गांधी के अहिंसक तौर-तरीकों से आजाद हुए हमारे देश में अब हिंसा व्यापक और गहरे रूपों में हर कहीं मौजूद है। अहिंसा को स्थापित करने में लगे कुछ लोगों को समाज ने हाशिए पर बैठा दिया है। ऐसे में विकास और उससे उपजी सम्पन्नता की छोडिए, क्या हम एक व्यक्ति, समाज और देश की हैसियत से जिन्दा भी रह पाएंगे?
भारत का एक बड़ा भू-भाग और बड़ी आबादी लम्बे समय से हिंसा की चपेट में है। हिंसा का विस्तार कई नए स्वरूपों में होता जा रहा है। छत्तीसगढ़, बिहार, झारखंड, बंगाल, महाराष्ट्र, असम, नागालेंड़, मणिपुर, मिजोरम, मेघालय, अरूणाचल प्रदेश और कश्मीर के कई हिस्सों में हिंसा कोई ताजी दुर्घटना नहीं है। बीसों साल से यहाँ के नागरिक हिंसा की धुंध में सांस लेने को मजबूर हैं। हिंसा के जितने भी स्वरूप हो सकते हैं, वे गांधी के इस भारत में प्रचलन में हैं। यहाँ फौज, पुलिस और सिविलयन-मिलीटेंट्स आमने-सामने हैं। कश्मीर को छोड़कर अन्य प्रदेशों में इन्हें माओवादी, नक्सल और पूर्वोत्तर के प्रदेशों में इन पर उग्रवादी और सशस्त्र विद्रोहियों के लेबल चस्पां कर दिए गए हैं। इस आमने-सामने की लड़ाई में वे निर्दोष नागरिक भी जान-माल का नुकसान झेल रहे हैं जिनके नाम पर यह लड़ाई जारी है।
कश्मीर का मामला बहुत जटिल है। इसकी जड़ों में वहाँ का इतिहास और भूगोल दोनों गहराई तक शामिल हैं। कश्मीर में सेना और पुलिस आतंकवादियों के अलावा सीमा पर पाकिस्तानी आक्रमणकारियों और भीतर उन नागरिकों से भी जूझ रही है जिन्हें पत्थरबाज कहा जा रहा है। कश्मीर में जिस स्तर पर परेशानियाँ हैं उसका अंदाज वहाँ मौजूद भारतीय सैनिकों की संख्या से लगाया जा सकता है। कुछ दिनों पहले बताए गए आंकड़ों के अनुसार 8.50 लाख सैनिक कश्मीर में अमन-चैन बनाए रखने में लगे हैं। प्रधानमंत्री ने राष्ट्र के नाम दिए अपने संबोधन में बताया था कि कश्मीर में 42 हजार निर्दोष मारे गये हैं। यह नहीं बताया गया कि इन मरने वालों में कितने नागरिक थे और कितने सैनिक, यह भी नहीं बताया गया कि कितने सालों में ये 42 हजार लोग मारे गए।
देश में राजनैतिक हिंसा का भी अच्छा खासा इतिहास है। पंजाब में स्वर्ण मंदिर और भिंडरावाले के समय की घटनाएं याद करें तो एक प्रधानमंत्री की हत्या और इस हत्या की प्रतिक्रिया में बड़ी संख्या में सिक्खों की हत्याएं याद आती हैं। पंजाब के आतंकी दौर में सेना, पुलिस और उग्रवादियों की मुठभेड़ों में भी बड़ी संख्या में नागरिक मारे गये थे। हाल ही में संपन्न हुए लोकसभा चुनावों में जो हिंसा का तांडव हुआ वह तो बेमिसाल है। राजनैतिक कार्यकर्ताओं की हत्या तो पूरे देश में केरल से कश्मीर तक परम्परा ही बन गई है।
धार्मिक कारण भी देश में व्यापक पैमाने पर हिंसा फैलाने का सबब बनते रहे हैं। वर्ष 1992 के दंगों का स्मरण करें तो लगभग पूरी ‘गोबर पट्टी’ इसके प्रभाव क्षेत्र में दिखाई देती है। अयोध्या से लौट रहे राम भक्तों के रेल डब्बे में जो आग लगी थी उसकी प्रतिक्रिया गुजरात में देश में अब तक हुए सबसे बड़े सामप्रदायिक दंगे के रूप में हुई। गुजरात में हुए दंगों के दौरान वहाँ की सरकार की भूमिका हमेशा प्रश्नों के घेरे में रही है। इसी दंगे के लिए ’राजधर्म’ का जुमला गढ़ा गया था। यह हिंसा धार्मिक और राजनैतिक दोनों ही कारणों से लोगों की स्मृति में रच बस गई है।
देश में आरक्षण के नाम पर कभी भी तनाव बढ़ने लगता है। हाल में राजस्थान, महाराष्ट्र इसकी चपेट में आए हैं। ‘इण्डिया टुडे’ में महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री ने माना कि मराठा आरक्षण में हिंसा हुई है। इसी इन्टरव्यू में शहरी नक्सलवाद को खतरा मानते हुए उन्होंने कहा कि यह बढ़ते हुए शहरों में, विश्वविद्यालय परिसरों में पहुँच गया था जिससे वे कड़ाई से निपटे। आज देश में बड़ी संख्या में प्रश्न करने वाले बुद्धिजीवी, प्रोफेसर, वकील और राजनीतिक कार्यकर्ता ‘अर्बन नक्सल’ के आरोपों में जेलों में बंद हैं। चूंकि पढ़ने-लिखने वालों से लिख-पढ़ कर जूझना बहुतों, खासकर दक्षिण-पंथियों को संभव नहीं लगता, तो वे दाभोलकर, कुलबर्गी और गौरी लंकेश जैसों से निपटने के लिए उनकी हत्या तक कर देते हैं।
देश में हिंसा की कुछ घटनाओं का यह उल्लेख मात्र है, लेकिन असल बात तो इस असाधारण और हिंसक समय में गांधी पर बात करने की है। जो उदाहरण यहां दिए गए हैं उनमें तरह-तरह की आती-जाती सरकारों ने गांधी के किसी हथियार का कभी उपयोग नहीं किया। उन सरकारों ने तो गांधी की मामूली मुंह-दिखाई तक नहीं की जिन्होंने गांधी को हाईजेक कर अपनी सरकार का शुभंकर तक बना लिया। स्वच्छता के पोस्टरों में चश्मा दिखाकर गांधी को स्वच्छता निरीक्षक बनाने वालों ने हिंसा को बढ़ने से रोकने का कोई प्रयास नहीं किया। उनकी नाक के नीचे ही गोडसे देशभक्त कहे जा रहे हैं और उनका मंदिर स्थापित करने की बात हो रही है। जब गोडसे देशभक्त है तो गांधी कैसे देशभक्त हो सकते हैं?
अलबत्ता, सब कुछ समाप्त नहीं हुआ है। कुछ उदाहरण हैं जिनमें देश के आम और सबसे निचले तबकों के माने जाने वाले हजारों आदिवासियों ने गांधी के अहिंसक औजारों का उपयोग किया है। वर्षों नर्मदा घाटी के हजारों किसान-आदिवासी विस्थापित पद यात्राएं, धरने, अनशन करते रहे और देश की सबसे बड़ी कचहरी तक अपनी अहिंसक लड़ाई लड़कर पराजित होते रहे। कई बार तो सर्वोच्च अदालत से जीत कर मैदान में सरकारें भी उन्हें पराजित करती रहीं। हमारे शहरों का मध्यम वर्ग सहानुभूति की बजाए इन उजड़े आदिवासियों को बिजली, सिंचाई और विकास का दुश्मन मानता रहा। इस डूबते और विस्थापित होते समाज की नेता मेधा पाटकर जिसने अपना जीवन ही नर्मदा घाटी के लोगों के लिए अर्पित कर दिया,तथाकथित लोकतंत्र के मैदान से खदेड़ दी गईं, पढ़े-लिखों ने चुनाव में उनकी जमानत जब्त करा दी। एक और उदाहरण मणिपुर की उस जुझारू महिला इरोम शर्मिला का है जिसने गांधी के अहिंसक औजार का उपयोग किया और उत्तर-पूर्व में सेनाओं को इम्यूनिटी देने वाले कानून को रद्द कराने के लिए 16 सालों तक अनशन किया और अन्ततः हार कबूलना पड़ी। चुनाव में उन्हे 100 से कम वोट मिले। कुछ समय पूर्व एक और महत्वपूर्ण घटना घटी जब गंगा की अविरलता बनाए रखने के लिए आईआईटी-कानपुर के नामी-गिरामी प्रोफेसर और देश के प्रदूषण नियंत्रण मंडल के पहले सदस्य-सचिव प्रोफेसर जीडी अग्रवाल जिन्होंने सन्यास लेकर अपना नाम ही स्वामी सानन्द रख लिया था, आमरण अनशन करते हुए दुनिया से चले गये, लेकिन किसी के कानों में जूं तक नहीं रेंगी, न उत्तर प्रदेश की विधानसभा में और न भारत की संसद में।
हिन्दुस्तान में गांधी के बताये रास्तों पर चलने और उनके तौर-तरीकों को अपनाने का यह नतीजा रहा है। ऐसा लगता है कि वे तो अंग्रेज ही थे,जिन्होंने गांधी की अहिंसा के सामने हथियार डाल दिए और समारोह पूर्वक अपना झंड़ा उतारकर लपेटा और वापस चले गये। अगर गांधी आज होते तो 150 वर्ष की उम्र के होते, लेकिन उन्हें हम निश्चय ही भारत के दृश्य-पटल से हटा देते। अगर गांधी आज होते तो वे सरकार के पक्ष में न होने के कारण देशद्रोही कहलाते। उन्हें इस तथ्य को स्वीकार करना ही पड़ता कि बहुमत ही प्रजातंत्र है, मेजोरिटेरियनिज्म इज डेमोक्रेसी। (सप्रेस)