नवनीत शर्मा

इतिहास के इस दौर में गांधी और उनके विचार सर्वाधिक आलोचना और समीक्षा झेल रहे हैं। शायद यह इसलिए भी है कि आज दुनियाभर को गांधी को अनदेखा कर पाना कठिन हो गया है। बीसवीं और इक्कीसवीं सदी में दुनिया को प्रभावित करने वाली तरह-तरह की विचारधाराएं गांधी को छोडकर आगे नहीं बढ पा रही हैं।

मार्क्सवादअम्बेडकरवादसमाजवादपूंजीवाद, धार्मिक राष्ट्रवादस्त्रीवादआधुनिकताविज्ञानवाद अथवा अन्य सभी कल्पित और अकल्पित वाद गाँधी की आलोचना और समालोचना से अपने राजनैतिक विमर्श और राजनीति का प्रस्थान बिंदु चुनते हैं। गाँधी के साथ असहमति कोई अपराध नहीं है और इस असहमति को यदि कोई अपराध की संज्ञा देता तो गाँधी ही इसका सबसे पुरजोर विरोध करते। गाँधी के विचार और संदेश की आलोचना करते हुये हम गाँधी के जीवन की आलोचना करने लगते हैं, शायद इसलिए क्योंकि गाँधी ने स्वयं ही कहा था कि मेरा जीवन ही मेरा संदेश है।‘ गाँधी को पसंद अथवा नापसंद किया जा सकता हैपरंतु गाँधी को नज़र-अंदाज नहीं किया जा सकता। 21वीं सदी के बाईसवें वर्ष में भी गाँधी मानवीयता और राजनीति दोनों के लिए अपरिहार्य हैं।   

विभाजनभगत सिंह की फांसीसांप्रदायिक अधिनिर्णयउनके सत्य के अनूठे प्रयोगअहिंसासत्याग्रहधोतीबकरीलाठी, जैतून के तेल इत्यादि सबको लेकर गांधी की आलोचना भारतीय विमर्श में व्याप्त है। बोसपटेल, नेहरुसीतारमैयाकनु एवं मनु गाँधीजिन्नामहादेव देसाई इत्यादि सबके पक्ष और प्रतिपक्ष में गाँधी की आलोचना हुयी है। कई संदर्भों में जहाँ गाँधी आलोचना का कोई तर्क संभव नहीं थावहाँ भावना और कुतर्क का अवलंब रचा गया है। गाँधी की अनुशंसा और आलोचना पर इतना वांग्मय है कि कुछ नया न कह पाने का संकट विराजमान है। प्रत्येक तीस जनवरी और दो अक्तूबर को गाँधी को सहेजने और समेटने की समालोचना का व्यतिक्रम नवीन उर्जा के साथ प्रकट होता है। गाँधी की आलोचना प्रायः तर्क आधारित न होकर अकथ्य और अवर्णित अपशब्दों के सहारे की जाती है। गाँधी के नैतिक दर्शन का मुखर विरोध अक्सर अनैतिक शब्दावली और कल्पनीय अवस्था और दुर्दशा से भयाक्रांत होकर किया जाता है।   

गाँधी का नैतिक दर्शन अनीश्वरवादी होने के कारण उनके मनुष्य व्यवहार और स्वभाव की आतंरिक शुचिता में उनकी आस्था से पनपता है। गाँधी का नैतिक दर्शन इतना सूक्ष्म है कि गाँधी उसे श्वास के आवगमन के साथ पनपने की अपेक्षा करते हैं। कोई मनुष्य केवल इसलिए नैतिक न होक्योंकि अन्य की नैतिकता उसके अपने जीवन को सुखद बना देगीइसलिए भी नहीं कि अनैतिक होने के कारण ईश्वर दंड स्वरूप उसे नरकगामी बना देगा। गाँधी के राम अयोध्यावासी दशरथ के पुत्र राम न होकर एक अध्यात्मिक अवधारणा हैं। गाँधी के रामअल्लाह या ईसा को मानने वालों को डराते नहीं हैंवरन मनुजता में आस्था रखने का संबल देते हैं।

गाँधी की नैतिकता अनीश्वरवादी अवश्य थीपरंतु ईश्वरविहीन नहीं। गाँधी उस देशकाल में समाजशास्त्रीय ईश्वर की रचना करते हैंजब दर्शन के जगत में अस्तित्ववादी ईश्वर और ईश्वर पर आधारित नैतिकता दोनों को ख़ारिज कर रहे होते हैं। विज्ञानतकनीक और आधुनिकता के भरोसे पूरी दुनिया साम्राज्यवाद और दो विश्व-युद्धों को झेल रही होती है। जब ईश्वर की सत्ता को भगत सिंह का दर्शन चुनौती दे रहा होता है और हिटलर खुद को स्वयंभू ईश्वर घोषित कर रहा होता हैऐसे समय में किसी भी फासीवादनाजीवाद, अंधराष्ट्रवाद की चुनौती केवल दुनिया के भूगोल और अर्थशास्त्र को ही नहींवरन मानवता और मानवीय संवेदनाओं के लिए भी खडी हो रही होती है।    

गाँधी के खिलाफत आंदोलन’ के समर्थन और उसके सहारे असहयोग आंदोलन’ के विस्तार में धार्मिक सौहार्द और सहिष्णुता को पहली चुनौती चौरी-चौरा’ में मिलती है। यह गाँधी सरीखा ही कोई अपनी नैतिकता के प्रति इतना निष्ठावान हो सकता है कि इतने व्यापक जन-समर्थन और खुद के शुरू किये हुये जन-आंदोलन से स्वयं को अलग कर सके। हिंसा के प्रति उनका दुराव इतना गहरा था कि वे उनका श्रेणीकरण न करकेनायक अथवा खलनायक की हिंसा न मान विशुद्ध हिंसा मानते थे और उसका अहिंसा से विरोध करते थे। इस विचार की गूढ़ता कि हिंसाप्रतिहिंसा सारी दुनिया को अंधा बना देगीकिसी राष्ट्रराज्यधर्म और जाति के संदर्भ बिंदु से नहीं समझी जा सकती। कोई एक गाल पर मारे तो दूसरा आगे कर दो – का दर्शन उस लोक और सांसारिक विमर्श में पनपना जटिल है जहाँ ईंट का जवाब पत्थर से’ देने की कहावत चलन में हो।

गाँधीभगत सिंह की तरह संपूर्ण और परिवर्तनकारी सामाजिक क्रांति में विश्वास की अपेक्षा मनुष्य के भीतर निज-अच्छाई में आस्था रखते थे। प्रख्यात पशु-विज्ञानी डेसमंड मॉरिस भी कुछ इसी तरह की व्याख्या देते हुये कहते हैं कि मनुष्य ने अपने चारित्रिक गुण छोटे समूहों और विस्तृत क्षेत्रों में विकसित कियेपरंतु विज्ञान और तकनीक ने दुनिया को इतना समेट दिया कि यह मनुष्यों का चिड़ियाघर बन गया है। यह इस चिड़ियाघर का प्रभाव ही है कि सभी मुद्दे और विवाद हम शारीरिक ताकत और हिंसक क्षमता से सुलझाने का प्रयास करते हैं। गाँधी शायद ही कभी यह चाहते कि हिन्दुस्तान एक सुपरपावर बन बाकी की दुनिया पर आधिपत्य जमा ले।

गाँधी ब्रिटिश साम्राज्यवाद के नहींवरन साम्राज्यवाद के विरोधी थेवे उसे भारतीय साम्राज्यवाद से विस्थापित करने की कल्पना नहीं करते थे। इसी दर्शन में उन्होंने 1934 में आये भीषण भूकंप को उस ‘पाप’ का नतीजा बताया था जो अस्पृश्यता और दलितों के प्रति भेदभाव से होता है। टैगोर ने इसकी मुखर आलोचना की थी जिसे गाँधी ने हरिजन’ में प्रमुखता से प्रकाशित किया था। कोई भी प्राकृतिक आपदा भले ही सीधे तौर पर मनुष्य जनित न होपर वह मानव निर्मित आपदाओं और भेदभावों का प्रतिफल हैऐसा गाँधी मानते थे। यह आज से सौ साल पहले का गाँधी का विचार है जिसे पर्यावरणविद अब विकास की भिन्न परिभाषा गढ़ने का आधार मानते हैं।

प्रकृति अथवा ईश्वर हमें जातिगत भेदभाव करने पर दंडित करती हैक्योंकि जाति ईश्वर द्वारा निर्मित न होकर मनुष्य द्वारा रचित हैऐसा विचार गाँधी उस समाज में ला रहे थे जहाँ धर्म-दर्शन से जाति-व्यवस्था की वैधता तलाशी और स्वीकार की जा रही थी। यह विचार आलोचना योग्य अवश्य हैपरंतु निंदनीय नहीं। गाँधी विचार किसी भी अन्य विचार की तरह संपूर्ण नहीं है और गाँधी ने स्वयं कहा था कि यदि मेरे विचारों में विरोधाभास मिले तो मेरे बाद के विचार को माना जाये। इस उक्ति से गाँधीमनुष्य और विचार के परस्पर विकास के अनुक्रम को मानते थे। गाँधी उस नैतिकता को ही नैतिक मानते थे जो गहरे भीतर से पनपे। वे किसी भी नैतिकता कोजिसे थोपने की आवश्यकता अथवा दंड के प्रावधान की जरुरत होनैतिकता मानने से ही इंकार करते थे।  

इसी भाव से गाँधी श्रम अथवा श्रमिक के मध्य श्रम को अधिक मान्यता देते थे। श्रम को निरपेक्ष करने से श्रम के साथ जुड़े किसी भी तरह के गर्व अथवा हीनता बोध को विलग करने का प्रयास था। इसी क्रम में गाँधी दिमाग की अपेक्षा हाथ से पनपने वाली शिक्षा को श्रेष्ठतर समझते थे। गाँधी जीवन में अनुशासन का महत्त्व मानते हुए भी अनुशासन के लिए किसी भी ‘शासन’ का समर्थन नहीं करते थे। यह तमाम प्रसंग आलोचना भले आमंत्रित करेंपरंतु ‘निंदा’ नहीं। आलोचना सकारात्मक हैनिंदा हिंसक। गाँधी की आलोचना अथवा मूल्यांकन अथवा उनकी आवश्यकता एवं प्रयोग नितांत गहन अध्ययन की मांग करते हैं।

संपूर्ण गाँधी-वांग्मय सौ खण्डों में संकलित हैउसे पढ़कर गोडसे ने गाँधी की हत्या का विचार किया हो यह संभव नहीं है। गाँधी तमाम जन नायकों की तरह एक समय के बाद ‘अफवाह’ बन गये थे। जो गाँधी नोआखली में स्वयं को असहाय एवं जर्जर पा रहे थेउनसे भारत के विभाजन और भूगोल पर प्रभाव रखने की उम्मीद खुद उम्मीद से भी परे थी। गाँधी यदि आज होते तो वे अपने धुर विरोधियों के लिए सदबुद्धि हेतु प्रार्थना-सभा आयोजित करते। गाँधी उस दर्शन में रचे-बसे थे जिसमें सर्वे भवन्तु सुखिनःसर्वे सन्तु निरामयः’ ही था और वे उसे केवल हिंदू भवन्तु सुखिनःहिंदू सन्तु निरामयः’ नहीं पढ़ते थे। गाँधी की सशरीर अनुपस्थिति में प्रार्थना करने के दायित्व का निर्वहन हम सबको करना होगा। (सप्रेस)

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