भारत डोगरा

केन्‍द्र सरकार द्वारा बनाए गए दो कानूनों और एक संशोधन के विरोध में इन दिनों देशभर में किसानों ने आंदोलन खडे कर रखे हैं। इन आंदोलन की बुनियादी मांगों के साथ गांधी की तजबीज भी जुड जाए तो कैसा हो?

भारत के अनेक किसान संगठनों ने कृषि के बढ़ते ‘कारपोरेटीकरण’ के विरोध की राह अपनाई है। यह एक सही निर्णय है। यदि वे इसके साथ महात्मा गांधी के कुछ महत्त्वपूर्ण सिद्धांतों को भी अपने आंदोलन में जोड़ लें तो उन्हें आगे की राह तलाशने व टिकाऊ, सार्थक बदलाव की ओर बढ़ने में मदद मिलेगी।

महात्मा गांधी के अहिंसक संघर्ष के मार्ग से प्रायः किसान सहमत हैं। महात्मा गांधी ने गांवों को राष्ट्रीय विकास के केन्द्र में रखा था। यही किसान संगठन भी चाहते हैं। महात्मा गांधी ने विकास के केन्द्र में भी सबसे निर्धन व्यक्ति को ही रखा था। प्रायः गांवों के सबसे निर्धन व्यक्ति वे होते हैं जो भूमिहीन होते हैं। विनोबा भावे, जयप्रकाश नारायण और अन्य गांधीवादियों ने इस सोच को ‘भूदान आंदोलन’ के माध्यम से आगे बढ़ाया। ‘एकता परिषद’ जैसे अनेक गांधीवादी संगठनों ने भी इस सोच व इससे जुड़े कार्यक्रमों को क्रियान्वित किया। भारत सरकार ने इसके लिए भूमि सुधार आरंभ भी किया, पर अब उसी ने इस कार्यक्रम को लगभग त्याग दिया है जिससे भूमिहीन ग्रामीणों का संकट बढ़ गया है। आज स्थिति यह है कि कारपोरेट क्षेत्र के लिए जमीन धड़ल्ले से मिल जाती है, पर जो गांवों के मूल निवासी भूमिहीन हैं उनके लिए कोई भूमि उपलब्ध नहीं करवाई जाती।

गांधी, विनोबा और जयप्रकाश के नजरिए से देखें तो भूमिहीनों को कुछ भूमि अवश्य मिलनी चाहिए। वे कोई बहुत बड़े खेत नहीं मांग रहे हैं, वे तो केवल थोड़ी सी भूमि चाहते है जिसमें वे गुजारे लायक खाद्य उगा सकें। यदि किसान संगठन उनको भी अपना भाई समझकर, उन्हें अपने संगठन से जोड़ लें और उनको थोड़ी सी भूमि यथासंभव उपलब्ध करवाने को अपना समर्थन दें तो इससे भूमिहीनों को राहत मिलेगी, गांव में गरीबी कम होगी व किसान संगठनों का आधार बहुत व्यापक हो जाएगा, क्योंकि लगभग सभी ग्रामीण परिवार इन संगठनों से जुड़ जाएंगे। इसके साथ ही छुआछूत को भी गांव से पूरी तरह समाप्त करना चाहिए।

महात्मा गांधी ने गांवों की निर्धनता का एक बुनियादी कारण यह खोजा था कि केवल कृषि आधारित ग्रामीण अर्थव्यवस्था में पर्याप्त रोजगार पूरे वर्ष के लिए नहीं मिलता है और गांवों में प्रदूषण-रहित, श्रम-सघन कुटीर-उद्योग अवश्य होने चाहिए। अतः खादी के रूप में उन्होंने कताई, बुनाई की परंपरागत आजीविका को बनाए रखने पर बहुत जोर दिया था। गांधी की खादी को उत्साहवर्धक समर्थन पूरे देश से मिला था, पर हाल में परंपरागत दस्तकारों को बहुत क्षति पंहुची है। परंपरागत दस्तकारियों की रक्षा के साथ ऐसे अनेक प्रदूषण-रहित कुटीर व लघु उद्योगों को भी किसान संगठनों का समर्थन मिलना चाहिए जो गांवों को आत्म-निर्भरता की ओर ले जाते हैं और किसान परिवारों को गांव व कस्बे के स्तर पर ही विविधता भरे रोजगार उपलब्ध करवाते हैं।

गांधी जी ने गांवों की आत्म-निर्भरता पर बहुत जोर दिया था। यह तभी संभव है जब बड़ी कंपनियों के बीजों, रासायनिक खाद व कीटनाशक दवाओं, अत्यधिक मशीनीकरण की महंगी निर्भरता से किसान मुक्त हों। विश्व में अनेक स्थानों पर किसानों ने उत्पादन कम किए बिना महंगी निर्भरता को दूर करने में उल्लेखनीय सफलता प्राप्त की है। इसके लिए उन्होंने उचित फसल-चक्र, मिश्रित खेती, प्रकृति की बेहतर समझ से की गई खेती को अपनाया है। इस खेती में किसी जहरीले रसायन को नहीं अपनाया जाता है, अपितु खेती के सब मित्र जीवों, केंचुओं, तितलियों, भंवरों, पक्षियों की रक्षा की चिंता की जाती है। यह खेती अहिंसक व रचनात्मक खेती है। इसमें निरंतर प्रकृति की प्रक्रियाओं को समझा जाता है कि कैसे प्रकृति स्वयं हरियाली बढ़ाती है और फिर इस समझ के अनुसार आसपास गांवों में ही उपलब्ध संसाधनों से खेती की जाती है। गांधी जी और उनकी राह पर चलने वाले वैज्ञानिकों ने इसी सोच को बढ़ाया है।

यदि किसान संगठन इस सोच को अपनाएंगे तो उनके खर्च तेजी से कम होंगे व व्यापक स्तर पर पर्यावरण सुधार से कृषि सुधार, वनीकरण, जल-संरक्षण आदि की संभावनाएं भी तेजी से बढ़ेंगी। गांधी जी का आत्म-निर्भर गांवों का सपना पूरा करने में किसान संगठन मदद करेंगे।

महात्मा गांधी ने महिलाओं के आगे आने पर जोर दिया है। अधिकांश छोटे किसान परिवारों में महिलाएं खेती में महत्‍वपूर्ण योगदान देती हैं पर उनकी भूमिका को उचित मान्यता नहीं मिलती। गांधीजी की सोच के अनुकूल होगा कि किसान संगठन महिलाओं की कृषि में देन को मान्यता प्रदान करें व उन्हें अपने संगठन में भी महत्‍वपूर्ण स्थान दें।

गांधी जी ने शराब व हर तरह के नशे को समाप्त करने पर बहुत जोर दिया था, पर आज तो दूर-दराज के गांवों में भी शराब के ठेके खोले जा रहे हैं। किसान संगठनों की स्थाई नशा विरोधी समितियों का गठन महिलाओं के नेतृत्व में करना चाहिए जो स्थाई तौर पर गांवों में शराब व अन्य सब तरह के नशे को समाप्त करने की जिम्मेदारी संभालें तथा अन्य समाज-सुधार कार्यक्रमों (जैसे छुआछूत व दहेज प्रथा समाप्त करने) को भी आगे बढ़ाएं। इस तरह किसान संगठनों व गांव समुदायों का नैतिक व आर्थिक आधार भी मजबूत होगा। गांधी की राह को अपनाने से किसान संगठनों की सार्थक भूमिका बहुत व्यापक और सशक्त हो सकेगी। (सप्रेस)

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भारत डोगरा
लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं और अनेक सामाजिक आंदोलनों व अभियानों से जुड़े रहे हैं. इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल साईंस, नई दिल्ली के फेलो तथा एन.एफ.एस.-इंडिया(अंग्रेजोऔर हिंदी) के सम्पादक हैं | जन-सरोकारकी पत्रकारिता के क्षेत्र में उनके योगदान को अनेक पुरस्कारों से नवाजा भी गया है| उन्हें स्टेट्समैन अवार्ड ऑफ़ रूरल रिपोर्टिंग (तीन बार), द सचिन चौधरी अवार्डफॉर फाइनेंसियल रिपोर्टिंग, द पी.यू. सी.एल. अवार्ड फॉर ह्यूमन राइट्स जर्नलिज्म,द संस्कृति अवार्ड, फ़ूड इश्यूज पर लिखने के लिए एफ.ए.ओ.-आई.ए.ए.एस. अवार्ड, राजेंद्रमाथुर अवार्ड फॉर हिंदी जर्नलिज्म, शहीद नियोगी अवार्ड फॉर लेबर रिपोर्टिंग,सरोजनी नायडू अवार्ड, हिंदी पत्रकारिता के लिए दिया जाने वाला केंद्रीय हिंदी संस्थान का गणेशशंकर विद्यार्थी पुरस्कार समेत अनेक पुरुस्कारों से सम्मानित किया गया है | भारत डोगरा जन हित ट्रस्ट के अध्यक्ष भी हैं |

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