आम लोगों से भिन्न गांधीजी का पहनना-ओढ़ना भी एक व्यापक राजनीतिक-सामाजिक कार्रवाई का हिस्सा होता था। दक्षिण भारत की यात्रा के दौरान पारंपरिक काठियावाडी वस्त्रों को छोड़कर लंगोट धारण करना उनकी ऐसी ही एक पहल थी। कैसे हुआ,यह बदलाव?
गांधीजी की कथनी और करनी में कोई अंतर नहीं है। वे वही किया करते थे जो कहा करते थे, यानी उपदेश की अपेक्षा उन्हें कर्म करने में ज्यादा विश्वास था। वे अपने हर कार्य को आमजन से जोड़ा करते थे।
गांधीजी 21 सितंबर 1921 को त्रिचिनापल्ली से मदुरई जा रहे थे और मार्ग में डिंडीगल का रेलवे स्टेशन पड़ता था। वहां उन्होंने एक लेख लिखा और उसे ‘द हिंदू’ के संपादक रंगा अयंगार समेत ‘मुंबई क्रॉनिकल’ और ‘इंडिपेंडेंट’ समाचार पत्रों को भेज दिया। गांधीजी के मन में देश की आजादी और जनता को लेकर हलचल मची हुई थी। वे इस सोच में पड़े थे कि देश को जाना किस ओर है और किस ओर जा रहा है, क्या होगा इस देश का।
यह लेख एक शोक संदेश लिए हुए था। गांधीजी स्वदेशी और खादी आंदोलन को लेकर काफी चिंतित थे। ये आंदोलन सामूहिक इच्छा, एकता की भावना और अनुशासित वृत्ति के प्रतीक थे। उनका मानना था कि खद्दर द्वारा ही आमजन में अनुशासन और सही आचरण के विचारों को आरोपित किया जा सकता है।
खद्दर की मुख्य विशेषता यह थी कि यह चरित्र को तो रूपांतरण करती ही थी, साथ ही यह ‘सविनय अवज्ञा आंदोलन’ से भी जुड़ी थी। गांधीजी इस बात को लेकर भी चिंतित थे कि भारतीय लोग स्वदेशी को उसकी आत्मा व विचार से नहीं अपना रहे हैं। इस तरह से गांधी जी को काफी दुख पहुंच रहा था। स्वदेशी खद्दर तो भारतीयता की प्रतीक है और उसकी ऐसी दशा देखकर गांधीजी का मन विचलित और व्यथित हो रहा था। वे इस दुख को भी अपना मानकर अपने ही ऊपर दंड लगाकर देश के सामने एक उदाहरण पेश करने जा रहे थे।
अपने इस शोक को दिखाने के लिए उन्होंने तय किया कि आने वाले एक महीने तक वे अपनी टोपी, धोती और बनियान का त्याग करके सिर्फ लंगोट धारण करके ही संतुष्ट रहेंगे और यदि आवश्यकता हुई तो शरीर के ऊपर का भाग ढकने के लिए किसी कपड़े के टुकड़े का सहारा ले लेंगे। उन्होंने खद्दर पहनने में असमर्थ गरीब लोगों से आग्रह किया कि वे फकीर वाले लिबास को अपनाएं और कम-से-कम कपड़ों में ही खुद को सहज करें। उन्होंने कार्यकर्ताओं से आग्रह किया कि वे आने वाले महीनों में किसी और कार्यों को न करके खुद को खद्दर उत्पादन और खद्दर प्रचार में लगाएं जिससे स्वदेशी के कार्यक्रम को पूरा किया जा सके।
गांधीजी फकीर का लिबास पहनकर या लंगोट धारण करके भारतीयों को चरित्र की दृढ़ता, स्व-नियंत्रण, संगठन बनाने और खुद का उदाहरण पेश करने की क्षमता को दिखाना चाहते थे। उनका मानना था कि ये सारी बातें स्वदेशी को पूरा करने और स्वराज प्राप्त करने का माध्यम हैं। उस दिन रात्रि के 10:00 बजे गांधी जी के सिर के बाल काटने एक नाई को बुलाया गया। वह नाई खुद को काफी गौरवान्वित महसूस कर रहा था और इस कार्य की उसने कोई मजदूरी भी नहीं मांगी।
गांधीजी ने देखा कि मद्रास में खद्दर कम ही दिखाई देता है और उसकी शक्ति को भी यहां के लोग पहचानते नहीं हैं। इसी प्रकार गांधीजी को लोगों में अनुशासन व व्यवस्था की भी कमी दिखाई देती थी। लोग उनकी सभा में उन्हें सुनने की अपेक्षा देखने आते और आकर शोर मचाते।
इन सबको देखकर गांधी जी को काफी तकलीफ होती और उनका हृदय पीड़ा से कराह उठता। इस प्रकार से उनका फकीर का लिबास और कुछ नहीं, बल्कि उनके दर्द को बयां कर रहा था। उन्होंने अनुभव किया कि उनके द्वारा इस लिबास को पहनने से गुजराती लोगों को झिंझोडा़ जा सकता है। वे यह जानते थे कि फकीर का लिबास पहनकर गुजरात के लोगों की परीक्षा ली जा सकती है।
गांधीजी 22 सितंबर 1921 को सुबह 3:00 बजे उठे और उन्होंने फकीर के लिबास को पहनने से पहले काफी सोच-विचार किया। आयोजक गांधी जी को लेने आए तो उन्होंने देखा कि गांधीजी काठियावाड़ी लिबास में नहीं हैं। उन्होंने गांधी जी से कहा कि सभा में चलना है, तैयार हो जाइए। गांधीजी ने कहा कि मैं तो तैयार हूं। अब से मेरा लिबास यही रहेगा और इस लिबास को पहनकर वे कराइकूडी के लिए रवाना हुए। विश्व इतिहास में यह एक आश्चर्यजनक घटना थी। गांधीजी ने तय किया कि 31 अक्टूबर 1921 तक वे अपनी टोपी और बनियान का त्याग करके लंगोट धारण किए रहेंगे और अगर आवश्यकता हुई तो शरीर की सुरक्षा के लिए चादर भी पहन लेंगे।
गांधी जी ने लंगोट धारण कर लिया और लोगों से भी आग्रह किया कि वे भी इस प्रकार से अपने शरीर को ढक लें। गांधी जी ने कहा कि वे इस प्रकार के कपड़े पहनकर कोई सन्यासी नहीं बनने जा रहे हैं। उनका मानना था कि यहां के लोगों के लिए ऐसा पहनावा कोई बाहरी चीज नहीं है। मद्रास प्रेसीडेंसी के इलाके में तो लोग वैसे भी नाम-मात्र के कपड़े पहनते हैं।
गांधीजी का मानना था कि जिस प्रकार विदेशी कपड़ों का बहिष्कार आवश्यक है, उसी प्रकार खूब सारे कपड़ों का त्याग भी किया जा सकता है जो उनके शोक को दर्शाता है। यह शोक उनके अंदर तक गया और एक वर्ष बीत जाने पर भी बना रहा। इस प्रकार लंगोट धारण करने की उनकी यात्रा एक महीने न चलकर उनके अंतिम समय तक चली। कारण यह था कि उन्होंने न तो सबको अमीर पाया और न ही सब लोगों के दर्द दूर हो सके। वे यही चाहते थे कि सच्चा स्वराज तो तभी आएगा जब हम सब फकीर जैसा लिबास पहनना शुरू कर देंगे। (सप्रेस)
लेखक अंसार अली ‘राष्ट्रीय गांधी संग्रहालय, राजघाट’ में क्यूरेटर हैं।
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