महात्मा गांधी ने अपने विचारों के क्रियान्वयन के लिए अनेक संस्थाओं का निर्माण किया था। 48 में, उनके जाने के बाद सभी को मिलाकर दो प्रमुख संस्थाएं बनाई गईं, परन्तु आज इन संस्थाओं के क्या हाल हैं? क्या आज भी वे गांधी के बताए रास्ते पर चल रही हैं? और क्या, बात-बात पर गांधी की कसमें उठाने वाली तरह-तरह की सरकारें गांधी को मानती हैं? इसी की पडताल करता अशोक शरण का लेख।
गांधी और विनोबा ने हमें देश की आजादी का जो मार्ग बताया वह गांवों से होकर जाता है। गांव का अर्थ है वो किसान, कारीगर, मजदूर, महिलाएं, पुरुष, बूढ़े, नौजवान और बच्चे जो न केवल एक-दूसरे के पूरक हैं, बल्कि एक खुशहाल परिवार, एक सशक्त समाज और एक विकसित गांव की संरचना करते हैं। गांधी ने कहा था कि जब तक हमारा गांव अपने पैरों पर खड़ा नहीं होगा, सामाजिक रुप से जागरूक नहीं होगा और आर्थिक रूप से मजबूत नहीं होगा तब तक देश की आजादी का कोई अर्थ नहीं है। अंग्रेजों के देश छोड़कर चले जाने से वास्तविक स्वतंत्रता नहीं मिलेगी, बल्कि इसी प्रकार शासन चलाने वाले दूसरे लोग आ जाएंगे और हम गुलामी की जंजीरों में जकड़े रहेंगे।
आज की विषमता देखकर यह महसूस होता है कि देश ने गांधी के बताए मार्ग पर चलने का इरादा त्याग दिया है। अमीर और अमीर होता जा रहा है तथा गरीब और गरीब। देश में एक वर्ष में 7300 अरबपति जुड़ गए, जिनकी कुल संपत्ति 6000 अरब डॉलर यानी 4 खरब 40 अरब रुपये आंकी गई है, वहीं विश्व के भूखे देशों में हम एक वर्ष में 100 से 103 वें पायदान पर आ गए। वर्ष 2014 में ‘भूख के सूचकांक’ में हम 55 वें पायदान पर थे और 2018 में 103 वें पर। देश में अमीर और गरीब के बीच बढ़ती खाई को लेकर सभी चिंतित हैं, मगर यह आंकड़ा सुरसा की तरह मुंह बाए खड़ा है। वर्ष 2023 तक अमीर और गरीब की खाई में 53 प्रतिशत की बढोत्तरी होगी।
देश के असमान विकास के लिए जितने नेता, राजनैतिक दल और सरकारें जिम्मेदार हैं, उससे अधिक तथाकथित गांधीवादी भी जिम्मेदार हैं। हमने गांधी के रचनात्मक कार्यक्रमों को भुला दिया। गांधी संपूर्ण देश में अपने द्वारा गठित संस्थाओं और रचनात्मक कार्यक्रमों के माध्यम से परिवर्तन लाए और लोगों को स्वतंत्रता के लिए जागरूक किया। अठारह रचनात्मक कार्यक्रमों में खादी-ग्रामोद्योग, महिलाएं, किसान, आदिवासी, अस्पृश्यता-निवारण आदि और संस्थाओं में ‘अखिल भारत चरखा संघ,’ ‘अखिल भारत ग्रामोद्योग संघ,’ ‘गुजरात विद्यापीठ,’ ‘नई तालीम समिति,’ ‘हरिजन सेवक संघ,’ ‘कस्तूरबा सेवा संघ’ आदि। इसके अतिरिक्त गांधी की अनिच्छा के बावजूद ‘गांधी सेवा संघ’ और ‘श्री गांधी आश्रम’ की स्थापना भी की गई।
गांधी की शहादत के बाद दो प्रमुख संस्थाएं गांधी के विचारों के माध्यम से कार्य करने के लिए बनाई गईं थीं। एक तो ‘अखिल भारत कांग्रेस कार्यसमिति’ ने अपने प्रस्ताव द्वारा ‘गांधी राष्ट्रीय स्मारक निधि’ की स्थापना की, जिसके अध्यक्ष डॉ. राजेंद्र प्रसाद और सदस्यों में पंडित जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल, मौलाना अब्दुल कलाम आजाद, जगजीवन राम, राजकुमारी अमृत कौर शामिल थे। इस निधि के मंत्री आचार्य कृपलानी थे।
दूसरी प्रमुख संस्था की स्थापना गांधी की हत्या के तुरंत बाद 1948 में ही सेवाग्राम में 3 दिन चली बैठक में हुई थी, जिसमें गांधी जी द्वारा बनाई गई संस्थाएं, जैसे – ‘चरखा संघ,’ ‘ग्रामोद्योग संघ’ आदि समाहित हुईं। इसका नाम ‘सर्व सेवा संघ’ रखा गया। इसमें ‘गांधी राष्ट्रीय स्मारक निधि’ में शामिल उपरोक्त लगभग सभी व्यक्ति और कुछ सर्वोदय कार्यकर्ता शामिल थे। इनमें प्रमुख रूप से विनोबा भावे, जयप्रकाश नारायण, किशोरी लाल मश्रुवाला, दादा धर्माधिकारी, आर्यनायकम और डॉ. सुशीला नैयर आदि शामिल थे।
गांधी के नाम पर बनी संस्थाएं जो विभिन्न विषयों पर काम करने के लिए थीं, स्वतंत्रता के बाद उसी उत्साह, समझ, समर्पण और लगन से काम कर रही होतीं तो देश की हालत आज ऐसी विषम नहीं होती। लोकहित में सरकार की नीतियों को बनाने के लिए इन संस्थाओं का एक विशाल जनाधार था, परंतु 1948 के बाद जैसे-जैसे समय बीतता गया संस्थाओं को चलाने वाले अपने-अपने दायरे में सिमटते गए। देश की तो छोड़िए, अपनी सहोदर संस्थाओं से भी कटते गए। इक्कीसवीं शताब्दी में तो इन संस्थाओं के पदाधिकारी और कार्यकर्ता एक-दूसरे का मुँह देखना भी पसंद नहीं करते। गांधी के नाम पर सभी को जोड़ने का एक प्रयास अवश्य हुआ जब गांधीजी की 150 वीं शताब्दी एक साथ मिलकर मनाने की बात हुई, लेकिन गांधी के नाम पर भी सभी एक नहीं हो पाए।
सरकार द्वारा चलाए जा रहे गांधी जी के रचनात्मक कार्यक्रम, जैसे – ‘स्वच्छ भारत’ आदि को यदि हम ‘कैग’ (सीएजी) और विपक्षी दलों के मूल्यांकन के लिए छोड़ दें तो भी गांधीवादियों के लिए स्थिति इतनी बुरी भी नहीं है कि सब कुछ समाप्त हो गया है। कुछ निर्भीक, अपनी धुन के पक्के, स्वतंत्र सोच रखने वाले युवा गांधीवादी कार्यकर्ताओं ने अपनी एक नई राह निकाली है और गांव के भूमिहीनों, आदिवासियों, मजदूरों, महिलाओं की लड़ाई लड़ रहे हैं।
गांधीवादियों द्वारा देश की आजादी के बाद किसी विषय को लेकर इतना बड़ा आंदोलन नहीं हुआ, जिसके आधार पर कोई कानून बना हो और उसमें सुधार के प्रयास जारी हों। हम ग्रामीण विकास और आदिवासियों के भूमि अधिकार और उनके सशक्तिकरण के मुद्दे की ओर आए तो इसमें गांधी जी का सबसे महत्वपूर्ण रचनात्मक कार्यक्रम खादी और ग्रामोद्योग शामिल हो जाता है। इससे 2010 में आरंभ हुए ‘खादी रक्षा अभियान’ को और शक्ति मिलती तथा एक साथ मुद्दे सुलझ जाते।
आदिवासियों, मजदूरों, किसानों को भूमि के अलावा गांव में ही रोजगार के साथ अतिरिक्त आय का साधन मिल जाता। आज की परिस्थितियों में केवल खेती पर रहकर घर नहीं चलाया जा सकता। यह सब खादी ग्रामोद्योग के माध्यम से संभव था, लेकिन दुर्भाग्य से गांवों में काम कर रही कत्तिन, बुनकर और अन्य ग्रामोद्योग कारीगरों की बात नहीं हो पाई। यह गांधीवादी संस्थाओं में विचारों की एक गहरी खाई है। सरकार ने ग्राम आधारित जिस खादी ग्रामोद्योग को नष्ट करने की नीति निर्धारित की है उस पर आंदोलन का कोई असर नहीं हो रहा है।
खादी और ग्रामोद्योग के लिए सरकार द्वारा ‘ग्रामोद्योग आयोग’ की स्थापना संस्थाओं के सहयोग के लिए की गई थी, ताकि ग्रामीण स्वरोजगार का कार्यक्रम सुचारू रूप से चलता रहे। अब ऐसा नहीं है, बल्कि मालिक और नौकर जैसा संबंध हो गया है। आयोग द्वारा विभिन्न प्रकार के बंधनों से खादी संस्थाएं परेशान हो गई हैं। कच्चा माल खरीद करने के लिए बंधन, कताई मजदूरी तय करने का बंधन, रेट चार्ट बनाने की प्रक्रिया का बंधन, कामगारों को बैंक से मजदूरी भुगतान करने का बंधन, विपणन सहायता में अव्यवहारिक परिवर्तनों का बंधन, कार्यकारी पूंजी के लिए बैंकों का बंधन, आयोग के अतार्किक नियमों का बंधन, संस्थाओं की संपूर्ण संपत्ति को आयोग के पास बंधक रखने का बंधन, अनाप-शनाप प्रमाण-पत्र, ऑडिट फीस देने का बंधन, अनावश्यक रूप से संस्थाओं पर दबाव बनाने का बंधन।
इन्हीं सब बंधनों से मुक्त होकर संस्थाएं गांधी जी के सिद्धांतों के आधार पर खादी और ग्रामोद्योग का कार्य करने का मन बना रही हैं, लेकिन पिछले कई वर्षों से यह देखने में आ रहा है कि गांधीवादी संस्थाओं की बात तो छोड़िए, राज्यों में ‘सर्वोदय मंडलों’ और खादी-संस्थाओं के मध्य संपर्क नहीं के बराबर रह गया है। ऐसी स्थिति सर्वोदय और खादी कार्यकर्ताओं की भी है।
ऐसा नहीं है कि गांधीवादी संस्थाओं ने ‘खादी रक्षा अभियान’ से जुड़ने के प्रयत्न नहीं किए। इन संस्थाओं में ‘सर्व सेवा संघ’ प्रमुख है, परंतु गांधीवादी संस्थाओं का इस अभियान में एक साथ न आना ‘खादी रक्षा अभियान’ की यात्रा का प्रभाव उतना नहीं हो रहा है, जितना होना चाहिए। खादी आंदोलन को चलाने के लिए इसके कर्णधारों को सीख लेना चाहिए ताकि नौजवानों को ‘खादी रक्षा अभियान’ के मार्गदर्शक मंडल में रखा जा सके और भारत सरकार को खादी अनुकूल नीति बनाने के लिए बाध्य किया जा सके। गांधीजी के रचनात्मक कार्यक्रमों के माध्यम से सरकार की नीतियों को लोकहित में बनाने के लिए हम तभी बाध्य कर पाएंगे, जब सभी गांधीवादी संस्थाएं और विचारनिष्ठ लोग एकजुट होकर इनके लिए प्रयास करें, जिसमें शांतिपूर्ण सत्याग्रह और जनांदोलन शामिल हो। (सप्रेस)
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