतर बढ़ती जा रही है।
महात्मा गांधी ने हमें अपने परिवेश पर, भाषा पर और अपने वेश पर गर्व करना सिखाया था। बापू ने कहा था कि हम अपनी खिड़कियां खुली रखें, जिससे बाहरी हवा अंदर आए, लेकिन यह भी हमें देखना है कि वह हवा आंधी का रूप न ले ले, जिससे हमारे पैर अपनी ही धरती से न उखड़ जाएं। हकीकत यही है कि आज हम अपनी धरती से उखड़ चुके हैं। यह हमारे लिए सबसे बड़ी त्रासदी है। (सप्रेस)
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