रजनी बक्शी

एक तरह से देखें तो गांधी का समूचा जीवन मतभेदों से निपटते ही बीता, भले ही वे मतभेद संगी-साथियों, परिवार और धुर विरोधी विचारों के हों या फिर अपने हित साधने में लगी देशी-विदेशी सत्ताओं के। इन मतभेदों से निपटने की गांधी की ‘कला’ कैसी, क्या थी?

इस विषय को एक घटना से शुरू करते हैं। 30 अक्तूबर 1947 कर बात है। उन दिनों गांधीजी दिल्ली में घनश्यामदास बिरला के बंगले पर रह रहे थे। उस बंगले के बगीचे में रोज शाम को गांधीजी के नेतृत्व में सर्व-धर्म प्रार्थना हुआ करती थी। हिन्दू, सिख, ईसाई, मुसलमान, पारसी, जैन, बौद्ध प्रार्थनाएं मिलकर करने की प्रक्रिया दक्षिण अफ्रीका में गांधीवादी द्वारा स्थापित फीनिक्स आश्रम से चली आ रही थी। उस दिन प्रार्थना शुरू होने से पहले ही उस सभा में आए एक व्यक्ति ने कुरान की पंक्तियों को प्रार्थना में शामिल करने का विरोध किया। यह एक गहरा मतभेद व्यक्त हुआ था।

ऐसी परिस्थिति में आप क्या करते? क्या उस विरोध करने वाले व्यक्ति को सर्व-धर्म प्रार्थना का महत्व समझाने की कोशिश करते? क्या आप इस कारण कि अधिकांश लोग सर्व-धर्म प्रार्थना करना चाहते हैं और उसमें कुरान की पंक्तियां शामिल होना जरूरी है, उस व्यक्ति की बात सुनने से इनकार कर देते? क्या आप बल से विरोध करने वाले उस व्यक्ति को निकाल देते? क्या आप विरोध करने वाले के साथ मिल जाते और सर्व-धर्म प्रार्थना की रूपरेखा बदलने में लग जाते? अलग-अलग दृष्टिकोण के ऐसे कई मतभेद हो सकते हैं। सवाल यह है कि ऐसे में गांधीजी ने क्या किया? उस दिन विरोध करने व्यक्ति से गांधीजी कैसे पेश आए?

सबसे पहले तो गांधीजी ने दुख व्यक्त किया कि कुरान को प्रार्थना में शामिल करने का विरोध किया गया। गांधीजी ने कहा कि उस सभा में सभी का स्वागत है, लेकिन वहां आकर ऐसा विरोध करना सभ्य व्यवहार नहीं है। गांधीजी के लिये यह केवल मतभेद नहीं था। कुरान का विरोध करने वाला व्यक्ति गांधीजी के उस सबसे गहरे और गंभीर विश्वास पर ठेस पहुंचा रहा था कि सभी धर्म परमात्मा की उपासना करने के अलग-अलग रास्ते हैं। फिर भी गांधीजी का ध्यान इस पर था कि विरोध करने वाले के दिल में कैसी पीड़ा होगी जिसके कारण वह ऐसा कर रहा है। लेकिन गांधीजी अपने दृढ विश्वास से हिले नहीं। उन्होंने कहा कि ’’मैं मजबूर हूं, कुरान की पंक्तियां मेरी प्रार्थना का अभिन्न हिस्सा हैं।’’ इस बात को लेकर जो मतभेद था वह उन्हें स्वीकार था-’’अगर यह मतभेद पूरी तरह से अहिंसा के आधार पर व्यक्त हो।’’

ऐसी परिस्थितियों में हमें क्या करना चाहिए? मेरा यह मतलब नहीं है कि हम इस कहानी की किसी सरल ढंग से नकल करने की कोशिश करें, लेकिन मतभेद को निपटाने की कला के बारे में यह कहानी हमें कई संकेत देती है। इसकी गहराई में जाने से पहले हम कुछ बुनियादी बातों पर ध्यान दें। मानव जाति के लिए मतभेद स्वभाविक हैं और अनिवार्य भी। विचारों की विभिन्नता और मतभेद को सुलझाने से ही मानव जाति का विकास हुआ है। इसीलिए आजकल जब कुछ लोग मतभेद के कारण दूसरे कि जान लेने पर उतर आते हैं तो हम परेशान होते हैं। सोशल-मीडिया पर मतभेदों को लेकर जो क्रूरता फैली हुई है उसकी यात्रा भले ही नयी है, लेकिन मूल समस्या पुरानी है।

मानव इतिहास में मतभेद के कई नतीजे हुए हैं। मतभेद के कारण कुछ लोगों ने हत्याएं की हैं। मतभेद को चिल्ला-चिल्ला कर व्यक्त करने से दूसरे को डराया, धमकाया गया है। मतभेद वाले व्यक्ति को नजर-अंदाज किया गया है, ताकि वो न दिखे और न सुनाई दे। इन सभी से भिन्न एक रास्ता यह भी रहा है जिसमें मतभेद व्यक्त करने वाले को गहराई से सुनकर उससे संवाद करने की कोशिश की गई है। आज, इस समय, भारत में कई लोगों को ऐसा लगता है कि धर्म और जाति को लेकर हिंसक मतभेद हो रहे हैं, हालांकि इतिहास में कई मशहूर कत्ल-ए-आम धर्म के आधार पर नहीं, बल्कि राजनैतिक विचारधाराओं के कारण हुए हैं। उदाहरण के तौर पर-स्टॉलिन और ट्रॉटस्की दोनों मार्क्सवादी थे, दोनों ने रूसी क्रांति में प्रमुख भूमिका निभाई थी, लेकिन बाद में जब सत्ता पूरी तरह स्टॉलिन के हाथ में आ गई और उसका ट्रॉटस्की से मतभेद हो गया तो स्टॉलिन ने ट्रॉटस्की को देश से निकाल दिया और कुछ साल बाद उसकी हत्या करवा दी।

नाथूराम गोडसे और गांधीजी दोनों देशप्रेमी थे, लेकिन गोडसे को गांधीजी के दृष्टिकोण से इतना गहरा मतभेद था कि उसने उनकी हत्या कर दी। आज हम ऐसे समय में जी रहे हैं जिसमें गोडसे की प्रशंसा आम बात हो गई है। जो गोडसे की प्रशंसा करते हैं वे शायद उस व्यक्ति से सहमत होंगे जिसने कुरान को प्रार्थना में शामिल करने का विरोध किया था। आमतौर पर यह राजनैतिक मतभेद माना जाता है। एक तरफ हिन्दुत्व का मत और दूसरी तरफ वे लोग जो मानते हैं कि गोडसे ने स्वतंत्रता संग्राम की विरासत से धोखा किया था। 30 जनवरी की तारीख इस विवाद, इस गंभीर मतभेद की याद दिलाती है। आमतौर पर माना जाता है कि गांधीजी को इसीलिये मारा गया क्योंकि वे सर्व-धर्म समभाव को सर्वप्रिय मानते थे। लेकिन क्या यही मूल बात है? कौन ’’सही’’ हिन्दू है-क्या यही मूल मुद्दा था और आज भी है? मेरी मान्यता है कि गांधीजी का हत्यारा मूलतरू मतभेद को हल करने की कला पर चोट पहुंचाना चाहता था। इस कला का सार तत्व यह कि मतभेद, मनभेद न बने। आज हमारे समाज के सामने सबसे महत्वपूर्ण राजनैतिक और सांस्कृतिक मसला यह नहीं है कि कौन हिंदुत्व के पक्ष में है और कौन नहीं है। हमारे समाज के सामने सबसे महत्वपूर्ण चुनौती यह है कि हम मतभेद को मनभेद बनने से कैसे रोकें। जो मतभेद हैं उनको हम कैसे सभ्य ढ़ंग से सुलझाऐं। गांधीजी से हम मतभेद को निपटाने की कला के बारे में क्या सीख सकते हैं?

पहली बात यह है कि गांधीजी खुद भी जीवनभर मतभेद निपटाने की इस कला में सक्षम बनने की कोशिश करते रहे। वे हमेशा इसमें सफल भी नहीं रहे। इससे हमें भी इस रास्ते पर चलने का हौसला मिलता है, ताकत मिलती है। गांधीजी भी हम सबकी तरह संर्घषशील इंसान थे। इस बात का शायद सबसे मशहूर उदाहरण ‘पूना पैक्ट’ को लेकर गांधी और बाबासाहेब आंबेडकर का मतभेद है। गांधीजी के लंबे उपवास के कारण बाबासाहेब को अपना मत छोड़ना पड़ा था। गांधीजी का कहना था कि उपवास उन्होंने अपनी आत्मशुद्धि के लिये किया था, लेकिन बाबासाहेब को यह जबरदस्ती और दबाव के रूप में महसूस हुआ। यह मतभेद निपटाने की कला का अच्छा उदाहरण साबित नहीं होता, लेकिन फिर भी मैं यह आग्रह कर रही हूं कि हम गांधीजी से इस कला को हासिल करना सीख सकते हैं?

पहली बात-कि दूसरे के मत, उसके विचार से सम्पर्क बनाना हमेशा करने योग्य है। दूसरी बात-अपने मत पर दृढ रहते हुए यह करना संभव है। तीसरी बात-यह करने के लिए हमें दूसरे को गहराई से सुनने की तैयारी रखनी होगी। यह तभी संभव होगा जब हम उसकी बात के पीछे छुपी परेशानी और भय समझ पाऐंगे। लेकिन यह लक्ष्य प्राप्त करना तब ही संभव है जब हम दूसरों के साथ, उनके सहयोग से सक्षम बनना चाहें। अगर हमारा लक्ष्य ही दूसरों पर हावी होना, उनको अपनी ताकत के बल पर नीचा दिखाना है, तो फिर मतभेद को इस रूप में देखना शायद संभव नहीं होगा। जब ऐसा होता है तो मतभेद, मनभेद हो ही जाता है और क्लेश व हिंसा फैलने लगती है।

अगर आप मतभेद की कला को समझना चाहते हैं तो याद रखिये कि यह कला बहुत पुरानी है। गांधीजी हमारे देश की अनेक परंम्पराओं से प्रेरित होकर यह जानते थे कि जीवन के जो सक्षम पहलू हैं उनके रास्ते एक ही दिशा में जाते हैं- क्योंकि परम सत्य एक ही है। जब आपका आधार यह तर्क होता है तो दुनिया के स्थूल मतभेद छोटे और सुलझने लायक दिखते हैं। इसी बुनियादी सत्य के आधार पर गांधीजी कहा करते थे कि अहिंसा, हिंसा से ज्यादा ताकतवर है। अगर हमारे आसपास हिंसा बढ़ रही है तो वह इसीलिये कि हमने असली अहिंसा की साधना ही नहीं की। इसलिए उस 30 अक्तूबर 1947 की प्रार्थना के समय कुरान का विरोध करने वाले को जब बाकी लोगों ने बोलने से रोका तो गांधीजी को लगा कि यह एक प्रकार की हिंसा है और उस दिन उन्होंने प्रार्थना करने से इन्कार कर दिया। लेकिन वे जानते थे कि एक व्यक्ति की बात के कारण 300 लोगों को निराश करना भी एक प्रकार की हिंसा ही होगी। तो अगले दिन पूरी प्रार्थना करने का वायदा किया और अगर फिर विरोध हुआ तो उसे बिना क्रोध के झेलने की तैयारी भी रही।

जो भी बहुमत का पक्ष हो उसकी ज्यादा जिम्मेवारी होती है कि दूसरे, अल्प-संख्या वाले मत के साथ हिंसा न हो। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि गांधीजी ने कुरान को शामिल करने वालों से बाद में मिलकर बात करने का आमंत्रण दिया। इस आधार पर पूरी सर्व-धर्म प्रार्थना अगले दिन हुई और गांधीजी ने बाद में उन लोगों को धन्यवाद दिया कि वे प्रार्थना के दौरान चुप रहे। उन्होंने बाकी लोगों की भी प्रशंसा की कि उन्होंने शांति रखी और विरोधियों का विरोध नहीं किया। इसके ठीक तीन महीने बाद नाथूराम गोडसे ने अपना मतभेद बंदूक की गोलियों द्वारा व्यक्त किया। बाद में जब न्यायालय ने गोडसे को फांसी देने का फैसला सुनाया तो गांधीजी के परिवार ने और अंहिसा के पक्ष में काम करने वालों ने यह दुहाई दी कि गोडसे को फांसी न दी जाएं। आज हर इन्सान को खुद तय करना होगा कि इस कहानी में हिंसा जीती कि अहिंसा?

इस सवाल का आप जो भी जवाब निकालें आपके अपने जीवन में सुख और शांति इस पर निर्भर है कि आप मतभेद और मनभेद में अंतर करेंगे और मतभेद को स्वीकारते हुए मनभेद की दल-दल से दूर रहेंगे। (सप्रेस)

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रजनी बक्‍शी
मुंबई स्थित स्वतंत्र पत्रकार और लेखिका है। समकालीन भारत में सामाजिक और राजनीतिक आंदोलनों के बारे में लिखती रही हैं। वे गेटवे हाउस: गांधी काउंसिल ऑन ग्लोबल रिलेशंस में पहली गांधी पीस फेलो थी। वे कई अंग्रेजी और हिंदी अखबारों और पत्रिकाओं मेंलिखती रही है। उन्‍होंने किंग्स्टन, जमैका, इंद्रप्रस्थ कॉलेज (दिल्ली), जॉर्ज वाशिंगटन विश्वविद्यालय (वाशिंगटन) और राजस्थान विश्वविद्यालय (जयपुर) में में अध्‍ययन किया है।

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